Tuesday, September 24, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-२

क्रमश:
                          परमात्मा का ही अंश यहाँ वहाँ सब में मौजूद है |उस अंश की वास्तविकता को जो भी समझ लेता है ,वह फिर किसी भी ऐसे कर्म में लिप्त हो ही नहीं सकता ,जिसका परिणाम उसे पुनर्जन्म पाकर भुगतना पड़े |सब परमात्मा का ही है और परमात्मा सब का ध्यान रखता है ,यही इस संसार का मूल मन्त्र है |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
                                              यो माँ  पश्यति सर्वत्र सर्वं च  मयि पश्यति |
                                              तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति || गीता ६/३० ||
                     अर्थात्,जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक रूप से देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है,उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता  है |
                     इसका अर्थ यही हुआ की संसार में परमात्मा का ही अंश मौजूद रहता है |जो व्यक्ति इस बात को आत्मसात कर लेता है,उसके लिए परमात्मा के दर्शन करना दुर्लभ नहीं है,क्योंकि सब में परमात्मा का ही अंश उपस्थित रहता है |भगवान कहते है की ऐसे व्यक्ति मेरे लिए भी अदृश्य नहीं होते यानि ईश्वर भी ऐसे व्यक्तियों का सदैव ध्यान रखता है |इसलिए सब में परमात्मा को देखना ही यथार्थ देखना है | यह जानने और समझने के बाद व्यक्ति कितना भी सांसारिकता  में उलझा हुआ हो ,उसकी परमात्मा की तरफ अग्रसर होने की सम्भावना बनी रहती है |  यह परमात्मा को प्राप्त करने के लिए प्रेरित होने की अवस्था है |यहाँ पर परमात्मा को पाने के मार्ग पर यात्रा शुरू नहीं हुई है |केवल मात्र मार्ग ढूंढने की अभिलाषा के जन्म लेने की सम्भावना बनी है |जब पूर्ण रूप से व्यक्ति इस बात को स्वीकार कर लेगा की सर्वत्र परमात्मा ही व्याप्त है तभी वह उसकी तरफ अग्रसर होने के लिए मार्ग चुनने को प्रेरित होगा |
                              परमात्मा को पाने के यूँ तो कई मार्ग हो सकते हैं |परन्तु प्रमुख रूप से इसके लिए तीन मार्ग बतलाये गए हैं |इन तीनो मार्गों के बारे में गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-
                                             ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मनमात्मना |
                                             अन्ये   सांख्येन    योगेन    कर्मयोगेन    चापरे || गीता १३/२४ ||
                    अर्थात्,परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा ह्रदय में रखते हैं ,अन्य कितने ही ज्ञान योग के द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग के द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं |
                        यहाँ पर परमात्मा ने अपनी प्राप्ति के तीन मार्ग सुझाये हैं |जो दिखाई देने में अलग अलग है परन्तु सब का लक्ष्य एक ही है |सब रास्ते परमात्मा के द्वार तक जाते हैं |ये मार्ग हैं-ध्यान योग,ज्ञान योग और कर्म योग |चुनना आपको है ,अपनी सुगमता के अनुसार,अपनी क्षमता के अनुसार और अपने स्वभाव के अनुसार |यह आवश्यक नहीं है कि जिस रास्ते को कबीर ने चुना (निष्काम कर्म यानि कर्म योग )वह आपके लिए भी उपयुक्त हो|अतः यह जरूरी नहीं है कि आप एक जुलाहे की तरह काम करने लग जाओगे तो तुम्हें परमात्मा मिल ही जायेंगे |कबीर को जुलाहे के कर्म ने परमात्मा के द्वार तक नहीं पहुंचाया था,उन्हें कर्म योग यानि निष्काम कर्म ने वहां तक पहुँचाया था |बुद्ध और महावीर ने परमात्मा को ध्यान योग से पाया था और स्वामी विवेकानंद ने ज्ञान योग से |इन सबके रास्ते अलग अलग जरूर नज़र आते है,नज़र क्या आते है अलग अलग ही हैं,परन्तु सबका लक्ष्य एक ही है-परमात्मा यानि सत् को पाना |
                           इन सभी तीनों मार्ग भले ही अलग अलग नज़र आते हों ,परन्तु सब में एक समानता अवश्य नज़र आती है |सभी मार्गों में परमात्मा की उपस्थिति अवश्य होती है |कर्म योग में सभी कर्म परमात्मा के निमित्त किये जाते है,ध्यान योग में सिर्फ और सिर्फ परमात्मा का ध्यान किया जाता है और ज्ञान योग में परमात्मा के वास्तविक स्वरुप को समझते हुए उसे प्राप्त किया जाता है |तीनों ही मार्गों में संसार से विमुखता होती है और परमात्मा से सम्मुखता |  
क्रमश:
                                || हरिः शरणम् ||

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