क्रमश:
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेति तत्वतः || गीता ७/३ ||
अर्थात्, हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से यानि यथार्थ रूप से जानता है|
पहली बात तो यह है कि ज्यादातर लोग तो परमात्मा कों प्राप्त करने का प्रयास ही नहीं करते हैं|कोई हजारों लोगों में से कोई मात्र एक व्यक्ति ही इसके लिए प्रयत्न करता है|और ऐसे हजारों प्रयत्न करने वालों में भी कोई एक परमात्मा के प्रति समर्पित होकर उसे तत्व से अर्थात् उसके वास्तविक स्वरुप कों जान पाता है|ऐसा व्यक्ति जिसे भी योगी कहा जा सकता है ,वह योगी शरीर त्यागने के पश्चात परमात्मा कों ही प्राप्त होता है और जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है|इस बात कों और अधिक स्पष्ट करते हुये भगवान कहते हैं-
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना |
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् || गीता ८/८ ||
अर्थात्,हे पार्थ!यह नियम है कि परमात्मा के प्रति ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त,दूसरी और न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम दिव्य पुरुष अर्थात परमपिता परमेश्वर कों प्राप्त होता है|
इससे यह स्पष्ट होता है कि परमात्मा को अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है|मन कों केवल मात्र परमात्मा के प्रति समर्पित करते हुये एक मात्र उनका चिंतन करते रहने से ही उसकी प्राप्ति सुलभ हो जाती है |इसके लिए एक मात्र परमात्मा के प्रति ध्यान का अभ्यास करते रहना होगा |बिना अभ्यासयोग के ध्यान असंभव होता है|बिना ध्यान के मन पर नियंत्रण रखना असंभव होता है,जिससे परमात्मा की प्राप्ति भी दुर्लभ हो जाती है|रामचरितमानस में गोस्वामीजी कहते हैं कि-
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं |जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ||सुन्दरकाण्ड ४४/२ ||
भगवान कहते हैं कि जीव ज्योंही मेरे सम्मुख होता है,त्योंही उसके करोडों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं|जब विभीषण कों रावण ने लंका से निकाल दिया था,तब वह भगवान की शरण में आने कों वहां से निकल पड़ा था|यह प्रसंग उस समय का है|रावण से निराश होकर विभीषण ने एक मात्र भगवान श्री राम का सहारा लिया था|और भगवान श्री राम ने उसे निराश नहीं किया|उस समय विभीषण ने भगवान श्री राम के प्रति अनन्य भक्ति प्रदर्शित की थी|उसी कारण से विभीषण कों परमात्मा उपलब्ध हुये|
सतो गुण से युक्त पुरुष कुछ काल के लिए ब्रह्म या देव लोक में रहने के बाद वापिस मानव योनि में जन्म लेते हैं|जिसका वर्णन पहले किया जा चूका है|रजो गुण से युक्त पुरुष का पुनर्जन्म तत्काल ही मानव योनि में ही हो जाता है|क्योंकि इस गुण से युक्त पुरुष का देह ,परिवार,समाज ,ऐश्वर्य आदि के प्रति मोह इतना अधिक होता है कि अपने आखिरी समय में भी वह इन्हीं का चिंतन करता रहता है|भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि इस भौतिक देह कों त्यागते समय जो जो ,जिस जिस का स्मरण करता है वह वह उसी भाव कों प्राप्त होता है|(गीता ८/६ )|अतः यह स्पष्ट है कि राजसिक गुणों से युक्त पुरुष बार बार मानव के रूपमे ही इस धरा पर जन्म पाते रहते हैं और इस पुनर्जन्म के चक्र से निकल ही नहीं पाते हैं|
गीता में सात्विक कर्म के लक्षण भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार कहे हैं-
नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम् |
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्विक मुच्यते || गीता १८/२३ ||
अर्थात्,जो कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो-वह सात्विक कर्म कहा जाता हैं|
सात्विक कर्म बिना फल की ईच्छा के किये जाते हैं जिससे कर्मबंधन नहीं हो पाता है|अतः कर्मफल के रूप में किसी भी योनि का मिलना संभव नहीं होता है|सात्विक कर्म में कर्म फल का त्याग किया जाता है|यह सब सात्विक ज्ञान के कारण ही संभव हो पाता है| इस कर्म से युक्त पुरुष उच्च लोक में जाकर कुछ समय तक रहते हैं|जब इन सात्विक कर्मों के अनुसारफल प्राप्त करने के उपरांत अवधि पूरी हो जाती है तब इस भूलोक में मानव योनि में उनका पुनर्जन्म होता है|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेति तत्वतः || गीता ७/३ ||
अर्थात्, हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से यानि यथार्थ रूप से जानता है|
पहली बात तो यह है कि ज्यादातर लोग तो परमात्मा कों प्राप्त करने का प्रयास ही नहीं करते हैं|कोई हजारों लोगों में से कोई मात्र एक व्यक्ति ही इसके लिए प्रयत्न करता है|और ऐसे हजारों प्रयत्न करने वालों में भी कोई एक परमात्मा के प्रति समर्पित होकर उसे तत्व से अर्थात् उसके वास्तविक स्वरुप कों जान पाता है|ऐसा व्यक्ति जिसे भी योगी कहा जा सकता है ,वह योगी शरीर त्यागने के पश्चात परमात्मा कों ही प्राप्त होता है और जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है|इस बात कों और अधिक स्पष्ट करते हुये भगवान कहते हैं-
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना |
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् || गीता ८/८ ||
अर्थात्,हे पार्थ!यह नियम है कि परमात्मा के प्रति ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त,दूसरी और न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम दिव्य पुरुष अर्थात परमपिता परमेश्वर कों प्राप्त होता है|
इससे यह स्पष्ट होता है कि परमात्मा को अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है|मन कों केवल मात्र परमात्मा के प्रति समर्पित करते हुये एक मात्र उनका चिंतन करते रहने से ही उसकी प्राप्ति सुलभ हो जाती है |इसके लिए एक मात्र परमात्मा के प्रति ध्यान का अभ्यास करते रहना होगा |बिना अभ्यासयोग के ध्यान असंभव होता है|बिना ध्यान के मन पर नियंत्रण रखना असंभव होता है,जिससे परमात्मा की प्राप्ति भी दुर्लभ हो जाती है|रामचरितमानस में गोस्वामीजी कहते हैं कि-
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं |जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ||सुन्दरकाण्ड ४४/२ ||
भगवान कहते हैं कि जीव ज्योंही मेरे सम्मुख होता है,त्योंही उसके करोडों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं|जब विभीषण कों रावण ने लंका से निकाल दिया था,तब वह भगवान की शरण में आने कों वहां से निकल पड़ा था|यह प्रसंग उस समय का है|रावण से निराश होकर विभीषण ने एक मात्र भगवान श्री राम का सहारा लिया था|और भगवान श्री राम ने उसे निराश नहीं किया|उस समय विभीषण ने भगवान श्री राम के प्रति अनन्य भक्ति प्रदर्शित की थी|उसी कारण से विभीषण कों परमात्मा उपलब्ध हुये|
सतो गुण से युक्त पुरुष कुछ काल के लिए ब्रह्म या देव लोक में रहने के बाद वापिस मानव योनि में जन्म लेते हैं|जिसका वर्णन पहले किया जा चूका है|रजो गुण से युक्त पुरुष का पुनर्जन्म तत्काल ही मानव योनि में ही हो जाता है|क्योंकि इस गुण से युक्त पुरुष का देह ,परिवार,समाज ,ऐश्वर्य आदि के प्रति मोह इतना अधिक होता है कि अपने आखिरी समय में भी वह इन्हीं का चिंतन करता रहता है|भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि इस भौतिक देह कों त्यागते समय जो जो ,जिस जिस का स्मरण करता है वह वह उसी भाव कों प्राप्त होता है|(गीता ८/६ )|अतः यह स्पष्ट है कि राजसिक गुणों से युक्त पुरुष बार बार मानव के रूपमे ही इस धरा पर जन्म पाते रहते हैं और इस पुनर्जन्म के चक्र से निकल ही नहीं पाते हैं|
गीता में सात्विक कर्म के लक्षण भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार कहे हैं-
नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम् |
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्विक मुच्यते || गीता १८/२३ ||
अर्थात्,जो कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो-वह सात्विक कर्म कहा जाता हैं|
सात्विक कर्म बिना फल की ईच्छा के किये जाते हैं जिससे कर्मबंधन नहीं हो पाता है|अतः कर्मफल के रूप में किसी भी योनि का मिलना संभव नहीं होता है|सात्विक कर्म में कर्म फल का त्याग किया जाता है|यह सब सात्विक ज्ञान के कारण ही संभव हो पाता है| इस कर्म से युक्त पुरुष उच्च लोक में जाकर कुछ समय तक रहते हैं|जब इन सात्विक कर्मों के अनुसारफल प्राप्त करने के उपरांत अवधि पूरी हो जाती है तब इस भूलोक में मानव योनि में उनका पुनर्जन्म होता है|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
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