Thursday, September 5, 2013

पुनर्जन्म-कैसे?-प्रक्रिया-५|

क्रमश:
                                आत्मा चित्त के साथ संयुक्त रूप से जब शरीर से बाहर आ जाती है तो वह काफी प्रयास करती है कि उसी शरीर में वापिस जाये|यह चित्त ही उसे उस शरीर के आस पास बने रहने को विवश करता है|अन्यथा अकेली आत्मा तो अपने मूल स्रोत परा चुम्बकीय क्षेत्र यानि परमब्रह्म परमात्मा से ही योग करने को उत्सुक रहती है|परन्तु चित्त उसे ऐसा करने से रोक देता है|अब प्रश्न यह पैदा होता है कि फिर आत्मा अपना वह शरीर छोडती ही क्यों है?जब शरीर की विद्युत उर्जा का प्रभाव कम होने लगता है तब मन को आभास होता है कि जो कामनाएं अभी अधूरी है वे अब इस जर्जर शरीर से पूरी होना असंभव है|आत्मा का शरीर के साथ संयोजन इसी मन के कारण होता है|तब ऐसी स्थिति में मन तुरंत ही समस्त कामनाओं को आत्मा से लगते अपने ही हिस्से चित्त में स्थानांतरित कर देता है|चित्त में इस परिवर्तन के आते ही चित्त और मन के संयुक्त सिरे एक ही चुम्बकीय ध्रुवों की तरह व्यवहार करने लगते हैं जिससे उनमे प्रतिकर्षण पैदा होता है और चित्त आत्मा को साथ लेकर शरीर से अलग हो जाता है|क्योंकि आत्मा निर्विकार है और चित्त या मन विकार सहित है ऐसी स्थिति में इस शारीरिक मृत्यु का कारण चित्त या मन को ही माना जाता है|
                                            लेकिन किसी कारण से अगर शरीर की विद्युत उर्जा का प्रभाव वापिस लौटने लगता है तो उसका चुम्बकीय क्षेत्र पुनः प्रभावी होने लगता है|ऐसी स्थिति में चित्त अपने में अंकित आधी अधूरी कामनाओं को पूरी करने के प्रयास में आत्मा को उसी शरीर में लाने का पूरा प्रयास करता है|यदा कदा जब यह प्रयास सफल भी हो जाता है और मृत शरीर एक बार फिर जीवन पा जाता है|ऐसे व्यक्तियों के जब साक्षात्कार लिए गए तो उन्होंने मृत्यु के बाद का घटनाक्रम का वर्णन  लगभग एक ही प्रकार का किया है|इससे यह प्रमाणित होता है कि मृत्यु के बाद चित्त और आत्मा एक साथ ही विचरण  करते हैं|वे तब तक उस शरीर या स्थान के आस पास विचरण करते हैं जब तक कि वे इस बात से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो जाते कि अब उस शरीर में जाना असंभव होगया है,तथा इस स्थान में केवल मंडराने से कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है|अगर अपनी आधी अधूरी कामनाओं को पूरा करना है तो कोई अन्य तरीके का उपयोग करना होगा |यही से पुनर्जन्म की अवधारणा का जन्म होता है|सनातन धर्म में यह मान्यता है कि मरने वाले का फिर से जन्म होता है,अतः चित्त और आत्मा को उस मृत शरीर से लगाव समाप्त करने के लिए शरीर को जला दिया जाता है जिसे आत्मा व चित्त को इस शरीर के प्रति आकर्षण से मुक्ति मिल सके और पुनर्जन्म का मार्ग प्रशस्त हो|जिन धर्मों में पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं है उसमे मृत शरीर को या तो सुरक्षित रखा जाता है या फिर दफ़न कर दिया जाता है अथवा कोई अन्य प्रक्रिया अंतिम संस्कार की अपनाई जाती है|
          गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                 अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् |
                                 तथापि   त्वं   महाबाहो   नैवं   शोचितुमर्हसि || गीत२/२६||
अर्थात्,किन्तु हे अर्जुन!अगर तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता है तो भी तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है|
                                  जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |
                                  तस्मादपरिहार्येSर्थे   न   त्वं  शोचितुमर्हसि ||गीत२/२७||
अर्थात्,क्योंकि जन्मे हुये की मृत्यु निश्चित है और मरे हुये का जन्म निश्चित है|इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में भी तू शोक करने के योग्य नहीं है|
                             भगवान ने स्पष्ट कर दिया है की आत्मा अविनाशी है ,फिर भी कोई इसको जन्मने और मरने वाला मानता है  ;तो यह माना जाना चाहिए कि जन्मने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म भी इसी प्रकार निश्चित है|आत्मा अविनाशी है |परन्तु चित्त के साथ संयुक्त हो जाने के कारण वह चित्त के साथ ही रहने को बाध्य है|चित्त यानि मन अपने में अंकित कामनाओं को पूरा करने के लिए अगर नए शरीर को प्राप्त करने की जरूरत समझता है ,तो उसे पुनर्जन्म के लिए जाना ही होगा|
                                        अतः यह स्पष्ट है कि मृत्य,पुनर्जीवन और पुनर्जन्म का कारण न तो शरीर है और न ही आत्मा|इनका एक मात्र कारण मन या चित्त है जिसमे व्यक्ति की इच्छाएं,कामनाये और कर्म अंकित रहते हैं|वे ही अब आगे पुनर्जन्म का कारण बनेंगे ||
क्रमश:
                    || हरि शरणम् ||
                                            

No comments:

Post a Comment