आज एक कहानी मुझे याद आ रही है |बात बहुत वर्षों पहले की है | एक भारतीय गांव की कहानी है यह |उस गांव की आबादी कोई अधिक नहीं थी |गांव के लोग बाकी दुनियां से कटे हुए थे क्योंकि यह गावं चारों और से ऊँचे ऊँचे पहाड़ों से घिरा हुआ था |गांव वाले अपनी जरुरत की चीजे वहीँ पैदा कर लेते और उनका उपयोग करते |कोई भी व्यक्ति पहाड के पार क्या है ,यह जानने की कोशिश ही नहीं करता |गांव में पीढ़ी दर पीढ़ी यही बात प्रचारित की जाती रही कि पहाड़ों के पार ऐसे लोग रहते है जो इस गांव के किसी भी व्यक्ति को देखते ही मार डालते हैं |इसी डर के कारण कोई भी व्यक्ति पहाड़ों के पार झांकने की कोशिश भी नहीं करता |
एक बार एक युवक के मन में जिज्ञासा पैदा हुई की एक दिन पहाड़ों के पार जाकर देखा जाये की आखिर वहाँ हो क्या रहा है?उसने अपने कई साथियों को चलने के लिए कहा,परन्तु डर के मारे कोई तैयार नहीं हुआ |आखिर वो अकेला ही चल पड़ा |पहाड़ों के पार उसने देखा कि उस जैसे ही लोग वहाँ रहते हैं |वे लोग बड़े ही आनंद से रहते हैं |किसी को भी किसी बात का भय नहीं है |वहाँ उसको देखते ही सब लोगों ने उसका स्वागत सत्कार किया |वह यह देखकर बड़ा ही खुश हुआ |उसने सोचा ,गांव चलकर सबको यह बताना चाहिए कि हम लोग कितने बड़े भ्रम में जी रहे हैं ?
वह जल्दी जल्दी पहाड से उतरकर गांव में पहुंचा |वहाँ उसने सबको पहाड के पार स्थित गांव के लोगों के बारे में सबको बताया |सब आश्चर्य से उसका मुंह ताक रहे थे |किसी को भी उसकी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था |आखिर उसने कहा कि अगर आपको पहाड के पार का सत्य जानना है तो पहाड पर चढ कर उस पार जाना ही होगा |यहाँ बैठे बैठे वहां के बारे में जानना संभव नहीं है |
आज मैं उस युवक की बात का समर्थन करता हूँ |वह सही कह रहा था |पहाड पर चढ़े बगैर पहाड के पार का सत्य जानना असंभव है |अगर उस पार की दुनियां को जानना और समझना है तो पहाड पर चढना ही होगा|इतनी मेहनत तो कम से कम करनी ही होगी,अन्यथा सब गांव वाले पहाड के पार की दुनिया को वही समझते रहेंगे,जैसा उसे सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी बताया जा रहा है | सत्य कभी भी विरासत में नहीं मिलता है, उसे तो स्वयं को ही खोजना पड़ता है |विरासत में तो असत्य ही मिलता है,क्योंकि असत्य को कभी भी खोजने की जरुरत ही नहीं होती है |मेहनत तो सत्य को पाने के लिए करनी पड़ती है |इसी प्रकार पुनर्जन्म के लिए कोई मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है ,क्योंकि जिस संसार में पुनर्जन्म होना है वह तो स्वयं असत् है |मेहनत तो सत् को पाने के लिए करनी पड़ती है |और उस सत् को खोजने या जानने के लिए व्यक्ति को पहाड पर चढ कर उस पार जाना ही होगा |पुनर्जन्म असत् को पाना है और असत् से मुक्त हो जाना ही सत् को पाना है |जैसे अंधकार से मुक्त होकर ही प्रकाश को पाया जा सकता है |प्रकाश को कहीं खोजने नहीं जाना होता है |अंधकार मिटा दो,प्रकाश अपने आप प्रकट हो जायेगा |उसके लिए अलग से कोई कोशिश नहीं करनी होती है |
पुनर्जन्म संसार की और लौटने का नाम है |यानि असत् की और जाना है |अब व्यक्ति इस और जाये या ना जाये यह उसे स्वयं तय करना होगा |और इसकी तैयारी मानव जन्म में ही करनी होगी |असत् से मुक्त होने की तैयारी |इसीलिए भारतीय दर्शन में त्याग को ही ,कुछ प्राप्त करने का माध्यम बताया गया है |बिना त्याग के ,प्राप्ति असंभव है |संसार से मुक्त हो जाना ही परमात्मा की प्राप्ति है |
पुनर्जन्म का आधार क्या होता है ,इसके बारे में हम चर्चा कर चुके हैं |अब हम साधारण रूप से यह जानने की कोशिश करेंगें कि पुनर्जन्म से बचने का क्या कोई उपाय हो सकता है ?यानि पुनर्जन्म से मुक्ति मिलना|सबसे पहले यह जाने की हम पुनर्जन्म चाहते हैं या नहीं ?आम व्यक्ति जो भी कर्म करता है,उससे अपनी जिंदगी में संतुष्ट नज़र आता है ,परन्तु वास्तव में क्या वह संतुष्ट होता भी है ?अगर गहराई और गंभीरता के साथ सोचें तो जवाब नहीं में ही मिलेगा | वह संतुष्ट किस परिस्थिति मे होगा ?मेरे विचार में इस भूलोक में कोई भी परिस्थिति,किसी भी व्यक्ति को पूर्णतया संतुष्ट कर ही नहीं सकती |इसका मुख्य कारण यह है की मनुष्य शांति और संतुष्टि केवल भौतिक पदार्थों में खोज रहा है |हम सब जानते हैं की भौतिक पदार्थ अनित्य है ,असत् हैं यानि कभी भी और कहीं भी इनका व्यवहार समान हो ही नहीं सकता |भौतिकता सदैव परिवर्तनशील है |जो स्वयं पल पल बदल रहा हो वह आपको स्थाई शांति और संतुष्टि कैसे दे सकता है ?अगर आपको स्थाई शांति और संतोष चाहिए तो असत् और अनित्य से मुक्ति पायें-परमात्मा तो आपका द्वार खोले इंतज़ार कर रहे हैं |देरी केवल आपकी तरफ से है,सत् यानि परमात्मा तो आपका सदियों से इंतज़ार कर रहे हैं और करते रहेंगे क्योंकि आखिर आप उसी के ही तो अंश हैं |
गीता में भगवन श्री कृष्ण कहते हैं-
यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा |
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंSशसम्भवम् || गीता १०/४१ ||
अर्थात्, जो जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त ,कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है,उस उसको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान |
कृष्ण यहाँ कहना चाहते हैं कि यहाँ जो भी कुछ दिखाई दे रहा है,सब मेरे ही अंश है | सबका मूल मैं ही हूँ |फिर सब को मेरे में ही विलीन होना है |ऐसे में मुझ में ही सबको और सब में मुझको ही देख |ऐसा जो भी व्यक्ति स्वीकार कर लेता है ,वह फिर इस अनित्य और असत् मायावी संसार चक्र से बाहर निकल कर मुक्त हो जाता है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
एक बार एक युवक के मन में जिज्ञासा पैदा हुई की एक दिन पहाड़ों के पार जाकर देखा जाये की आखिर वहाँ हो क्या रहा है?उसने अपने कई साथियों को चलने के लिए कहा,परन्तु डर के मारे कोई तैयार नहीं हुआ |आखिर वो अकेला ही चल पड़ा |पहाड़ों के पार उसने देखा कि उस जैसे ही लोग वहाँ रहते हैं |वे लोग बड़े ही आनंद से रहते हैं |किसी को भी किसी बात का भय नहीं है |वहाँ उसको देखते ही सब लोगों ने उसका स्वागत सत्कार किया |वह यह देखकर बड़ा ही खुश हुआ |उसने सोचा ,गांव चलकर सबको यह बताना चाहिए कि हम लोग कितने बड़े भ्रम में जी रहे हैं ?
वह जल्दी जल्दी पहाड से उतरकर गांव में पहुंचा |वहाँ उसने सबको पहाड के पार स्थित गांव के लोगों के बारे में सबको बताया |सब आश्चर्य से उसका मुंह ताक रहे थे |किसी को भी उसकी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था |आखिर उसने कहा कि अगर आपको पहाड के पार का सत्य जानना है तो पहाड पर चढ कर उस पार जाना ही होगा |यहाँ बैठे बैठे वहां के बारे में जानना संभव नहीं है |
आज मैं उस युवक की बात का समर्थन करता हूँ |वह सही कह रहा था |पहाड पर चढ़े बगैर पहाड के पार का सत्य जानना असंभव है |अगर उस पार की दुनियां को जानना और समझना है तो पहाड पर चढना ही होगा|इतनी मेहनत तो कम से कम करनी ही होगी,अन्यथा सब गांव वाले पहाड के पार की दुनिया को वही समझते रहेंगे,जैसा उसे सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी बताया जा रहा है | सत्य कभी भी विरासत में नहीं मिलता है, उसे तो स्वयं को ही खोजना पड़ता है |विरासत में तो असत्य ही मिलता है,क्योंकि असत्य को कभी भी खोजने की जरुरत ही नहीं होती है |मेहनत तो सत्य को पाने के लिए करनी पड़ती है |इसी प्रकार पुनर्जन्म के लिए कोई मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है ,क्योंकि जिस संसार में पुनर्जन्म होना है वह तो स्वयं असत् है |मेहनत तो सत् को पाने के लिए करनी पड़ती है |और उस सत् को खोजने या जानने के लिए व्यक्ति को पहाड पर चढ कर उस पार जाना ही होगा |पुनर्जन्म असत् को पाना है और असत् से मुक्त हो जाना ही सत् को पाना है |जैसे अंधकार से मुक्त होकर ही प्रकाश को पाया जा सकता है |प्रकाश को कहीं खोजने नहीं जाना होता है |अंधकार मिटा दो,प्रकाश अपने आप प्रकट हो जायेगा |उसके लिए अलग से कोई कोशिश नहीं करनी होती है |
पुनर्जन्म संसार की और लौटने का नाम है |यानि असत् की और जाना है |अब व्यक्ति इस और जाये या ना जाये यह उसे स्वयं तय करना होगा |और इसकी तैयारी मानव जन्म में ही करनी होगी |असत् से मुक्त होने की तैयारी |इसीलिए भारतीय दर्शन में त्याग को ही ,कुछ प्राप्त करने का माध्यम बताया गया है |बिना त्याग के ,प्राप्ति असंभव है |संसार से मुक्त हो जाना ही परमात्मा की प्राप्ति है |
पुनर्जन्म का आधार क्या होता है ,इसके बारे में हम चर्चा कर चुके हैं |अब हम साधारण रूप से यह जानने की कोशिश करेंगें कि पुनर्जन्म से बचने का क्या कोई उपाय हो सकता है ?यानि पुनर्जन्म से मुक्ति मिलना|सबसे पहले यह जाने की हम पुनर्जन्म चाहते हैं या नहीं ?आम व्यक्ति जो भी कर्म करता है,उससे अपनी जिंदगी में संतुष्ट नज़र आता है ,परन्तु वास्तव में क्या वह संतुष्ट होता भी है ?अगर गहराई और गंभीरता के साथ सोचें तो जवाब नहीं में ही मिलेगा | वह संतुष्ट किस परिस्थिति मे होगा ?मेरे विचार में इस भूलोक में कोई भी परिस्थिति,किसी भी व्यक्ति को पूर्णतया संतुष्ट कर ही नहीं सकती |इसका मुख्य कारण यह है की मनुष्य शांति और संतुष्टि केवल भौतिक पदार्थों में खोज रहा है |हम सब जानते हैं की भौतिक पदार्थ अनित्य है ,असत् हैं यानि कभी भी और कहीं भी इनका व्यवहार समान हो ही नहीं सकता |भौतिकता सदैव परिवर्तनशील है |जो स्वयं पल पल बदल रहा हो वह आपको स्थाई शांति और संतुष्टि कैसे दे सकता है ?अगर आपको स्थाई शांति और संतोष चाहिए तो असत् और अनित्य से मुक्ति पायें-परमात्मा तो आपका द्वार खोले इंतज़ार कर रहे हैं |देरी केवल आपकी तरफ से है,सत् यानि परमात्मा तो आपका सदियों से इंतज़ार कर रहे हैं और करते रहेंगे क्योंकि आखिर आप उसी के ही तो अंश हैं |
गीता में भगवन श्री कृष्ण कहते हैं-
यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा |
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंSशसम्भवम् || गीता १०/४१ ||
अर्थात्, जो जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त ,कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है,उस उसको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान |
कृष्ण यहाँ कहना चाहते हैं कि यहाँ जो भी कुछ दिखाई दे रहा है,सब मेरे ही अंश है | सबका मूल मैं ही हूँ |फिर सब को मेरे में ही विलीन होना है |ऐसे में मुझ में ही सबको और सब में मुझको ही देख |ऐसा जो भी व्यक्ति स्वीकार कर लेता है ,वह फिर इस अनित्य और असत् मायावी संसार चक्र से बाहर निकल कर मुक्त हो जाता है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
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