Wednesday, September 18, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ?-६

क्रमश:
                     तीनों गुणों के अनुसार ही व्यक्ति का स्वभाव होता है |उसे उसकी प्रकृति कहा जाता है|उन्ही गुणों के अनुसार वह व्यक्ति कर्म करता है|उसकी बुद्धि भी गुणों के अनुरूप ही होती है|सात्विक,राजसिक और तामसिक गुण प्रत्येक व्यक्ति में होते हैं |जिस गुण की बहुलता ज्यादा होती है वह व्यक्ति उसी प्रकृति का माना जाता है|सात्विक व्यक्ति में राजसिक और तामसिक गुण अल्प मात्रा में और नियंत्रण में होते है |जिसके कारण सात्विक व्यक्ति के कर्म बहुदा सात्विक ही होते हैं|परन्तु कभी कभी उससे भी राजसिक या तामसिक कर्म हो ही जाते हैं|राजसिक व्यक्ति में राजस गुण बहुतायत में होते हैं|राजसिक गुण सात्विक और तामसिक गुणों  को नियंत्रण में रखते हुए बढ़ते हैं|राजसिक व्यक्ति ज्यादातर राजसिक कर्म ही करते हैं,परन्तु कभी कभी उससे सात्विक या तामसिक कर्म भी जीवन में हो जाते हैं|इसी प्रकार तामसिक प्रकृति के व्यक्ति में तामसिक गुण ही पाए जाते हैं |तामसिक गुण सात्विक और राजसिक गुणों को नियंत्रण में रखते हुए बढ़ते है|तामसिक गुणों से युक्त व्यक्ति प्रायः तामसिक कर्म ही करते हैं|परन्तु कभी कभी इनसे भी सात्विक या राजसिक कर्म हो जाते हैं|
                              जीवन में किये गए कर्मों का लेखा जोखा चित्त में अंकित होता रहता है|जीवन में एक आम आदमी, कर्म अपनी इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति के लिए ही करता है|अतः ये अपूर्ण रही इच्छाए और कामनाएं ही पुनर्जन्म का कारण बनती है ,और इन इच्छाओं को पूरी करने के लिए किये गए कर्म उसके भावी जीवन का भविष्य निश्चित्त करते हैं|पुनर्जन्म की सीधी सादी और सरल गणित मात्र इतनी ही है|
                              कर्म चाहे किसी प्रकार के हों और व्यक्ति की प्रकृति किसी भी गुण से सम्बंधित हो,पुनर्जन्म तो अवश्यम्भावी है|हाँ,किस योनि में होना है और भविष्य कैसा होगा ,यह सब कर्म के गुणों के उपजे फल पर निर्भर करता है|परन्तु मानव जन्म का एक मात्र उद्देश्य केवल मात्र यह तो नहीं हो सकता कि सात्विक कर्म करते हुए उच्च लोकों में आनंद प्राप्त कर पुनः इस दु:खालय यानि इस दु:खों से परिपूर्ण भौतिक संसार में अवतरित होना पड़े और जन्म मरण के चक्र से छुटकारा न मिल सके |ऐसी स्थिति में फिर व्यक्ति का क्या उद्देश्य होना चाहिए?यही विचारणीय विषय होना चाहिए |
                             जब सभी कर्मों के करने से पुनर्जन्म ही होता है तो फिर इन गुणों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ना होगा,जिससे इन पुनर्जन्मों से मुक्ति मिल सके|इस अवस्था को गुणातीत होना कहते हैं |भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-
                             गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् |
                             जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोSमृतमश्नुते || गीता १४/२०||
अर्थात्,पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप इन तीनों गुणों का उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु,वृद्धावस्था और सब प्रकार के दु:खों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है|तीनों गुणों की उत्पत्ति का कारण पहले वर्णित स्थूल प्रकृति के २३ तत्व हैं|ये हैं-पञ्च भूत(भूमि,जल,अग्नि,आकाश और वायु),पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ,पांच ही इनके विषय,पांच कर्मेंदियाँ,मन, बुद्धि और अहंकार|
                   यहाँ भगवान श्री कृष्ण यह कहते हैं कि सात्विक,राजसिक और तामसिक गुणों का उल्लंघन करके ही परमात्मा को पाया जा सकता है,क्योंकि सभी गुण स्थूल शरीर की उत्पति से ही अस्तित्व में आयें है,जिसके कारण इन गुणों का संग ही पुनर्जन्म का एक मात्र कारण है|अतः अगर पुनर्जन्म से मुक्त होना है,तो इन गुणों से भी मुक्त होना होगा अर्थात् व्यक्ति को इन गुणों से ऊपर उठकर गुणातीत होना होगा,जो कि परमात्मा स्वयं की प्रकृति है|परमात्मा प्रत्येक भौतिक शरीर में अपने ही अंश आत्मा के रूप में अवस्थित रहता है|अतः आत्मा भी गुणातीत ही होती है|लेकिन शरीर में रहते हुए वह उपरोक्त २३ स्थूल प्रकृति के तत्वों के गुणों का संग कर लेती है |इन गुणों के संग के कारण ही मन में कई इच्छाएं और कामनाएं पैदा होती है |इन इच्छाओं और कामनाओं को पूरा करने के लिए तीन गुणों से युक्त कर्म शरीर करता है,और वही कर्म , पुनर्जन्म निर्धारित करता है |अतः यदि इस संसार में पुनः नहीं लौटना है तो इस त्रिगुणी व्यवस्था से भी व्यक्ति को ऊपर उठना होगा |तभी इस दु:खालय में न लौटकर परमात्मा का सानिध्य प्राप्त किया जा सकता है |
क्रमश:
                        || हरि: शरणम् ||     

No comments:

Post a Comment