Sunday, September 22, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ ?-९

क्रमश:
              इस संसार में त्रिगुणी व्यवस्था है |जिस प्रकार किसी भी वस्तु को स्वयं ही अपने बलबूते पर स्थिर रहना हो तो कम से कम तीन आधार जरुरी होते हैं,अन्यथा वह गिर जाती है|इसी प्रकार मनुष्य को भी इस संसार में बने रहने के लिए तीनों गुणों की आवश्यकता होती है |अतः  मनुष्य में भी सभी तीनों गुण स्थित होते हैं और वह सभी गुणों से युक्त कर्म ही करता है |केवल उन गुणों की अधिकता या न्यूनता ही उस व्यक्ति का स्वभाव निश्चित करती है |   समस्या गुणों की नहीं है,वास्तविक समस्या तो मन और उसमे कभी भी पूर्ण न होने वाली अनेक इच्छाएं व कामनाएं हैं,जिसके कारण वह व्यक्ति कर्म करने को वशीभूत होता है | इसलिए जो व्यक्ति मन को नियंत्रित नहीं कर पाता वह इन इच्छाओं और कामनाओं के दुष्चक्र से मुक्त नहीं हो पाता है |जिसने अपने मन पर नियंत्रण पा लिया है,वह शीघ्र ही इस जन्म-मरण के चक्र से भी बाहर निकल जायेगा |गीता में भगवन श्री कृष्ण कहते हैं-
                             यस्त्विन्द्रियाणि  मनसा नियम्यारभतेSर्जुन |
                             कर्मेंन्द्रियै:   कर्मयोगमसक्तः   स   विशिष्यते || गीता ३/७ ||
अर्थात्,हे अर्जुन!जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्म योग का आचरण करता है ,वही श्रेष्ठ है |
                          यहाँ भगवान अर्जुन को यही समझा रहे हैं कि कर्म करने से कोई भी,कहीं भी और कभी भी अपने आप को रोक नहीं सकता |अतः जब आप अपने अनुरूप कुछ कर ही नहीं सकते तो कर्म करने से अपने आप को अलग करने का विफल प्रयास भी क्यों करते हो ? इसका समाधान भी श्री कृष्ण ही सुझाते हैं,और कहते हैं कि आपके बस में कर्म को करने से रोकना नहीं है बल्कि आपके बस में इन्द्रियों को नियंत्रण में रख पाना अवश्य है |अतः इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए अपनी कामनाओं और इच्छाओं को नियंत्रण में रखें और कर्म करते रहें |ऐसे किये गए कर्म आपको विचलित नहीं होने देंगे |
                   पुनर्जन्म के बारे में जो भी अब तक विश्लेषण किया गया है,यह आम व्यक्ति को समझ में आसानी से आ जाये ,इस तरीके से किया गया है |यह एक बड़ा ही गूढ़ विषय है ,जिस पर चाहे जितना लिखा जा सकता है,परन्तु प्रश्न यही पैदा होता है कि लिखने का उद्देश्य क्या होना चाहिए ?मेरा उद्देश्य मात्र इतना ही है कि पुनर्जन्म के बारे में जो भी भ्रांतियां आम व्यक्ति के मन में है ,उन्हें दूर किया जा सके |मरने के बाद क्या होना है,यह अभी भी आम व्यक्ति की समझ से परे है |यह प्रयास उसे मानव जीवन ,कर्म,मृत्यु और पुनर्जन्म और उनसे सम्बंधित ज्ञान-विज्ञानं के बारे में अगर उसकी जिज्ञासा को पूर्ण कर सके ,तो मैं अपना प्रयास सफल समझूँगा |मेरा एकमात्र यही उद्देश्य है |
                   इस प्रकार हम समझ सकते है कि--
                               १.केवल मानव योनि में किये हुए कर्मों के परिणाम ही नए जन्म व नयी योनि में ही उपलब्ध होते हैं|जो भी कर्म मनुष्य योनि के अलावा अन्य योनियों में किये जाते है,वस्तुतः वे कर्म न होकर पूर्व मनुष्य योनि में किये गए कर्मों के फल ही होते हैं|इन्हें कर्म की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है|ये कर्म मात्र पूर्व जन्म में किये गए कर्मों को समाप्त करने के लिए ही किये जाते हैं|अतः इन कर्मों का कोई कर्मफल नहीं होता है|
                               २.पुनर्जन्म मन में अधूरी रही इच्छाओं और कामनाओं का होता है,न कि आत्मा का| क्योंकि आत्मा न तो कभी जन्म लेती है और न ही कभी मारी जाती है|
                                ३.मनुष्य योनि में कामनाओं की पूर्ति के लिए किये गए कर्मों का परिणाम भावी जन्म में  ही मिलता है|यह कब ,कहाँ और किस योनि में मिलना है,यह सब आत्मा ही तय करती है|आत्मा ही परमात्मा की एकमात्र प्रतिनिधि है|अतः साधारण जन इसे परमात्मा का कार्य ही समझते हैं |
                               ४.परमात्मा ने पूरे विश्व को कर्म-प्रधान कर रखा है|जो भी यहाँ जैसे भी होना है ,वह सब व्यक्ति के किये गए कर्मों के अनुसार ही होना है|इसके लिए वह स्वयं ही जिम्मेवार होता है,कोई अन्य नहीं|
                                ५.त्रिगुणी कर्म ही पुनर्जन्म का कारण है |अगर पुनर्जन्म नहीं चाहते ,तो गुणातीत होना होगा |सभी गुणों से ऊपर उठना होगा |इसी अवस्था को मोक्ष और परमात्मा की प्राप्ति होना कहते हैं |
                                ६.पुनर्जन्म हेतु शरीर का चयन आत्मा ही करती है,लेकिन उस शरीर में उसका प्रवेश जन्म लेने की प्रकिया के दौरान या जन्म के बाद ही होता है,पहले नहीं |
                                ७.मानव जीवन के दौरान ही व्यक्ति कर्म करके अपना भावी जन्म या मोक्ष ,दोनों में से कोई भी एक प्राप्त कर सकता है|यह अधिकार उसको केवल मात्र मनुष्य योनि में ही उपलब्ध है,अन्य योनियों में नहीं| इसी कारण से मनुष्य योनि को भोग योनि के साथ साथ योग योनि भी कहा गया है| अन्य सभी योनियाँ मात्र भोग योनियाँ ही हैं |

                     || हरिः शरणम् || 

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