Friday, September 6, 2013

पुनर्जन्म-कैसे?-प्रक्रिया-६|

क्रमश:
              आत्मा चित्त के साथ कितने समय तक पूर्व स्थान पर विचरण करती है,यह स्पष्ट नहीं है|परन्तु सनातन धर्म में यह समय कुछ क्षणों से लेकर दस दिनों तक का माना जाता है|इसके बाद आत्मा  आकाश मे विचरण करते हुये नए शरीर की तलाश करती रहती है|सब कर्मों और आधी अधूरी इच्छाओं के अनुसार हर प्रकार से निरीक्षण करते हुये  चित्त एवं आत्मा को नए शरीर की तलाश कब पूरी होगी कहा नहीं जा सकता|जब हम कहते हैं कि सब कुछ कर्मानुसार ही घटित होता है ,इसका अर्थ यह है कि  परमात्मा ने अपने पास कुछ भी नहीं रखा है|आत्मा को उसने अपनी तरह ही पूर्ण स्वतंत्रता दी है|लेकिन आत्मा के साथ जो भी व्यवहार होता है ,वह सब कर्मों के फलस्वरूप ही होता है|उसमे परमात्मा का कुछ भी लेना देना नहीं है|रामचरितमानस में स्वामी तुलसीदास जी ने अयोध्याकाण्ड में लिखा भी है-"कर्म प्रधान बिस्व करि राखा |"इसका अर्थ भी यही है कि इस संसार में जो भी घटित हो रहा है,सब कर्मों के फलस्वरूप ही हो रहा है|परमात्मा तो सम है,कहीं भी किसी के साथ भेदभाव नहीं करता है|प्रत्येक का भविष्य उसके कर्म ही निर्धारित करते हैं|
                              परमात्मा ने जब सृष्टि की रचना की,तब उसने केवल मनुष्य को ही कर्म करते हुये फल पाने का अधिकार दिया ,अन्य प्राणियों को नहीं|अन्य प्राणी केवल मनुष्य जन्म में किये गए कर्मों का फल ही भोगते हैं|जैसा कि पहले भी विवरण आया है कि किये गए कर्म मन में अंकित होते रहते हैं और मृत्यु से पूर्व सभी कर्म चित्त में,जो कि आत्मा से संयुक्त मन का ही हिस्सा है, स्थानांतरित हो जाते हैं|जब आत्मा व चित्त नए शरीर की तलाश में रहते हैं तो कर्मों के फलानुसार शरीर का चयन कर लेते हैं|जब गर्भावस्था में शिशु का विकास हो रहा होता है,उसी दौरान चित्त द्वारा उसका निरीक्षण बार बार किया जाता रहता है |लेकिन आत्मा का प्रवेश उसमे जन्म लेने के समय ही  होगा,पहले नहीं|
                              जब शिशु गर्भ में होता है तब उसमे सभी अंगों के विकास के साथ साथ ही मन,बुद्धि और अहंकार का विकास भी होता है|मन इस वक़्त तक केवल एक साफ सी.डी. यानि ब्लैंक सी. डी . की तरह होता है|शिशु के शरीर का भी अपना एक जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र होता है|जन्म के समय आत्मा का एक चुम्बकीय ध्रुव आकर शिशु के विपरीत चुम्बकीय ध्रुव के साथ संयुक्त हो जाता है|इसी समय शिशु का जन्म हो जाता है|इसी को अचेतन का चेतन होना कह सकते हैं |आत्मा जो कि शरीर की मृत्यु के बाद व्यक्त से अव्यक्त हो गयी थी,शिशु के जन्म के साथ ही पुनः व्यक्त हो जाती है|यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक व्यक्ति अपने मनुष्य जीवन में किये हुये सभी कर्मों के फल प्राप्त नहीं कर लेता है| तब तक उसे बार बार पुनर्जन्म में जाना ही होगा|
                       जब इस संसार में व्यक्ति आता है तो सभी पक्ष और विपक्ष दोनों का सामना करना ही होगा|संसार ,परमात्मा की तरह कोई सम तो है नहीं कि केवल आनंद की अनुभूति ही हो|संसार तो विषमता का नाम है|आज अगर सुख है तो कल दुःख जरूर होगा|आज शांति है तो कल अशांति जरूर होगी|याद रखे-सुख और शांति का समय तेजी से गुजर जाता है परन्तु दुःख और अशांति के दौरान समय भी धीरे धीरे गुजरता है|भारतीय दार्शनिकों ने इस भौतिक संसार को दुखालय इसी कारण से कहा है|पुनर्जन्मों का कभी भी अन्त नहीं होगा,जब तक व्यक्ति को यह समझ में ना आये कि यहाँ आने का उसका मकसद क्या है?इस संसार में आकर मनुष्य जीवन में केवल भोगों का आनंद ही लेना है तो फिर अन्य प्राणियों और मनुष्य में अंतर ही क्या रह जायेगा?यह सोच अगर जीवन में बन जाती है तो फिर कर्मों का प्रकार भी बदल जाता है और पदार्थों के गुण,इन्द्रियों के विषय,अहंकार का परिमार्जन और मन की चंचलता सब में परिवर्तन आने लगता है|
क्रमश:
                   || हरि शरणम् ||

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