Friday, September 20, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ?-७

क्रमश:
                पुनर्जन्म से मुक्ति के लिए मनुष्य को गुणातीत होना आवश्यक है |गीता में भगवान श्री कृष्ण, गुणातीत के लक्षण(Properties of Gunateet) बताते हुए कहते हैं-
                             प्रकाशं  च  प्रवृत्तिं  च मोहमेव  च  पाण्डव |
                             न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानी न निवृत्तानि कांक्षति || गीता १४/२२ ||
                             उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते |
                             गुणा वर्तन्त इत्येव योSवतिष्ठति नेन्गते || गीता १४/२३ ||
                             समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकांचन:|
                             तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्य निंदात्मसंस्तुतिः|| गीता १४/२४ ||
                             मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपकक्षयो:|
                             सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतःस उच्च्यते  || गीता १४/२५ ||
             अर्थात्,हे अर्जुन!जो पुरुष सत्वगुण के कार्य रूप प्रकाश को , रजोगुण के कार्यरूप प्रवृति को और तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत होने पर द्वेष करता है और न ही निवृत होने पर उनकी आकांक्षा करता है | जो साक्षी की तरह स्थित हुआ, गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते हैं ऐसा समझता हुआ परमात्मा में एकाकी भाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता है |जो निरंतर आत्म भाव में स्थित दुःख-सुख को समान समझने वाला , मिट्टी,पत्थर,और स्वर्ण में समान भाव वाला ,ज्ञानी,प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निंदा-स्तुति में भी समान भाव वाला है |जो मान और अपमान में सम है ,मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है. वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है |    
             गुणातीत व्यक्ति किसी भी स्थिति में अपना पतन नहीं होने देता है |वह सम(Balanced) की स्थिति में रहना जानता है |उसे दुःख-सुख,मन-अपमान,मिट्टी-सोना,ज्ञानी-अज्ञानी,मित्र-शत्रु और निंदा-प्रशंसा जरा भी प्रभावित नहीं कर पाती है |किसी भी कार्य को प्रारंभ करते समय और कार्य के समापन तक उसमे कर्ताभाव (Doer)देखने को नहीं मिलता |यही लक्षण उसे गुणयुक्त पुरुष से अलग करते हैं |गुणातीत पुरुष की भूमिका इस संसार में मात्र एक साक्षी(Observer) की रहती है |वह सब कुछ परमात्मा को ही समझता है और एकाकी भाव से परमात्मा में ही स्थित रहता है |  वह इस संसार में रहते हुए भी संसार को अपने भीतर प्रवेश नहीं करने देता |इसी अवस्था को जीवित रहते हुए भी मुक्त होना कहते हैं | इसी को परमात्म तत्व को पा लेना कहते हैं |              
            आगे गीता में भगवन श्री कृष्ण कहते हैं -
                          माँ च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
                          स गुणान्समती त्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते || गीता १४/२६ ||
अर्थात्,जो पुरुष अव्यभिचारिणी भक्तियोग द्वारा मुझको निरंतर भजता है वह इन तीनों गुणों को भली भांति लाँघ कर सच्चिदानंदघन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिए योग्य बन जाता है |अव्यभिचारिणी भक्ति का अर्थ है कि केवल परमात्मा को ही सब कुछ मान लेना |    
                  रामचरितमानस में गोस्वामीजी लिखते हैं-
                                निर्मल मन जन सो मोहि पावा |मोहि कपट छल छिद्र न भावा ||(सुन्दरकांड४४/५)
                  इसी बात को संत कबीर इस तरीके से कहते हैं-
                               मन ऐसा निर्मल भया,जैसे गंगा नीर |
                                पाछे पाछे हरि फिरे,कहत कबीर कबीर ||
                  गुणातीत के लक्षणों को गोस्वामीजी ने बहुत ही स्पष्ट व अल्प शब्दों में कह दिया है|भगवान कहते हैं कि जिसका मन साफ होगा ,वही मुझको प्राप्त कर सकता है |मन के साफ व स्वच्छ होने का अर्थ वही है जो गीता में गुणातीत के लज्शन बताये गए हैं |इसी प्रकार कबीर भी इसी बात को दोहराते हैं |वे कहते हैं कि जब आप अपना मन निर्मल यानि साफ कर लेते हैं तब परमात्मा ही आपको ढूंढ लेते हैं |
                   निर्मल मन का अर्थ यह हुआ की मन में कोई भी ऐसे कर्म अंकित हुए ही नहीं जिनका कर्मफल अगले जन्म में मिलने की कोई सम्भावना नहीं होती है | इस कारन से देह त्यागने के बाद केवल आत्मा का ही चुम्बकीय क्षेत्र रहता है |चित्त में कर्म अंकित रहते नहीं है,फिर उनकी चुम्बकीय तरंगे आत्मा को निर्मित ही नहीं करनी होती |  ऐसी स्थिति में आत्मा अपने मूल स्वरुप परम ब्रह्म परमात्मा की तरफ आकर्षित हो उसमे विलीन हो जाती है,जैसे नदी अपने ही मूल श्रोत सागर में जाकर विलीन हो जाती है |          

क्रमश:
                           || हरिः शरणम् || 

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