Sunday, September 8, 2013

पुनर्जन्म-कैसे?-प्रक्रिया-७ |

क्रमश:
         कबीरदास जी कहते हैं-
                         मन मरा ना ममता मरी,मर मर गए शरीर |
                         आशा तृष्णा ना मरी,कह गया दास कबीर  ||
   कबीर कहते हैं की मन,ममता ,आशा और तृष्णा कभी भी मरते नहीं है,केवल शरीर ही मरते हैं| ये चारों तो नए नए शरीर में प्रवेश कर संसार में आते रहते है|अगर इस संसार में वापिस नहीं आना है तो फिर इन चारों को मारना ही होगा|
                  मन या चित्त में अंकित किए गए कर्मों का फल व्यक्ति को हर हाल में मिल कर ही रहता है|कर्मफल काल के अधीन है|यह समय ही निश्चित करता है कि कौन से कर्म का फल उस व्यक्ति को कब भोगना है?कर्म का फल कभी भी नष्ट नहीं होता है|ये सभी कर्म सदैव चित्त से चिपके रहते हैं और अनुकूल परिस्थितियां पैदा होने पर ही फल देते हैं अन्यथा जन्म-जन्मान्तरों तक चित्त के साथ चिपके हुये चलते रहते हैं|वेदों में कहा गया है कि कर्म समाप्त करने के मात्र तीन तरीके हैं-
      (१)भोग कर----जब कर्मों के फल के लिए उचित समय आता है तब उनका फल व्यक्ति अगर भोग लेता है तो काम चित्त का साथ छोड़ देते है क्योंकि उस कर्म का फल सम्बन्धित व्यक्ति भोग चूका होता है|
      (२)प्रायश्चित कर----अगर भूलवश आपसे शास्त्र विरुद्ध कोई कर्म हो जाता है तो उसके प्रायश्चित से कर्मफल के प्रभावऔर उसकी तीव्रता को कम किया जा सकता है|राजा दिलीप के पैर की ठोकर भूलवश कामधेनु को लग गयी,जिससे क्रुद्ध होकर कामधेनु ने उन्हें निःसंतानता का श्राप दे दिया|राजा दिलीप ने प्रायश्चित स्वरुप कामधेनु की पुत्री नंदिनी को घर लाकर उसकी पूरे मन से सेवा की और श्राप से मुक्ति पाई| केवल एक कर्म से मुक्ति के लिए ही बरसों तक की प्रायश्चित साधना की जरुरत होती है|अगर कोई यह समझता है कि थोड़े से समय के प्रायश्चित से कर्मों से मुक्ति मिल सकती है तो यह गलत होगा|
      (३)ज्ञान प्राप्त कर------जब व्यक्ति को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि उसने यह कर्म गलत किया है या भूलवश हो गया है,तो इस बात की स्वीकारोक्ति ही कर्मफल के प्रभाव को समाप्त करने के लिए प्रयाप्त है|परन्तु यह स्वीकारोक्ति हृदय से होनी चाहिए,मात्र शब्दों से नहीं|ज्ञान ही एक मात्र ऐसी विधि है जिससे किये हुये कर्मों के फलों से आसानी से मुक्त हुआ जा सकता है||गीता में भी  भगवान श्री कृष्ण कहते भी हैं कि ज्ञान सभी कर्मफलों को नष्ट कर देता है|इसी लिए कहा जाता है कि ज्ञान बिना मुक्ति संभव नहीं है|कर्मों से मुक्त हो जाना ही वास्तविक मुक्ति है|
            स्वामी तुलसीदास जी ने मानस में लिखा है-
                             जद्यपि सम नहि राग  न रोषू |  गहहि  न  पाप   पूनु    गुन दोषू ||
                             करम प्रधान बिस्व करि राखा|जो जस करहि सो तस फल चाखा||अयोध्याकाण्ड २१९ /३-४||
            अर्थात्,यद्यपि भगवान सम है,-उनमे न राग है,न रोष है|न ही वे किसी पाप-पुण्य और गुण-दोष ही ग्रहण करते हैं|उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है|जो जैसा करता है ,वह वैसा ही फल भोगता है|
                             अब प्रश्न यह उठता है कि कौन से कर्म कैसा फल देते है?फल एक ही प्रकार से किये गए कर्म के  सब को समान नहीं मिलते है|यह सब निर्भर करता है कि कर्म किस भावना से किये गए हैं|अगर आपकी भावना गलत है तो उतना ही गंभीर परिणाम मिलेगा|इसीलिए गीता में कहा गया है कि जो भी कर्म करो परमात्मा के निमित्त करो|इन्द्रियों के सुख भी अगर प्राप्त करने हैं तो उसे यह मानकर भोगें कि यह सब गुण ही गुण में कार्य कर रहे है|उन सुखों के प्रति आसक्ति का भाव न रखें|
                               ज्ञान को कर्मफल समाप्त करने का महत्वपूर्ण साधन गीता में कहा गया है-
                                               श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः        परन्तपः |
                                               सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने  गीता परिसमाप्यते ||गीता ४/३३||
अर्थात्,हे परंतप अर्जुन!द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है तथा सभी कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं|
                                                 अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः |
                                                  सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं  सन्तरिष्यसि ||गीता ४/३६||
                                         
अर्थात्, यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है ,तो भी तू इस ज्ञान रुपी नौका से निःसंदेह सम्पूर्ण पाप समुद्र से भली भांति तर जायेगा|
                                                  यथैधाँसी समिद्धोSग्नेर्भस्मसात्कुरुतेSर्जुन |
                                                  ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा||गीता ४/३७||
अर्थात्,हे अर्जुन!जैसे प्रज्वलित अग्नि इंधनों को भस्ममय कर देती है ,वैसे ही ज्ञान रुपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है|
    अतः स्पष्ट है कि केवल ज्ञान योग ही कर्मफलों को समाप्त करने का सबसे अच्छा साधन है|
क्रमश:
                            || हरि शरणम् ||          

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