Wednesday, September 11, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ?-१

                                            पुनर्जन्म के कारण और प्रकिया समझ लेने के बाद यह जानना होगा कि मृत्यु के बाद पुनः आत्मा और चित्त को देह कब उपलब्ध होती है? इस बारे में विज्ञानं के आधार पर कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि विज्ञानं तो अभी भी पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं कर पाया है|अतः इस बारे में जो भी भारतीय शास्त्रों में उपलब्ध है ,उन्ही के आधार पर समझने का प्रयास करेंगे|
                                         मृत्यु के बाद जब आत्मा चित्त को साथ लेकर शरीर से अलग हो जाती है तो उसे नया शरीर उपलब्ध होने में कुछ क्षणों से लेकर कई वर्ष तक लग सकते हैं|यह सब पूर्व शरीर में रहते हुये मन द्वारा शरीर से जो कर्म करवाए जाते है ,उन पर निर्भर करता है|प्रत्येक कर्म के आधार पर पहले कर्मफल निर्धारित किये जाते हैं ,फिर उन्हीं के आधार पर यह तय होता है कि किस योनि में वह फल उपलब्ध होगा|कौन सा कर्मफल कब भुगतना होगा ,समयानुसार वही योनि उस समय आत्मा को उपलब्ध होगी|सब कुछ आत्मा को ही तय करना होता है क्योंकि वह परमात्मा की प्रतिनिधि या अंश है|आत्मा जब कर्मों के अनुसार सब तय कर लेती है तब निश्चित क्रमानुसार शरीर उपलब्ध होने की प्रक्रिया शुरू होती है|फिर उसमे कुछ भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता|
                                             कर्मफलों का आकलन केवल मानव योनि भोग लेने के बाद ही होता है,अन्य योनियों में शरीरों की मृत्यु के बाद ऐसा आकलन बिलकुल भी नहीं होता है|अतः अगर किसी व्यक्ति के कर्मों के अनुसार  मानव योनि के अतिरिक्त कोई अन्य योनि मिलना निश्चित होता है, तो वह अन्य योनि उसे पहले भोगनी होगी|ऐसी समस्त योनियों को भोगने के पश्चात ही उसे मानव जीवन सुलभ होगा|अपवाद स्वरुप कई बार मानव योनि पहले भी उपलब्ध हो सकती है;परन्तु ऐसे उदाहरण नगण्य ही है|
                                   आत्मा इन सब कर्मों का कर्मफल उनके गुणों के आधार पर करती है|कर्म भी गुणों के आधार पर तीन प्रकार के कहे गए हैं-सात्विक,राजसिक और तामसिक| ये तीनो गुण प्रत्येक व्यक्ति में होते हैं|कोई भी एक व्यक्ति मात्र एक ही गुण से युक्त नहीं होता है|सभी में तीनो गुणों की उपलब्धता होती है|तमो व रजो गुणों को दबाकर सात्विक गुण बढता है,सतो व तमो गुणों को दबाकर राजसिक गुण बढता है और इसी प्रकार सतो व रजो गुणों को दबाकर तामसिक गुण बढता है|परन्तु एकव्यक्ति में मात्र एक ही गुण की उपलब्धता असंभव है|इन्हीं गुणों के आधार पर कर्मफल निश्चित किये जाते हैं|गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्य तिष्ठन्ति राजसाः |
                                जघन्यगुणवृतिस्था   अधो   गच्छन्ति   तामसाः || गीता १४/१८ ||
अर्थात्,सत्व गुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं;रजो गुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात् मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमो गुण के कार्यरूप निद्रा,प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात्,कीट,पशु आदि नीच योनियों को प्राप्त होते हैं|
                                  पदार्थों के गुणों के संग से उसी कोटि के गुणयुक्त कर्म शरीर द्वारा किये जाते है,जिसके फल व्यक्ति को अपने आगामी जन्मों में उपलब्ध होते हैं|इस लिए प्रत्येक स्थान पर गुणों का अपना महत्त्व है|व्यक्ति को प्रत्येक कर्म करने से पहले यह विचार जरूर करना चाहिए कि कारित कर्म किस गुण से युक्त हो सकते हैं|सत्व गुण में स्थित पुरुष भी कई बार तामसिक प्रकृति के कर्म कर सकता है और तमो गुणों से युक्त व्यक्ति भी कभी कभी सात्विक प्रकृति के कर्म कर सकता है|अतः प्रत्येक स्थिति में यह संभव नहीं है कि जिस गुण में पुरुष स्थित हो उसे उसी प्रकार का कर्मफल मिलेगा|अगर सतो गुण में स्थित पुरुष एक भी तामसिक प्रकृति के कर्म में लिप्त हो जाता है तो भावी जन्म में उसका फल मिलना अवश्यम्भावी है|इसी कारण से कहा जाता है कि जो जैसा दिखाई देता है ,उसे वास्तव में वैसा होना भी चाहिए|यह सोचना नितांत ही असत्य है कि एक तामसिक कर्म को करने के उपरांत सौ सात्विक कर्म कर तामसिक कर्म के फल से मुक्ति पाई जा सकती है|कर्म फल से मुक्ति केवल भोगकर ही पाई जा सकती है|इनसे मुक्ति पाने के लिए प्रायश्चित और ज्ञान दो अन्य साधन उपलब्ध  अवश्य हैं परन्तु इन दोनों में बहुत ही अधिक श्रम,समय और धैर्य की आवश्यकता होती है|जो कि साधारण पुरुष के लिए लगभग असंभव है|संत कबीर ने सच ही कहा है-
                                       कर्ता था तो क्यूँ रहा,अब कर क्यूँ पछताय |
                                       बोया पेड़ बबूल का,फिर आम कहाँ से पाय ||
             कबीर यहाँ कहना चाहते हैं कि अगर तूंही  सब का कर्ता था,तो जो कर्म तूने पिछे किये है उनका फल भोगते हुये क्यों पछता रहा है?कहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति कर्म करते वक्त सब कार्यों का कर्ता स्वयं कों मानता है,लेकिन जब उन कर्मों का फल मिलने लगता है तो वह अपनी किस्मत कों दोष देते हुये पछताता रहता है|जबकि इन कर्मफलों का अधिकारी भी वही है,क्योंकि उसने सभी कर्म कर्ता भाव से ही किये हैं |
क्रमश:
                      || हरि शरणम् ||
               

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