Thursday, September 12, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ?-२

क्रमश:
                     गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                       आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोSर्जुन |
                                       मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते || गीता ८/१६ ||
अर्थात्,हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! ब्रह्मलोक पर्यंत सब लोक पुनरावर्ती है,परन्तु जो मुझको प्राप्त हो जाता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता |
                           यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण ने ब्रह्म लोक को सम्मिलित करते हुये कहा है कि इन सभी लोकों में गए पुरुष वापिस लौटते है,अर्थात् उन सभी का मानव योनि में कभी ना कभी पुनर्जन्म होना अवश्यम्भावी है|फिन पुनर्जन्म कहाँ जाने पर नहीं होता उसको समझाते हुये कहते हैं-
                                       परस्तस्मात्तु भावोSन्योSव्यक्त्तोSव्यक्त्तात्सनातनः |
                                       यः    स   सर्वेषु   भूतेषु   नश्यत्सु    न    विनश्यति  || गीता ८/२० ||
अर्थात्,परन्तु उस अवक्त से भी परे दूसरा विलक्षण यानि जो सनातन अव्यक्त भाव है;वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता|
                    ब्रह्म लोक से भी परे जो अव्यक्त भाव है वह कभी भी नष्ट नहीं होता है|केवल मात्र उसको प्राप्त कर लेने से ही किसी पुरुष का पुनर्जन्म होना असंभव हो जाता है|अतः इस स्थिति कों प्राप्त करना ही लक्ष्य होना चाहिए अन्यथा आप पुनर्जन्म कों कुछ समय के लिए टाल जरुर सकते हैं परन्तु पुनर्जन्म कों रोक बिलकुल भी नहीं सकते| उस सनातन अव्यक्त भाव कों कैसे प्राप्त किया जा सकता है कि पुनर्जन्म न हो,इसको स्पष्ट करते हुये भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                        पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया |
                                        यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् || गीता ८/२२ ||
अर्थात्,हे पार्थ!जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत है और जिस परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है,वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो केवल अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है|
                                             ब्रह्म लोक तक तो कोई भी पुरुष सत्कर्म करते हुये पहुँच भी सकता है,परन्तु यह लोक भी पुनरावर्ती है|यहाँ पर समस्त कर्मफल सम्पूर्ण हो जाने पर वापिस मानव रूप में पुनर्जन्म होना होता है|परन्तु अगर पुनर्जन्म से मुक्त होना चाहते है तो फिर उस सनातन अव्यक्त पुरुष तक पहुँचना ही होगा|गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि वह सनातन अव्यक्त पुरुष केवल अन्य भक्ति से ही पाया जा सकता है|भक्ति नाम है ,प्रेम का|और प्रेम में समर्पण आवश्यक होता है|अनन्य भक्ति एक मात्र परमात्मा के प्रति प्रेम सहित समर्पण का ही नाम है|यानि साधारण शब्दों में कहा जाये तो" एक मात्र परमात्मा ही मेरे सब कुछ है और मैं परमात्मा के प्रति पूर्णरूप से समर्पित हूँ|अन्य यहाँ मेरा कोई भी नहीं है,सबकुछ परमात्मा ही है"इसी का नाम अनन्य भक्ति है|इस भक्ति से परमात्मा कों पाना संभव है|एक बार उससे मिलन हो जाने पर व्यक्ति जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है|
                       उस सनातन अव्यक्त भाव कों प्राप्त करने के अतिरिक्त हर स्थान से पुनर्जन्म के लिए लौटना ही होता है|पुनर्जन्म की इस सम्बन्ध में क्या सम्भावनाये हो सकती है ,इस पर विचार करेंगे|
                    जब चित्त में अंकित कर्मों के आधार पर फल निश्चित हो जाते है तो उन्हें उपलब्ध करवाने की व्यवस्था भी आत्मा द्वारा ही की जाती है|अगर सात्विक कर्म इस भांति किये गए हों कि जिससे मिलने वाले कर्मफल मानव योनि में भी संभव ना हो ,तो ऐसी स्थिति में किसी भी योनि में पुनर्जन्म नहीं हो सकता |ऐसी आत्माए फिर देवलोक या ब्रह्म लोक में कुछ समय के लिए निवास करती है और जब पुण्य कर्मों का कर्मफल पूर्ण होता है तभी उनका जन्म मानव योनि में संभव होता है|सतोगुण युक्त पुरुष ही इस लोक के अधिकारी होते हैं|सतोगुण से युक्त व्यक्ति साधारणतया सात्विक कर्म ही अपने जीवन में संपन्न करते हैं अतः उनका उपरी लोकों में कुछ समय के लिए निवास करना संभव होता है| उनका पुनर्जन्म उच्च कुल में और सुशिक्षित परिवार में होता है,जहाँ बचपन से ही उसे ईश्वर के प्रति भक्ति पूर्ण वातावरण उपलब्ध रहता है,जिससे उसे परमात्मा कों पाने की सोच बलवती हो जाती है|इसी कारण से भागवत में कहा गया है कि मानव योनि बार बार इसी लिए मिलती है कि व्यक्ति निरंतर परमात्मा कों पाने की दिशा में प्रगति करता रहे|
क्रमश:
                         || हरि शरणम् ||  

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