Sunday, September 29, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-७

क्रमश:७

ध्यान-मार्ग--क्रमश:

                       ध्यान योग के अंतर्गत विचारों का त्याग ही महत्वपूर्ण है,ध्यान को उपलब्ध होने की विधि नहीं  है | ध्यान योगके लिए जाने वाले  प्रत्येक व्यक्ति के लिए विधियाँ अलग अलग हो सकती है ,परन्तु उपलब्धि मात्र निर्विचार होना है |यहाँ गीता में वर्णित विधि को उद्घृत किया गया है |ध्यानयोग साधना एक कठिन प्रक्रिया है और इसके लिए बार बार कड़े अभ्यास की आवश्यकता होती है |इसीलिए यह साधन प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपयुक्त भी नहीं है |ध्यान के लिए लगातार अभ्यास करते रहने से व्यक्ति के मन में विचारों का प्रवाह धीर धीरे कम होता हुआ अंत में पूर्ण रूप से अवरुद्ध हो जाता है |यह स्थिति ही निर्विचार की स्थिति होती है |एक बार निर्विचार(Thoughtlessness) की स्थिति प्राप्त होजाने के बाद किसी भी प्रकार के अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती,और व्यक्ति ध्यान की अवस्था में तत्काल जा सकता है |अब उसे परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नज़र नहीं आता है |  वह उस स्थिति को प्राप्त हो जाता है जब वह सम्पूर्ण रूप से ध्यानस्थ ही रहता है |लेकिन यह अभी भी ध्यान की पूर्ण अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है|अभी भी उसके मन में विचार आ रहे है चाहे वह परमात्मा का ही विचार हो |अंत में वह ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेता है जब परमात्मा का भी विचार उसके मन से लुप्त हो जाता है|मन पूर्ण रूप से निर्मल हो जाता है |यही ध्यान की परम अवस्था होती है |
                           कामनाएं और इच्छाएं मन में ही पैदा होती है,उसके कारण ही व्यक्ति को कर्म करने पड़ते हैं |जब मन निर्विचार की अवस्था को प्राप्त हो जाता है तब समस्त कामनाये और इच्छाएं भी पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती है |ऐसे में वह व्यक्ति अपनी इच्छाओं व कामनाओं की पूर्ति के लिए कोई कर्म नहीं करेगा |ऐसे कर्म से जब वह विमुख हो जायेगा तो चित्त में कुछ भी अंकित नहीं होगा |वह चित्त एकदम निर्मल अवस्था में होगा |ऐसी स्थिति में कर्मफल भी नहीं होगा,और जब कर्मफल मिलने ही नहीं है तो फिर पुनर्जन्म क्यों होगा |ऐसे में आत्मा का परमात्मा के साथ योग होना निश्चित्त है |यही ध्यान योग से पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति है |

ज्ञान-मार्ग--

                   ज्ञान योग परमात्मा को देखने की दूसरी विधि है |इसको कुशाग्र बुद्धि युक्त व्यक्ति अपना सकते हैं |गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-
                                 चतुर्विद्याभजन्ते माँ जनाः सुकृतिनोSर्जुन |
                                 आर्तो  जिज्ञासुरर्थार्थी  ज्ञानी  च  भरतर्षभ || गीता ७/१६ ||
अर्थात्,हे भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन!उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए ),आर्त(संकट निवारण के लिए ),जिज्ञासु (जानने की इच्छावाले)और ज्ञानी -ये चार प्रकार के भक्त जन मुझको भजते हैं |
                                 तेषां  ज्ञानी  नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते  |
                                 प्रियो हि ज्ञानिनोSत्यर्थमहं स च मम प्रियः || गीता ७/१७ || 
अर्थात्,उनमे नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है ;क्योंकि ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और ज्ञानी मुझे अत्यंत प्रिय है |
                                  यहाँ पर भगवान स्पष्ट करते हैं की परमात्मा की उपासना चार प्रकार के भक्त करते हैं |अर्थार्थी वे भक्त होते हैं जिन्हें सांसारिक पदार्थों की आवश्यकता होती है और वे परमात्मा से इनको प्राप्त करने की प्रार्थना करते हैं|दूसरे प्रकार के भक्त आर्त यानि दुखी होते है ,वे अपने पर आये संकट से मुक्ति के लिए परमात्मा की उपासना करते हैं |तीसरे प्रकार के भक्त जिज्ञासु प्रकृति के होते हैं |उनकी जिज्ञासा(Interest to know ) परमात्मा को जानने की होती है,जिसके लिए वे परमात्मा की आराधना करते हैं |ज्ञानी भक्त वे होते हैं जो जानते हैं की जानने योग्य क्या है |वे तदनुसार परमात्मा के बारे में सब कुछ जान जाते हैं और निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि परमात्मा के बारे में जानना कितना कठिन है यानि परमात्मा जानने में नहीं आते हैं |भगवान श्री कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं-
                                   बहिरन्तश्च      भूतानामचरं     चरमेव    च |
                                   सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् || गीता १३/१५ ||
अर्थात्,चराचर सब भूतों के बाहर भीतर और चार अचर रूप भी वही है और वह परमात्मा सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है अर्थात सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता |तथा तथा अति समीप और दूर में भी वही स्थित है |अति समीप का अर्थ यह है कि शरीर में जो आत्मा है वह परमात्मा का ही तो अंश है अतः वह मनुष्य के अति समीप है |तथा जो परमात्मा में श्रद्धा नहीं रखते ऐसे अज्ञानी व्यक्तियों के लिए परमात्मा अत्यंत दूर ही है |
                     परमात्मा की प्रकृति सूक्ष्म है इस कारण से उसे जानना बहुत ही मुश्किल है |इसी कारण से परमात्मा जानने में नहीं आता है |इस बारे में समस्त ज्ञान रखने वाला ही ज्ञाता कहलाता है और परमात्मा को ही सर्वेसर्वा मानने वाला ज्ञानी भक्त |इस दुर्लभ ज्ञान को प्राप्त करने में मनुष्य को कई जन्म लग जाते हैं,तभी वह परमात्मा को कुछ जानने की स्थित को उपलब्ध होता है | 
                            जो ज्ञानी भक्त होता है वह परमात्मा को ही सब कुछ मानते हुए प्रेमभाव से भक्ति करता है |भगवान कहते हैं कि ऐसे ज्ञानी भक्त को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह भक्त मुझे भी अत्यंत प्रिय है |वैसे भगवान को सभी भक्त प्रिय होते हैं परन्तु ज्ञानी भक्त को उन्होंने इन चारों में अत्यंत प्रिय बताया है |श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि उपरोक्त चारों तरह के भक्त उदार हैं परन्तु ज्ञानी तो मेरा ही साक्षात् स्वरुप है |परमात्मा ने ज्ञानी भक्त को ही अपना साक्षात् स्वरुप इसलिए बताया गया है कि ऐसा भक्त केवल परमात्मा के प्रति समर्पित होता है और परमात्मा में ही स्थित होता है |तुलसीदास जी ने मानस में लिखा है-
                                        सोई जानई जेहू देइ जनाई |जानत तुम्हहि तुमइ होई जाई ||
           परमात्मा स्वयं के बारे में जिसको जनाना चाहता है,वही उसे जन सकता है |प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है कि वह उस परम पिता परमात्मा को जान सके |और जो व्यक्ति उस परमात्मा को जान लेता है वह साक्षात् परमात्मा स्वरुप ही हो जाता है |यह जानने वाला और परमात्मा में स्थित भक्त ही ज्ञानी भक्त कहलाता है |
क्रमश:
               || हरिः शरणम् ||  

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