क्रमश:
तामसिक गुणों से युक्त पुरुष की गति भी उसके किये गए कर्मों के अनुरूप ही होती है | तामसिक व्यक्ति ज्यादातर तामसिक कर्म ही करता है|गीता में भगवान श्री कृष्ण तामसिक कर्मों के लक्षण समझाते हुये कहते हैं-
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् |
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते || गीता १८/२५ ||
अर्थात्,जो कर्म परिणाम,हानि,हिंसा और सामर्थ्य का विचार किये बिना केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है,वह कर्म तामसिक कहा जाता है|
तामसिक कर्ता कोई भी कार्य बिना सोचे विचारे प्रारंभ कर देता है|उसे कार्य का ज्ञान भी नहीं होता कि ऐसे कर्म कों करने की क्या तो विधि होनी चाहिए,उसे कैसे परिणाम तक पहुँचाया जाये या इस कर्म का संभावित परिणाम क्या होगा?उसका उद्देश्य तो प्रत्येक कर्म का येन-केन-प्रकारेण अपने मनवांछित फल कों प्राप्त करना होता है,चाहे उसके लिए उसे कितने भी प्रयास शास्त्र विरुद्ध करने पड़े|वह यह समझ ही नहीं पाता कि आज जो भी फल उसे प्राप्त हो रहें है वह सब पूर्व जन्म के कर्मों के फल है ना कि इस जन्म के किये गए कर्मों का फल|इस जन्म में किये गए कर्मों के फल तो उसे अगले जन्म में ही प्राप्त हो पाएंगे|इस कों सही तरीके से समझ नहीं पाना ही उसका अज्ञान है|
तामसिक कर्ता शिक्षा से रहित तो होता ही है,साथ में वह घमंडी,धूर्त दूसरों की जीविका का नाश करनेवाला भी होता है|ऐसा कर्ता आलसी होता है और तत्काल करने वाले कार्य कों भी टालता रहता है|इसका कारण उसकी तामसिक बुद्धि ही होती है|तामसिक बुद्धियुक्त पुरुष अधर्म कों भी "यही धर्म है" ऐसा मान बैठता है|लाख समझाने पर भी वह यथार्थ कों समझने का प्रयास भी नहीं करता है| इसी प्रकार वह सभी संज्ञान में आने वाली बातों के विपरीत कों ही सही मान लेता है |ऐसा व्यक्ति बाहरी तौर पर देखने में चाहे कितना ही निश्चिन्त और बहादुर नजर आता हो परन्तु वास्तव में वह जीवन में निद्रा,भय,शोक,चिंता ,दुख,दुर्बलता और उन्मत्तता कों त्याग ही नहीं सकता |यही उसकी सबसे बड़ी विडम्बना है|
तामसिक कर्मों से उसे सुख का जो अनुभव होता है वह आत्मा कों भी मोहित कर देता है जबकि ऐसा सुख मात्र आलस्य ,निद्रा और प्रमाद से ही उत्पन्न होता है|तामसिक व्यक्ति ईश्वर की पूजा,तप और यज्ञ भी शास्त्रविधि के बिना,अन्नदान से रहित,बिना मन्त्रों के और बिना श्रद्धा के करता है|तामसिक कर्ता तप भी मूढतापूर्ण तरीके से,हठपूर्वक तथा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए करता है|वह दान भी तिरस्कारपूर्वक व अयोग्य तथा कुपात्र कों ही करता है|
ऐसी तामसिक वृति वाला पुरुष मरणोपरांत कई वर्षों तक नीच योनियों में जन्म लेकर भटकता रहता है|जहाँ उसे बहुत ही प्रकार के कष्ट सहने पड़ते हैं|जब उसके सभी तामसिक कर्मों का फल पूर्ण रूप से भोगे जाने के बाद समाप्त हो जाते हैं तब उसे वापिस मानव योनि सुलभ होती है|यहाँ पर भी ज्यादा सम्भावना इसी बात की रहती है कि उसका जन्म निम्न कुल में ही होगा|परन्तु मानव योनि ही एक मात्र ऐसी योनि है,जिसमे जन्म ले कर व्यक्ति अपनी स्थिति में सुधार कर सकता है|अगर कोई तामसिक वृति का व्यक्ति तामसिक कर्मों के साथ साथ सात्विक कर्म भी एकाधिक बार कर लेता है तो भी प्रारंभ में उसे नीच योनियों में ही कई वर्षों तक भटकते रहना होगा|हाँ,ऐसा अवश्य होगा कि मानव योनि में उसका जन्म निम्न कुल की जगह माध्यम कुल में हो,जिससे वह अपने आप का उत्थान कर सके|
एक बार पुनः मानव योनि प्राप्त करने के बाद जिस प्रकार के कर्म वह करेगा ,उसी प्रकार से उसका भावी जन्म निश्चित होगा |तामसिक कर्मों का फल नीच योनियों में भोगलेने के पश्चात जब मानव योनि में जन्म होता है तो तामसिक प्रकृति के व्यक्ति का चित्त प्रारंभ में निर्मल अवस्था में होता है|उसे जो भी वातावरण अपने परिवार व परिवेश में मिलता है,उसी के अनुरूप उसका विकास होता है,जो उसकी अपनी स्थिति को सुधारने में भी सहायक सिद्ध हो सकता है|वह उच्च कोटि के कर्म करने को प्रेरित हो सकता है |
क्रमश:
|| हरी शरणम् ||
तामसिक गुणों से युक्त पुरुष की गति भी उसके किये गए कर्मों के अनुरूप ही होती है | तामसिक व्यक्ति ज्यादातर तामसिक कर्म ही करता है|गीता में भगवान श्री कृष्ण तामसिक कर्मों के लक्षण समझाते हुये कहते हैं-
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् |
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते || गीता १८/२५ ||
अर्थात्,जो कर्म परिणाम,हानि,हिंसा और सामर्थ्य का विचार किये बिना केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है,वह कर्म तामसिक कहा जाता है|
तामसिक कर्ता कोई भी कार्य बिना सोचे विचारे प्रारंभ कर देता है|उसे कार्य का ज्ञान भी नहीं होता कि ऐसे कर्म कों करने की क्या तो विधि होनी चाहिए,उसे कैसे परिणाम तक पहुँचाया जाये या इस कर्म का संभावित परिणाम क्या होगा?उसका उद्देश्य तो प्रत्येक कर्म का येन-केन-प्रकारेण अपने मनवांछित फल कों प्राप्त करना होता है,चाहे उसके लिए उसे कितने भी प्रयास शास्त्र विरुद्ध करने पड़े|वह यह समझ ही नहीं पाता कि आज जो भी फल उसे प्राप्त हो रहें है वह सब पूर्व जन्म के कर्मों के फल है ना कि इस जन्म के किये गए कर्मों का फल|इस जन्म में किये गए कर्मों के फल तो उसे अगले जन्म में ही प्राप्त हो पाएंगे|इस कों सही तरीके से समझ नहीं पाना ही उसका अज्ञान है|
तामसिक कर्ता शिक्षा से रहित तो होता ही है,साथ में वह घमंडी,धूर्त दूसरों की जीविका का नाश करनेवाला भी होता है|ऐसा कर्ता आलसी होता है और तत्काल करने वाले कार्य कों भी टालता रहता है|इसका कारण उसकी तामसिक बुद्धि ही होती है|तामसिक बुद्धियुक्त पुरुष अधर्म कों भी "यही धर्म है" ऐसा मान बैठता है|लाख समझाने पर भी वह यथार्थ कों समझने का प्रयास भी नहीं करता है| इसी प्रकार वह सभी संज्ञान में आने वाली बातों के विपरीत कों ही सही मान लेता है |ऐसा व्यक्ति बाहरी तौर पर देखने में चाहे कितना ही निश्चिन्त और बहादुर नजर आता हो परन्तु वास्तव में वह जीवन में निद्रा,भय,शोक,चिंता ,दुख,दुर्बलता और उन्मत्तता कों त्याग ही नहीं सकता |यही उसकी सबसे बड़ी विडम्बना है|
तामसिक कर्मों से उसे सुख का जो अनुभव होता है वह आत्मा कों भी मोहित कर देता है जबकि ऐसा सुख मात्र आलस्य ,निद्रा और प्रमाद से ही उत्पन्न होता है|तामसिक व्यक्ति ईश्वर की पूजा,तप और यज्ञ भी शास्त्रविधि के बिना,अन्नदान से रहित,बिना मन्त्रों के और बिना श्रद्धा के करता है|तामसिक कर्ता तप भी मूढतापूर्ण तरीके से,हठपूर्वक तथा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए करता है|वह दान भी तिरस्कारपूर्वक व अयोग्य तथा कुपात्र कों ही करता है|
ऐसी तामसिक वृति वाला पुरुष मरणोपरांत कई वर्षों तक नीच योनियों में जन्म लेकर भटकता रहता है|जहाँ उसे बहुत ही प्रकार के कष्ट सहने पड़ते हैं|जब उसके सभी तामसिक कर्मों का फल पूर्ण रूप से भोगे जाने के बाद समाप्त हो जाते हैं तब उसे वापिस मानव योनि सुलभ होती है|यहाँ पर भी ज्यादा सम्भावना इसी बात की रहती है कि उसका जन्म निम्न कुल में ही होगा|परन्तु मानव योनि ही एक मात्र ऐसी योनि है,जिसमे जन्म ले कर व्यक्ति अपनी स्थिति में सुधार कर सकता है|अगर कोई तामसिक वृति का व्यक्ति तामसिक कर्मों के साथ साथ सात्विक कर्म भी एकाधिक बार कर लेता है तो भी प्रारंभ में उसे नीच योनियों में ही कई वर्षों तक भटकते रहना होगा|हाँ,ऐसा अवश्य होगा कि मानव योनि में उसका जन्म निम्न कुल की जगह माध्यम कुल में हो,जिससे वह अपने आप का उत्थान कर सके|
एक बार पुनः मानव योनि प्राप्त करने के बाद जिस प्रकार के कर्म वह करेगा ,उसी प्रकार से उसका भावी जन्म निश्चित होगा |तामसिक कर्मों का फल नीच योनियों में भोगलेने के पश्चात जब मानव योनि में जन्म होता है तो तामसिक प्रकृति के व्यक्ति का चित्त प्रारंभ में निर्मल अवस्था में होता है|उसे जो भी वातावरण अपने परिवार व परिवेश में मिलता है,उसी के अनुरूप उसका विकास होता है,जो उसकी अपनी स्थिति को सुधारने में भी सहायक सिद्ध हो सकता है|वह उच्च कोटि के कर्म करने को प्रेरित हो सकता है |
क्रमश:
|| हरी शरणम् ||
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