Saturday, September 28, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-६

क्रमश:६
                     मंदबुद्धि वाले व्यक्ति तो तत्वज्ञानियों से सुनकर उपासना आदि साधन अपनाकर संसार सागर को पार करने की स्थिति निर्मित कर लेते है |कुशाग्र बुद्धि वाले इस प्रकार उपासना करना स्वीकार नहीं कर पाते |उन्हें बुद्धि ऐसा करने से रोकती है |ऐसी स्थिति में अपनी संतुष्टि के लिए व्यक्ति ऐसे साधन की तलाश में रहता है जिसे जानकर और समझ कर वह अपने लिए उसे उपयुक्त मानते हुए स्वीकार करे |ऐसी कई विधियाँ या साधन उपलब्ध भी है |जिनमे तीन साधन प्रमुख है-ध्यान ,ज्ञान और कर्म |

   ध्यान-मार्ग--

     ध्यान योग को समझने के लिए मेरे को एक कहानी याद आ रही है |एक बार एक प्रान्त के शासक के मन में इच्छा पैदा हुई की आज किसी बौद्ध विहार का जाकर निरीक्षण किया जाये |उसके मन में एक जिज्ञासा थी की आखिर वहाँ पर बौद्ध भिक्षु करते क्या हैं ?राजा अपने घोड़े पर सवार होकर बौद्ध विहार पहुँच गया | वहाँ पहुंचकर उसने देखा कि सभी भिक्षु अपने अपने कार्य में व्यस्त है |जब मुख्य भिक्षु को पता चला कि वहाँ का शासक बौद्ध विहार का निरीक्षण करना चाहता है तो वह तरंत उनकी अगवानी के लिए मुख्य द्वार पर पहुंचा |ससम्मान राजा को लेकर उसने अंदर प्रवेश किया |वह प्रत्येक स्थान  राजा को दिखलाता और संक्षेप में उसका उपयोग भी बताता जाता |बांयी तरफ उसने इशारा करते हुए बताया कि यह पुस्तकालय है ,यहाँ पर भिक्षु अध्ययन करते हैं |थोडा आगे चलकर उसने भोजनालय की तरफ इशारा करते हुए बताया कि यहाँ भिक्षु खाना पकाते है |फिर पास में बने कमरे के बारे में बताया कि यहाँ भिक्षु भोजन करते हैं |
                           इसी बीच राजा की नज़र विहार के मध्य में बने विशाल भवन पर पड़ी |राजा ने पूछा-यहाँ भिक्षु क्या करते है ?मुख्य भिक्षु ने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया ,और आगे बढ़ते हुए बताने लगा कि यहाँ भिक्षु लोग स्नान करते हैं |राजा ने फिर उस खाली पड़े विशाल भवन की तरफ इशारा करते हुए पूछा कि यहाँ आप क्या करते हैं ?मुख्य भिक्षु ने फिर कोई जवाब नहीं दिया और अन्य कमरे की तरफ इशारा करते हुए बताया कि सभी भिक्षु यहाँ पर रात्रि विश्राम करते हैं |राजा बार बार उस विशाल कमरे के बारे में पूछता कि वहाँ भिक्षु क्या करते हैं ?परन्तु हर बार मुख्य भिक्षु इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं देता |आखिर राजा ने पूरे विहार का निरीक्षण कर लिया और वापिस जाने को उद्यत हुआ |मुख्य भिक्षु उन्हें मुख्य द्वार तक विदा करने आया |अकेला पाकर राजा ने उनसे पूछा कि मैंने आपको इतनी बार पूछा कि यह विशाल कक्ष क्यों है ?आप यहाँ पर क्या करते हैं ?और आपने इसका जवाब अभी तक नहीं दिया |
                          मुख्य भिक्षु नम्रता पूर्वक बोला-'राजन,यह ध्यान कक्ष है |'राजा ने कहा 'ऐसे कहो न कि यहाँ बौद्ध भिक्षु ध्यान करते हैं | 'मुख्य भिक्षु बोला -'राजन !आपने हर बार मुझे यही पूछा कि आप यहाँ क्या करते है?जब यहाँ पर हम कुछ भी नहीं करते तो मैं आपको क्या जवाब देता?ध्यान कुछ करने की बात नहीं है |जबकि कुछ भी न करना ही ध्यान है |' मैं नहीं समझता कि राजा ने इसे कैसा समझा होगा |परन्तु वास्तविकता यही है कि कुछ भी न करने को ही ध्यान कहते हैं |ध्यान करना नहीं होता .बल्कि न करना ही ध्यान होता है |यही ध्यान का मुख्य आधार है |
                          इस शरीर में स्थित मन की ऐसी स्थिति होती है कि उसमे विचारों का प्रवाह निरंतर बना रहता है |जब तक मन पर नियंत्रण नहीं रखेंगे तब तक विचारों पर नियंत्रण करना असंभव होता है |जब तक आपके मन में विचारों का प्रवाह बना रहेगा तब तक कोई भी व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध नहीं हो सकता |ध्यान एक निर्विचार की स्थिति है |निर्विचार की स्थिति प्राप्त करने के लिए कड़े अभ्यास की जरुरत होती है |गीता में भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन को ध्यान की विधि के बारे में समझाते हुए कहते है कि व्यक्ति को ध्यान को उपलब्ध होने के लिए ऐसी जगह को चुनना चाहिए जो शुद्ध हो |शुद्ध से यहाँ अर्थ किसी भी प्रकार के व्यवधान पैदा करने वाली परिस्थितियों से मुक्त  जगह से है |ऐसी जगह पर इन्द्रियों को विचलित करने वाली कोई भी परिस्थिति बनने की सम्भावना नहीं होनी चाहिए |उस स्थान पर प्रयाप्त आसन लगाना चाहिए ,जो न तो ज्यादा ऊँचा हो और न ही ज्यादा नीचा |आसन स्थिर भी हो |इस आसन पर बैठ कर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को नियंत्रित करने का अभ्यास करना चाहिए |अपने शरीर,गर्दन और सिर को अचल कर नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि जमायें|इससे किसी भी दिशा में देखा जाना संभव ही नहीं होगा |ऐसा व्यक्ति अब अपने मन को रोककर परमात्मा में चित्त लगा सकते हैं |यहाँ श्री कृष्ण कहते हैं-
                               युन्जन्नेवं  सदात्मानं  योगी  नियतमानसः |
                               शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति || गीता ६/१५ ||
अर्थात्,वश में किये हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरुप में लगाता हुआ मुझ में रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शांति को प्राप्त होता है |
                         यहाँ भगवान यही कह रहे हैं कि जब व्यक्ति चारों दिशाओं से अपना ध्यान हटाकर,अपने मन को नियन्त्रित कर मेरे परायण हो जाता है तब वह मेरे में स्थित उस शांति को प्राप्त कर लेता है जो परमानन्द की पराकाष्ठा है |आगे श्री कृष्ण कहते हैं कि यह योग न तो बहुत खाने वालों का है और न ही बिलकुल न खाने वालों का |न ज्यादा शयन करने वालों का है और न ही ज्यादा जागने वालों को ही यह योग सिद्ध होता है |इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि जब मन और इन्द्रियों पर व्यक्ति पूर्णरूप से नियंत्रण पा लेता है तभी वह परमात्मा का ध्यान लगा सकता है |मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण आते ही व्यक्ति तुरंत ही उत्पन्न होने वाले विचारों से छुटकारा पा लेता है और निर्विचार( Thoughtlessness ) की स्थिति को उपलब्ध हो जाता है |
                             निर्विचार की स्थिति में व्यक्ति सांसारिकता से विमुख हो जाता है |यहाँ मुख्य बात विचारों का त्याग ही है |विचारों के त्यागते ही संसार से ध्यान तत्काल हट जाता है और जो शांति उपलब्ध होती है वही परम तत्व की प्राप्ति  है |
क्रमश:
                              || हरिः शरणम् || 

                                                

No comments:

Post a Comment