क्रमश:५
अभ्यास योग में नाम जप की महिमा को प्राथमिकता दी गयी है |अभ्यास योग में नाम जप के बाद जो स्थिति आती है या साधक को जिस स्थिति में जाना चाहिए वह स्थिति भक्त की स्थिति कहलाती है |गीता के १२ वें अध्याय को भक्ति योग नाम से कहा गया है |केवल मात्र नाम जप से ही व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता |उसको जानने या प्राप्त करने के लिए उसे भक्त बनना ही होगा | इस प्रक्रिया या विधि को भक्ति योग नाम से जाना जाता है |मीरा ने भगवान की प्राप्ति इसी योग के माध्यम से की थी |वैसे भक्ति शब्द का अर्थ होता है-भगवान के साथ जुडाव |भक्त वही कहलाता है जिसने परमात्मा के साथ योग कर लिया हो | परमात्मा के साथ योग करने लिए जो प्रक्रिया अपनाई जाती है उसे भक्ति कहा जाता है | भक्ति के अंतर्गत परमात्मा प्राप्ति के सभी साधन आ जाते हैं |इसमे सूक्ष्म यानि कुशाग्र बुद्धि वालों के लिए उपयोगी ध्यान,ज्ञान और कर्म योग के साधन हैं और मंद बुद्धि वालों के लिए तत्वज्ञानियों द्वारा सुने हुए उपासना करने का मार्ग है |
भक्ति के लिए भगवान ने गीता में क्रमानुसार प्रक्रिया बतलाई है |सबसे पहले और उत्तम विधि ध्यान की है |परन्तु यह सबसे कठिन विधि है |इस ध्यान विधि को अपनाने के लिए श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः || गीता १२/८ ||
अर्थात्,परमात्मा कहते हैं की मुझ में मन लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा ;इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा,इसमे कुछ भी संशय नहीं है |
अथ चित्तं समाधातुं न शन्कोषि मयि स्थिरम् |
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय || गीता १२/९ ||
अर्थात्,यदि तू मन को मेरे में अचल स्थापित करने में असमर्थ है तो हे अर्जुन! अभ्यास रूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर |
अभ्यासेSप्यसमर्थोSसि मत्कर्मपरमो भव |
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि || गीता १२/१० ||
अर्थात्,अभ्यास करने में भी अगर तू अपने आप को समर्थ नहीं पाता है तो केवल मेरे लिए कर्म कर |इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करते हुए भी तू मेरी सिद्धि को प्राप्त हो जायेगा |
अथैतदप्यशक्तोSसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः |
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् || गीता १२ /११ ||
अर्थात्,यदि पूरे प्रयास के उपरांत भी तू ऐसा करने में असमर्थ है तो तू मन,बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सभी कर्मों के फलों का त्याग कर |
भक्ति योग में भगवान कहते हैं कि परमात्मा को पाने का सबसे उत्तम उपाय यह है कि व्यक्ति अपने मन को नियंत्रण में रखे |जहाँ भी और जब भी मन पर नियंत्रण कमजोर पड़ता है ,परमात्मा से विमुख होकर सांसारिकता की तरफ अग्रसर हो जाता है |मन को परमात्मा में लगाने से व्यक्ति में इच्छाओं और कामनाओं पर नियंत्रण पाने की क्षमता भी पैदा हो जाती है |बुद्धि और मन जब परमात्मा में लग जाते हैं तब मनुष्य का इस संसार से कोई भी प्रयोजन नहीं रह जाता है |इस स्थिति में ऐसा लगता है जैसे व्यक्ति संसार की जगह परमात्मा में ही निवास करता है |लेकिन ऐसा करना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है |
भगवान आगे कहते हैं कि यह कार्य अगर तुम नहीं कर सकते तो तुम्हे इस मन और बुद्धि पर नियंत्रण करने का अभ्यास करना चाहिए |अभ्यास की निरंतरता से एक दिन मन और बुद्धि को परमात्मा की तरफ मोड़ा जा सकेगा |इसको अर्थात् अभ्यास से भी अगर मन और बुद्धि को नियंत्रित न कर सको तो जो भी कर्म करो ,मेरे निमित्त करो |यह मानो कि कर्म परमात्मा के लिए कर रहा हूँ |कर्मों में कर्तापन का भाव नहीं होना चाहिए |जब व्यक्ति में कर्तापन का भाव नहीं होगा तो किये गए कर्म स्वतः ही नष्ट हो जायेंगे |इस के सिद्ध होते ही परमात्मा को पाया जा सकता है |
अगर व्यक्ति उपरोक्त तीनों साधन करने में अपने को सक्ष्म नहीं समझता तो परमात्मा उसे अंतिम मार्ग समझाते हुए कहते हैं कि तुम अगर मेरे लिए भी कर्म करने में अपने आप को असमर्थ पते हो तो अपनी बुद्धि और मन पर नियंत्रण करने वाला बन |ऐसा कर पाने से व्यक्ति कर्मफल का त्याग करने वाला बन जायेगा |जो भी कर्मफल उसे प्राप्त होगा ,उसे हरि इच्छा मानते हुए स्वीकार कर लेगा |इसी को कर्मफल का त्याग करना कहते हैं |इसमे व्यक्ति कर्म तो सकाम ही करता है परन्तु कर्मफल के प्रति मोहित नहीं होता है |उदाहरणार्थ एक विद्यार्थी परीक्षा की तैयारी,सफल होने के लिए करता है |यह सकाम कर्म हुआ |लेकिन तैयारी के दौरान वह अगर कर्मफल के प्रति मोहित हो गया तो सफल होने पर उसे अत्यधिक खुशी मिलेगी और असफल होने पर उसे अपार दुःख का अनुभव होगा |अगर तैयारी करते समय वह कर्मफल से मोहित नहीं होता है,यानि सफलता या असफलता के बारे में नहीं सोचता है तो यह कर्मफल का त्याग कहलाता है |अब अगर वह परीक्षा में परिणाम स्वरुप सफल हो जाता है तो उसे अत्यधिक खुशी भी नहीं होगी तथा असफल होने पर अत्यधिक दुःख भी नही होगा |वह इस परिणाम को हरि इच्छा मानकर स्वीकार कर लेगा |
उपरोक्त चारों ही साधनों में मन और बुद्धि पर व्यक्ति का नियंत्रण होना आवश्यक है |अगर व्यक्ति इन दोनों पर नियंत्रण नहीं कर सकता तो कोई भी साधन आपको साध्य यानि परमात्मा तक ले जाने में असमर्थ होगा |
क्रमश :
|| हरिः शरणम् ||
अभ्यास योग में नाम जप की महिमा को प्राथमिकता दी गयी है |अभ्यास योग में नाम जप के बाद जो स्थिति आती है या साधक को जिस स्थिति में जाना चाहिए वह स्थिति भक्त की स्थिति कहलाती है |गीता के १२ वें अध्याय को भक्ति योग नाम से कहा गया है |केवल मात्र नाम जप से ही व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता |उसको जानने या प्राप्त करने के लिए उसे भक्त बनना ही होगा | इस प्रक्रिया या विधि को भक्ति योग नाम से जाना जाता है |मीरा ने भगवान की प्राप्ति इसी योग के माध्यम से की थी |वैसे भक्ति शब्द का अर्थ होता है-भगवान के साथ जुडाव |भक्त वही कहलाता है जिसने परमात्मा के साथ योग कर लिया हो | परमात्मा के साथ योग करने लिए जो प्रक्रिया अपनाई जाती है उसे भक्ति कहा जाता है | भक्ति के अंतर्गत परमात्मा प्राप्ति के सभी साधन आ जाते हैं |इसमे सूक्ष्म यानि कुशाग्र बुद्धि वालों के लिए उपयोगी ध्यान,ज्ञान और कर्म योग के साधन हैं और मंद बुद्धि वालों के लिए तत्वज्ञानियों द्वारा सुने हुए उपासना करने का मार्ग है |
भक्ति के लिए भगवान ने गीता में क्रमानुसार प्रक्रिया बतलाई है |सबसे पहले और उत्तम विधि ध्यान की है |परन्तु यह सबसे कठिन विधि है |इस ध्यान विधि को अपनाने के लिए श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः || गीता १२/८ ||
अर्थात्,परमात्मा कहते हैं की मुझ में मन लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा ;इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा,इसमे कुछ भी संशय नहीं है |
अथ चित्तं समाधातुं न शन्कोषि मयि स्थिरम् |
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय || गीता १२/९ ||
अर्थात्,यदि तू मन को मेरे में अचल स्थापित करने में असमर्थ है तो हे अर्जुन! अभ्यास रूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर |
अभ्यासेSप्यसमर्थोSसि मत्कर्मपरमो भव |
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि || गीता १२/१० ||
अर्थात्,अभ्यास करने में भी अगर तू अपने आप को समर्थ नहीं पाता है तो केवल मेरे लिए कर्म कर |इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करते हुए भी तू मेरी सिद्धि को प्राप्त हो जायेगा |
अथैतदप्यशक्तोSसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः |
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् || गीता १२ /११ ||
अर्थात्,यदि पूरे प्रयास के उपरांत भी तू ऐसा करने में असमर्थ है तो तू मन,बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सभी कर्मों के फलों का त्याग कर |
भक्ति योग में भगवान कहते हैं कि परमात्मा को पाने का सबसे उत्तम उपाय यह है कि व्यक्ति अपने मन को नियंत्रण में रखे |जहाँ भी और जब भी मन पर नियंत्रण कमजोर पड़ता है ,परमात्मा से विमुख होकर सांसारिकता की तरफ अग्रसर हो जाता है |मन को परमात्मा में लगाने से व्यक्ति में इच्छाओं और कामनाओं पर नियंत्रण पाने की क्षमता भी पैदा हो जाती है |बुद्धि और मन जब परमात्मा में लग जाते हैं तब मनुष्य का इस संसार से कोई भी प्रयोजन नहीं रह जाता है |इस स्थिति में ऐसा लगता है जैसे व्यक्ति संसार की जगह परमात्मा में ही निवास करता है |लेकिन ऐसा करना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है |
भगवान आगे कहते हैं कि यह कार्य अगर तुम नहीं कर सकते तो तुम्हे इस मन और बुद्धि पर नियंत्रण करने का अभ्यास करना चाहिए |अभ्यास की निरंतरता से एक दिन मन और बुद्धि को परमात्मा की तरफ मोड़ा जा सकेगा |इसको अर्थात् अभ्यास से भी अगर मन और बुद्धि को नियंत्रित न कर सको तो जो भी कर्म करो ,मेरे निमित्त करो |यह मानो कि कर्म परमात्मा के लिए कर रहा हूँ |कर्मों में कर्तापन का भाव नहीं होना चाहिए |जब व्यक्ति में कर्तापन का भाव नहीं होगा तो किये गए कर्म स्वतः ही नष्ट हो जायेंगे |इस के सिद्ध होते ही परमात्मा को पाया जा सकता है |
अगर व्यक्ति उपरोक्त तीनों साधन करने में अपने को सक्ष्म नहीं समझता तो परमात्मा उसे अंतिम मार्ग समझाते हुए कहते हैं कि तुम अगर मेरे लिए भी कर्म करने में अपने आप को असमर्थ पते हो तो अपनी बुद्धि और मन पर नियंत्रण करने वाला बन |ऐसा कर पाने से व्यक्ति कर्मफल का त्याग करने वाला बन जायेगा |जो भी कर्मफल उसे प्राप्त होगा ,उसे हरि इच्छा मानते हुए स्वीकार कर लेगा |इसी को कर्मफल का त्याग करना कहते हैं |इसमे व्यक्ति कर्म तो सकाम ही करता है परन्तु कर्मफल के प्रति मोहित नहीं होता है |उदाहरणार्थ एक विद्यार्थी परीक्षा की तैयारी,सफल होने के लिए करता है |यह सकाम कर्म हुआ |लेकिन तैयारी के दौरान वह अगर कर्मफल के प्रति मोहित हो गया तो सफल होने पर उसे अत्यधिक खुशी मिलेगी और असफल होने पर उसे अपार दुःख का अनुभव होगा |अगर तैयारी करते समय वह कर्मफल से मोहित नहीं होता है,यानि सफलता या असफलता के बारे में नहीं सोचता है तो यह कर्मफल का त्याग कहलाता है |अब अगर वह परीक्षा में परिणाम स्वरुप सफल हो जाता है तो उसे अत्यधिक खुशी भी नहीं होगी तथा असफल होने पर अत्यधिक दुःख भी नही होगा |वह इस परिणाम को हरि इच्छा मानकर स्वीकार कर लेगा |
उपरोक्त चारों ही साधनों में मन और बुद्धि पर व्यक्ति का नियंत्रण होना आवश्यक है |अगर व्यक्ति इन दोनों पर नियंत्रण नहीं कर सकता तो कोई भी साधन आपको साध्य यानि परमात्मा तक ले जाने में असमर्थ होगा |
क्रमश :
|| हरिः शरणम् ||
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