Saturday, December 31, 2016

भूमिका-3

            अपने जीवन में किसी के प्रति मोह को पैदा करना कोई नई बात नहीं है | नई बात तो तब होगी, जब आप इस मोह के चक्रव्यूह को भेद डालें और मुक्त हो जाएँ | मोह ही सब दुःखों की जननी है | गोस्वामीजी मानस में कहते हैं-'मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला ' अर्थात मोह सभी रोगों की जड़ है | पुत्र-मोह के कारण ही द्रोणाचार्य ने महाभारत जैसे निर्णायक युद्ध में हथियार डालकर निहत्थे हो गए थे जिसे अवसर मानकर उनके ही मित्र द्रुपद के पुत्र  ने उनका वध कर दिया | द्रोणाचार्य भली-भांति जानते थे कि उनके पुत्र अश्वत्थामा को चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है, अतः कोई भी व्यक्ति उसका वध कर ही नहीं सकता | युधिष्ठिर का कथन 'अश्वत्थामा हतो नरो ना कुंजरो' को उन्होंने पूर्ण रूप से सुना ही नहीं | पुत्र-मोह के कारण उनकी स्मृति भी जवाब दे गयी थी अन्यथा वे अश्वत्थामा के चिरंजीवी होने की बात को विस्मृत कैसे होने देते ? इस उदाहरण से स्पष्ट है कि मोह स्मृति को भी ढक लेता है |
                   स्मृति के लोप होजाने के कारण व्यक्ति के मन में संशय पैदा हो जाता है, वह द्वंद्व में उलझ जाता है, जैसा कि द्रोणाचार्य के मामले में हुआ था | जब युद्धभूमि में शोर हुआ कि अश्वत्थामा मारा गया तो स्मृति लोप के कारण आचार्य द्रोण भी संशयग्रस्त हो गए | फिर भी समाचार की सत्यता परखने के लिए उन्होंने धर्मराज के कथन का सहारा लिया | जब धर्मराज युधिष्ठिर अश्वत्थामा हाथी के मरने कि आड़ में जोर से कह दिया कि 'अश्वत्थामा मारा गया....' इतना सुनते ही वे शोक ग्रस्त हो गए और युद्धभूमि में उन्होंने अपने हाथ से हथियार डाल दिए | इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मोह, स्मृति को भी नष्ट कर डालता है और व्यक्ति द्वंद्व में पड जाता है |
                मोह, ममता और आसक्ति के कारण ही सकाम-कर्म होते हैं क्योंकि ममत्व के कारण व्यक्ति अपने प्रिय को बचाने के लिए, उस मोह को और अधिक ऊंचाई तक पहुँचाने के लिए स्वयं को कर्ता समझ कर्म करता है | इस मोह को नष्ट करने के लिए कर्मों के स्वरुप में परिवर्तन करना आवश्यक है | कर्म का स्वरुप कैसे परिवर्तित किया जा सकता है, यही बात गीता में स्पष्ट की गयी है |संसार का मोह, भौतिक शरीर का मोह,इन्द्रिय विषयों से प्राप्त सुख का मोह, संतान के प्रति मोह, वस्तुओं और स्थान के प्रति मोह आदि सभी मोह एक प्रकार का बंधन पैदा करते हैं जिससे बंध कर व्यक्ति विभिन्न प्रकार के कर्म करने को बाध्य होता है | मोहरहित व्यक्ति अर्थात अनासक्त मनुष्य को कोई बांध नहीं सकता जिस कारण से उसके लिए कर्तव्य-कर्म करते रहना भी कर्म न करने के समान है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं -
                  किं कर्म किमकर्मेति कवयोSप्यत्र मोहिताः |
                  तत्ते कर्म पर्वक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेSशुभात् || गीता-4/16 ||
     अर्थात कर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाता है | इसलिए वह कर्म तत्व मैं तुझे भलीभांति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू कर्मबंधन से भी मुक्त हो जायेगा |
            इसी गीता से भगवान् श्री कृष्ण की वाणी को विज्ञान के परिपेक्ष्य में प्रस्तुत करने का एक प्रयास हाथ में लेने जा रहा हूँ | आचार्य श्री का मार्गदर्शन और पूर्वजों का आशीर्वाद  मेरे साथ सदैव है | कृपया समय-समय पर अपनी प्रतिक्रिया प्रस्तुत कर मेरा मार्गदर्शन करते रहें |
                    सर्वदेशीय सर्वमान्य आंग्ल नव वर्ष 2017 की शुभ कामनाएं |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
कल से एक नई श्रृंखला-'गुण-कर्म विज्ञान' (Science of properties and act)  

Friday, December 30, 2016

भूमिका-2

              कल मैंने गीता के 18/73 श्लोक का जिक्र किया था , जो कि भगवान् श्री कृष्ण से ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद अर्जुन द्वारा कहा गया है | गीता में ही द्वितीय अध्याय से अर्जुन की सभी बातें ध्यान पूर्वक सुनकर भगवान् श्री कृष्ण ने बोलना प्रारम्भ किया है |इससे पूर्व विषाद योग नामक प्रथम अध्याय में अर्जुन ने युद्ध करने से होने वाली क्षति के बारे में बताते हुए भगवान् श्री कृष्ण को युद्ध न करने का कह दिया था | अनपेक्षित को सुनकर भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से प्रतिप्रश्न कर रहे हैं कि -
              कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |
              अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन          || गीता-2/2 ||
हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस कारण से प्राप्त हुआ है ? क्योंकि यह मोह न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न ही प्रसिद्धि दिलाने वाला है |
            समस्त गीता शास्त्र मोह को दूर करने के प्रयास पर ही आधारित है | गीता के 2/2 में श्री भगवान् उवाच से प्रारम्भ हुआ ज्ञान, गीता के 18/72 पर आकर समाप्त होता है, जिसको प्राप्त कर 18/73 में अर्जुन मोह मुक्त हो जाता है | इस प्रकार मोह को दूर करने के लिए भगवान् श्री कृष्ण ज्ञान, ध्यान,कर्म, भक्ति और सन्यास मार्ग का विस्तृत रूप से विवेचन करते हैं  फिर भी गीता को कर्म-योग का शास्त्र कहा जाता है | इसका कारण जानने के लिए हमें सर्वप्रथम यह जानना होगा कि मोह क्या है ?
                 मोह उस तथाकथित प्रेम का नाम है, जो स्वार्थ पर आधारित होता है | वास्तविक प्रेम में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं होता है | प्रायः हम मोह को प्रेम समझने की भूल करते हैं | मोह, ममता और आसक्ति लगभग समानार्थी शब्द हैं | किसी भी वस्तु, विषय, स्थान और व्यक्ति में मोह रखना, उसके प्रति ममता पैदा करता है |ममता आसक्ति को जन्म देती है और यह आसक्ति व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के कर्म करने को बाध्य करती है | कर्म से फिर मोह, ममता और आसक्ति शनैः शनैः बढ़ते हुए दृढ होती जाती है | मोह अर्थात आकर्षण, से ममत्व अर्थात मेरापन पैदा होता है | वह 'मेरा' कहीं किसी दूसरे का न हो जाये, कहीं मेरे से दूर न हो जाये, कहीं खो ना जाये , यह विचार ही मन में पैदा होना ही उस स्थान, विषय,वस्तु तथा व्यक्ति में आसक्त होना है | आसक्त अर्थात उसके साथ एक प्रकार के लगाव का हो जाना | इस अवस्था में व्यक्ति अपने मोह के कारण सदैव के लिए उसको अपना बनाये रखने के लिए कर्म करता है | ऐसा कर्म फिर मोह को दृढ करता है | इस प्रकार यह मोह, ममता,आसक्ति, कर्म और फिर मोह का एक अभेद्य चक्रव्यूह बन जाता है, जिससे मनुष्य मृत्यु पर्यंत बाहर नहीं निकल पाता और केवल शरीर की ही मृत्यु नहीं बल्कि कई पुनर्जन्म ले कर भी उसी मोह के जाल से बाहर नहीं आ पाता और बार-बार उसमें फंस ता रहता है |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, December 29, 2016

भूमिका -1

           कई मित्रों का सुझाव है कि 'जब इस  संसार में कर्म ही प्रधान है और कर्म के अतिरिक्त जितनी भी बातें कही जा रही है सब का सम्बन्ध कर्म से ही है तो क्यों न आप कर्म को थोडा और अधिक स्पष्ट करें ?' मेरे बुद्धिमान मित्रों का कहना है कि विज्ञान और कर्म का जो आपस में सम्बन्ध है वह अभी भी एक आम व्यक्ति को स्पष्ट नहीं है | जब तक कर्म को आधुनिक विज्ञान के अनुसार स्पष्ट नहीं किया जायेगा तब तक नई पीढ़ी का शास्त्रों के प्रति आकर्षण पैदा करना असंभव है | मैं विगत 20 वर्षों से इस अभियान में रत हूँ कि जैसे भी हो भुला दिये गए इस ज्ञान को अपने भावी वंशजों को पुनः याद दिला सकूँ |द्वापर के अंत में अर्जुन जैसा महान व्यक्तित्व भी इस ज्ञान से कोसों दूर जा चूका था जिसे पुनः इस ज्ञान की मुख्य धारा में लाने के लिए भगवान् श्री कृष्ण को गीता कहनी पड़ी थी | आज साक्षात् भगवान श्री कृष्ण तो हमारे समक्ष नहीं है, परन्तु उनके द्वारा कहे गए शब्द गीता के रूप  में हमारे सामने अवश्य हैं | आवश्यकता है , गीता में कहे गए एक एक शब्द का हम गहराई में जाकर विश्लेषण करें जिससे हमारा वर्तमान और भावी जीवन आनंददायक बन सके |
                           भगवान श्री कृष्ण से ज्ञान पाकर अर्जुन को सब कुछ स्पष्ट हो गया था और उन्होंने अपना स्वाभाविक कर्म करने के लिए गांडीव उठा लिया था |
                                 नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
                                 स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || गीता-18/73 ||
अर्जुन समस्त कर्म सिद्धांत को भगवन श्री कृष्ण से भलीभांति समझने के उपरांत कह रहे हैं कि हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है | अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ , अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |
                    इस श्लोक में मोह और स्मृति के साथ साथ संशय की बात कही गई है | मोह,स्मृतिलोप और संशय ही आज की पीढ़ी को दिग्भ्रमित किये हुए हैं | जब तक उनका पाश्चात्य संस्कृति के विकारों से मोह भंग नहीं होगा तब तक न तो उनका संशय दूर होगा और न ही पुनः स्मृति को प्राप्त हो सकेंगे | इस मोह को गीता ही दूर कर सकती है, ऐसा मेरा मत है |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, December 28, 2016

ग्रहण-4 समापन कड़ी

शास्त्रों में वर्णित कथा का मर्म-

          समुद्र मंथन के बाद अमृत निकला, श्री नारायण मोहिनी का रुप धारण कर जब अमृत को देवताओं को बाँटना प्रारम्भ किया तभी राहु सूर्य और चन्द्र के मध्य छल पूर्वक आकर बैठ गया जिसे प्रभू ने जान लिया किन्तु पंक्ति भेद न हो इसलिए राहु को भी अमृत पिला दिया । परमात्मा का यह नियम है कि कभी भी पंक्ति भेद नहीं करना चाहिए ।
      जब इन्द्रादि देवों को अमृत मिल रहा था तब राहु नहीं आया किन्तु जब सूर्य - चन्द्र को अमृत मिल रहा था तभी वहाँ राहु आ पहुँचा । मन का स्वामी चन्द्र है । मन चन्द्र का स्वरूप है । बुद्धि का स्वामी सूर्य है । सूर्य बुद्धि का स्वरूप है । राहु है विषयानुराग अर्थात विषयों का चिंतन |
          जब तक हाथों से, जीभ से (इन्द्रियों आदि से) मनुष्य भक्ति करता है तब तक विषयरुपी राहु बाधा डालने नहीं आता किन्तु जब मनुष्य मन से बुद्धि से ईश्वर का ध्यान करने लगता है तो विषयरुपी राहु बाधा डालने आ जाता है । मन और बुद्धि को ईश्वर में लगाया नहीं कि विषय रुपी राहु बाधक बनकर आया समझो । जब मन, बुद्धि को भक्तिरुपी अमृत मिलने लगता है तो विषयरुपी राहु से देखा नहीं जा सकता और वह विघ्न डालने आ जाता है ।
          नारायण ने राहु के सिर को सुदर्शन चक्र चलाकर उड़ा दिया अर्थात सुदर्शन चक्र - ज्ञानरूपी सुदर्शन चक्र से विषयी राहु का नाश किया जाये किन्तु मात्र ज्ञान और बुद्धि से विषय राहु मरता नहीं है । ज्ञान और बुद्धि का अधिक विश्वास भी नहीं करना चाहिए । अकेले ज्ञान से कुछ भी नहीं हो सकता क्योंकि वैसे तो राहु अमर है । जब तक किसी सच्चे संत की कृपा नहीं मिल पाती विषय राहु नहीं मरता । मात्र ज्ञान से विषयों का नाश नहीं हो पाता । ईश्वर के अनुग्रह से ही मन निर्विषयी होता है । भगवान की कृपा के बिना मन निर्विषयी नहीं हो सकता । ज्ञान का आश्रय लेकर भी अति दीन बनने पर ही परमात्मा कृपा करके विषय राहु को मारेंगे । मात्र ज्ञान से ही निर्विषयता नहीं हो पाती । ईश्वर की कृपा से निर्विषयता आती है -
         "रसवर्जँ रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।"(गीता-2/59)
परमात्मा की कृपा और साक्षात्कार से ही विषयासक्ति और विषयानुरागिता में से मन निवृत्त हो पाता है । दैत्य भगवान से विमुख थे अतः उन्हें अमृत नहीं मिला क्योंकि वे मोहिनी के चक्कर में फँस गये थे । संसार भी मोहिनी स्वरूप है, इसमें फँस जाने पर भक्ति रुपी अमृत कभी भी नहीं मिलेगा ।
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, December 27, 2016

ग्रहण-3

ग्रहण-3
ग्रहण का महत्त्व -
       सूर्य को आभायुक्त और संसार को प्रकाशित करने वाला कहा गया है | इसी कारण से हम इसे सूर्य भगवान कह कर पुकारते हैं | सूर्य साक्षात् परमात्मा का ही स्वरूप है | सूर्य  को बुद्धि का स्वामी भी कहा जाता  है | बुद्धि ही हमारे शरीर को एक प्रकार की आभा प्रदान करती है |
       पृथ्वी से हमारा शरीर बना है और उसी से हम पोषित होते हैं | गीता में भी भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कई स्थानों पर पार्थ कहकर पुकारते हैं, जिसका अर्थ है पृथा अथवा पृथ्वी पुत्र | पृथा कुंती का भी एक नाम है और पृथा पृथ्वी को भी कहते हैं | हम पृथ्वी-पुत्र हैं अतः यह हमारा शरीर ही पृथ्वी से निर्मित होने के कारण पृथ्वी ही कहा जा सकता है | कई महात्माओं ने इस शरीर को मिट्टी की उपमा भी इसीलिए दी है | मिट्टी से ही पैदा होना और मिट्टी में ही मिल जाना |
       चंद्रमा को मन का स्वामी कहा गया है अतः यह चंद्रमा हमारे मन का ही प्रतीक है | बुद्धि की तरह ही मन हमारे शरीर में अवस्थित है | चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी दोनों की परिक्रमा करता है परन्तु वह सूर्य की तुलना में पृथ्वी के अति निकट है | इसी प्रकार मन भी बुद्धि और शरीर दोनों के ही अनुसार संचालित होता है परन्तु भौतिक शरीर के वह अधिक निकट है |
         इस प्रकार यह सूर्य, हमारी बुद्धि है, मन चन्द्रमा है और इन्द्रियों सहित यह हमारा भौतिक शरीर पृथ्वी हुए | सूर्य-ग्रहण के दिन सूर्य और पृथ्वी के मध्य चंद्रमा आ जाता है और सूर्य दिखाई नहीं देता अथवा खंडित दिखाई देता है तथा उसका प्रकाश पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाता है | इसी प्रकार जब पृथ्वी (शरीर) और सूर्य (बुद्धि) के मध्य यह चंद्रमा (मन) आ जाता है तब हमारी बुद्धि मन के प्रभाव के कारण कार्य नहीं कर पाती है अथवा सूर्य के खंडित रूप की तरह मन पर प्रभावी नहीं रह पाती है | चन्द्र-ग्रहण की स्थिति में इस सूर्य (बुद्धि) और चंद्रमा (हमारा मन) के मध्य पृथ्वी (इन्द्रियों सहित यह भौतिक देह) आ जाती है तब चन्द्रमा (मन) का आलोक क्षीण हो जाता है अर्थात जब हमारी बुद्धि का मन पर  अधिक प्रभाव हो जाता है तब यह कहा जा सकता है कि हमने अपनी इन्द्रियों और मन को नियंत्रित कर लिया है | हमें अब अपनी बुद्धि के ही प्रकाश को देखना है, अपने विवेक का ही उपयोग करना है | मन कभी भी स्वयं से प्रकाशित नहीं है, उसका स्वयं का प्रकाशित होना मान लेना असत्य है | मन या तो हमारी बुद्धि के अनुसार चलता है अथवा हमारी इन्द्रियों और शरीर के अनुसार | अगर हमारे मन पर इन्द्रियों सहित शरीर का प्रभाव अधिक हुआ तो मन इस भौतिक शरीर के अनुसार चलेगा और अगर बुद्धि का उस पर अधिक प्रभाव हुआ तो फिर उसे बुद्धि और विवेक के अनुसार चलना होगा |

           कहने का अर्थ यह है कि सूर्य-ग्रहण और चन्द्र ग्रहण भले ही भौगोलिक और अन्तरिक्ष में घटित होने वाली घटनाएँ मात्र हो, हमारे पूर्वजों ने इनके माध्यम से हमें कुछ सन्देश देने का प्रयास किया है | इसीलिए पूर्वजों ने सूर्य को बुद्धि का स्वामी, चन्द्रमा को मन का स्वामी और पृथ्वी को हमारी माँ कहा है | हमारे खगोल शास्त्रियों ने खगोल विज्ञान में इन खगोलीय घटनाओं का प्रभाव हमारे शरीर, बुद्धि और मन पर किस प्रकार पड़ता है, का सटीक विश्लेषण करते हुए विस्तृत रूप से वर्णन तक किया है |
क्रमशः 
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

Monday, December 26, 2016

ग्रहण-2

विज्ञान की दृष्टि में सूर्य और चन्द्र-ग्रहण-

   विज्ञान कहता है कि जब सूर्य  और पृथ्वी के बीच भ्रमण करता हुआ चंद्रमा आ जाता है, तो सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाता | इस स्थिति को सूर्य-ग्रहण कहा जाता है | यह स्थिति केवल अमावस्या के दिन ही बनने की सम्भावना रहती है, अन्य किसी दिन नहीं | इसी प्रकार जब कभी पृथ्वी अपने भ्रमण-मार्ग पर चलते हुए चंद्रमा और सूर्य के बीच आ जाता है, तब सूर्य का प्रकाश चंद्रमा तक नहीं पहुँच पाता और वह कांतिहीन दिखाई पड़ता है | इसी को चन्द्र-ग्रहण होना कहते हैं और यह केवल पूर्णिमा के दिन ही हो सकता है; अन्य किसी दिन नहीं |
क्रमशः 
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् || 

Sunday, December 25, 2016

ग्रहण-1

ग्रहण –1
               हिंदी का शब्द “ग्रहण” | इसका उपयोग जिस स्थान पर और जिस परिस्थिति में किया जाता है, इसका अर्थ उसी अनुरूप हो जाता है | ‘पाणिग्रहण’ शब्द सुनते ही आपके समक्ष एक विवाह समारोह का दृश्य उपस्थित हो जाता है और ‘ग्रहण-शक्ति’ सुनते ही आप सामने वाले या स्वयं की कुछ प्राप्त करने की क्षमता की कल्पना करने लगते हैं | सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण सुनते ही सूर्य या चंद्रमा के खंडित दिखाई देने का दृश्य आपको अपने भीतर दृष्टिगोचर होने लगता है | यह शब्द मुख्यतः कुछ प्राप्त  करने की क्षमता के लिए प्रयोग में लिया जाता है परन्तु जब यह किसी अन्य शब्द के साथ संयुक्त हो जाता है, तब इसका अर्थ बदल जाता है |
           मैं कोई हिंदी का प्राध्यापक नहीं हूँ और न ही हिंदी का विद्वान | इस शब्द की ओर जब ध्यान दिया तब जो भी विचार मेरे मन में आये, वे मैंने आपके समक्ष व्यक्त किये हैं | मैं बात कर रहा हूँ उस शब्द ग्रहण की. जिसका उपयोग हम जिंदगी में प्रारंभ से करते आ रहे हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे | जब हमें अपने उद्देश्य में निश्चित सफलता  प्राप्त नहीं होती, तब हम कहते हैं कि हमारी अक्ल को ग्रहण लग गया और कभी कहते हैं कि किस्मत को ही जब ग्रहण लगा हुआ था तब हम कर ही क्या सकते हैं ? इस ग्रहण शब्द का वही अर्थ हो जाता है जो सूर्य और चंद्रमा के साथ लगने पर होता है | सूर्य या चन्द्र ग्रहण में इन दोनों की कांति क्षीण होती है, उसी प्रकार दैनिक जीवन में ग्रहण शब्द व्यक्ति की कमजोर मानसिकता को ही प्रदर्शित करता है |
              आइये, अब मुख्य विषय की ओर चलते हैं | सूर्य और चन्द्र के खंडित दिखाई देने को उस पर ग्रहण लगना ही क्यों कहते हैं ? अंग्रेजी भाषा में वह शब्द ग्रहण का अर्थ होता है To receive और इस सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण को Eclipse कहा जाता है | परन्तु हिंदी में प्राप्त हो जाने को भी ग्रहण होना कहते हैं और सूर्य व चन्द्र के खंडित होने  को भी ग्रहण होना कहते हैं | आज हम चर्चा करेंगे, उस  ग्रहण की, जो सूर्य अथवा चन्द्रमा पर लगता है | इस सूर्य और चन्द्र-ग्रहण का सम्बन्ध विज्ञान से भी है और ज्ञान से भी | मैंने पूर्व के लेखों में अपनी यह भावना अनेकों बार व्यक्त की हैं कि हमारे वैदिक शास्त्रों में सभी बातें केवल कपोल-कल्पित नहीं है, बल्कि उनके पीछे कोई न कोई मर्म अवश्य छुपा है  और यही बात सूर्य और चन्द्र-ग्रहण के बारे में कहने जा रहा हूँ | कृपया ध्यान दीजिये, मैं वह बात कहने जा रहा हूँ जो आज विज्ञान कह रहा है और पूर्व में हमारे पूर्वजों ने इसको आध्यात्मिक दृष्टि से शास्त्रों में लिख दिया था |
क्रमशः 
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 

Saturday, December 24, 2016

आलोक-अनुभूति-7 अंतिम कड़ी

आलोक-अनुभूति-7 अंतिम कड़ी
तीसरा व अंतिम प्रश्न-
हम केवल आत्म-केन्द्रित होकर अपने स्वार्थ के लिए उच्च अवस्था को उपलब्ध होना चाहते हैं, क्या ऐसा करना हमारा स्वार्थ पूर्ण उद्देश्य नहीं है ? जबकि परमात्मा ने श्री कृष्ण के रूप में सदैव संसार की भलाई के लिए कार्य किया था |
सत्य है यह बात | स्वार्थ चाहे भौतिकता का हो अथवा आध्यात्मिकता का, दोनों ही अनुचित है | स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति की सहायता करना आपका नैतिक कर्तव्य है | शारीरिक सहायता अर्थात भौतिक सहायता को उन्होंने निम्नतम स्तर का कर्म बताया है | वे कहते हैं कि आप भूखे व्यक्ति की सहायता करके उसे एक बार के लिए भोजन उपलब्ध करवा सकते हैं परन्तु थोड़े समय बाद उसे फिर भूख सताएगी | सदैव के लिए आप उसे तृप्त नहीं कर सकते | मध्यम दर्जे की सहायता बौद्धिक सहायता है, जब आप उसे भूख शांत करने का उपाय करने का ज्ञान देते हैं जिससे वह समर्थ हो जाये | उच्चतम स्तर की सहायता आध्यात्मिक सहायता है, जिसको पाकर व्यक्ति सदैव के लिए तृप्त हो जाता है | अतः जब आप उस उच्च अवस्था को प्राप्त कर लें तो फिर बौद्धिक कर्म और आध्यात्मिक कर्म करते हुए परमार्थ में लग जाएँ परन्तु ध्यान रखें उसके पीछे किसी भी प्रकार की कोई कामना न हो |
आत्म-बोध को प्राप्त होकर अगर आप स्वयं तक ही सीमित हो कर रह जाते हैं, तो यह भी अनुचित है | आपने जो प्राप्त किया है, उसे अन्यों को राह दिखाने के लिए उपयोग में लें अन्यथा आप स्वार्थी कहलायेंगे | आपका उदाहरण दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत बने, तभी इसकी सार्थकता है |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, December 23, 2016

आलोक-अनुभूति-6

आलोक-अनुभूति-6 
दूसरा प्रश्न-
क्या परमात्मा को प्राप्त करना एक कामना नहीं है ?
यह सत्य है कि परमात्मा को प्राप्त करने की इच्छा रखना भी एक कामना है | शत प्रति शत सत्य है, ऐसा कहना | परमात्मा को पाने के लिए प्रथमतः तो अशुभ कामना का सर्वथा त्याग करना पड़ता है और शुभ कामना को धारण करना होता है | परमात्मा किसी भी उस व्यक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता जिसके मन में किसी भी प्रकार की कोई कामना शेष है | अशुभ कामना से शुभ कामना की और प्रस्थान करना परमात्मा को प्राप्त करने की राह का एक कदम मात्र है | परमात्मा को प्राप्त करने के लिए अंत में इस शुभ कामना को भी त्याग देना होता है |
परमात्मा को प्राप्त करने की कामना मन में पैदा होने में मुख्य भूमिका बुद्धि की रहती है | मन पर बुद्धि का नियंत्रण ही अध्यात्म की यात्रा है | मन पूरा प्रयास करता है, बुद्धि को पुनः अपने नियंत्रण में लेने का | इस कार्य में सांसारिक सुख और पारिवारिक परिदृश्य उसे सहयोग करता है | इसीलिए यह आवश्यक है कि मन में ऐसी किसी भी कामना को स्थान न मिले जो आपको परमात्मा से विमुख कर पुनः संसार में लौटा लाये | अतः प्रारम्भ काल में मन में सांसारिक कामना के स्थान पर परमात्मा को प्राप्त करने की कामना रखना अनुचित नहीं है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, December 22, 2016

आलोक-अनुभूति-5

आलोक-अनुभूति-5
मनुष्य की बुद्धि मन और आत्मा के मध्य स्थित है | बुद्धि अगर मन के अनुसार कार्य करती है, तब वह भौतिकता का विकास करती है और मनुष्य को विभिन्न प्रकार के बंधनों में बाँध देती है | इन बंधनों के कारण वह एक क्या, सहस्रों मानव जन्म लेने तक भी मुक्त नहीं हो सकता | यही बुद्धि जब मन का परित्याग कर अपनी आत्मा के अनुसार कार्य करने लग जाती है, तब ही मनुष्य का वास्तविकता में विकास हो पाता है | आत्म-बोध (Self Realization) होते ही समस्त कामनाओं का नाश हो जाता है और एक ही मनुष्य जीवन में व्यक्ति तत्काल मुक्त हो सकता है-जीवन-मुक्त अर्थात विदेह, राजा जनक की तरह |
इस प्रकार प्रथम प्रश्न के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का वास्तविक विकास आध्यात्मिक विकास है, न कि भौतिक विकास | बुद्धि व्यक्ति के मन के अनुरूप चलती है तो भौतिक विकास होता है और आत्मा के अनुसार चलती है तो आध्यात्मिक विकास | कामना का भौतिक विकास से संबंध अवश्य है परन्तु व्यक्ति को अपने आध्यात्मिक विकास के लिए प्रत्येक कामना का त्याग करते हुए निर्विचार होना आवश्यक है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, December 21, 2016

आलोक-अनुभूति-4

आलोक-अनुभूति-4
इस प्रथम प्रश्न का तीसरा भाग है, बुद्धि से सम्बंधित | बुद्धि का सम्बन्ध अवश्य ही मानव मस्तिष्क से है | विज्ञान कहता है कि सृष्टि के विकास के साथ ही मनुष्य की बुद्धि का विकास भी होता है | यदि इस बात को सत्य मान भी लिया जाये तो फिर यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों की बुद्धि का विकास क्यों नहीं हो पाया ? कुछ समय के लिए अगर हम विज्ञान को एक तरफ रख कर ज्ञान की दृष्टि से देखें तो जान पाएंगे कि प्रत्येक मानव जन्म में की गई कामनाओं को पूरा करने के लिए ही जन्म दर जन्म मनुष्य की बुद्धि का विकास हुआ है | मनुष्य को छोड़कर किसी भी अन्य प्राणी के सम्पूर्ण जीवन काल में कभी भी उसके भीतर किसी भी प्रकार की कामना पैदा ही नहीं होती है | इस कारण से उनकी बुद्धि का विकास नहीं हो सका | बुद्धि के विकास के लिए मन में कामना का जन्म लेना आवश्यक है |
हमारे ऋषि-मुनि कहते हैं कि प्रत्येक कामना का पूर्ण होना केवल उस एक जन्म में होना असंभव है जिस जन्म में वह कामना की गई है तथा साथ ही साथ यह भी सत्य है कि जीवन में एक कामना पूरी होते ही कई नई कामनाएं जन्म लेती रहती है | इस प्रकार प्रत्येक कामना की पूर्ति के लिए कई जन्म लेने आवश्यक हैं और उन कामनाओं को पूर्ण करने के लिए बुद्धि का भी विकसित होना आवश्यक है | इसी कारण से मनुष्य समय और कामना के अनुरूप अपनी बुद्धि को विकसित करता चला गया | यह प्रक्रिया आदिकाल से सतत चलती आ रही है और आज भी मनुष्य की विकसित हुई बुद्धि कामनाओं को पूरा करने में ही लगी हुई है और वह उसका सतत उपयोग भी कर रहा है | अब यह उसके विवेक पर निर्भर है कि वह इस बुद्धि का उपयोग भौतिकता के लिए करता है अथवा आध्यात्मिकता के लिए |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, December 20, 2016

आलोक-अनुभूति-3

आलोक-अनुभूति-3
कामना और मनुष्य का साथ आज से नहीं है बल्कि जब से मनुष्य का इस धरा पर आगमन हुआ है, तब से ही है | इनका आपस का साथ दिन प्रतिदिन प्रगाढ़ ही होता जा रहा है | कामना करना कहीं से भी अनुचित नहीं है बल्कि कामना किस प्रकार की है, यह अधिक महत्वपूर्ण है | कामना दो प्रकार की होती है-शुभ और अशुभ | शुभ कामना में व्यक्ति का निजी स्वार्थ नहीं होता, किसी को दुःख देने की भावना नहीं होती बल्कि मन में परमार्थ की भावना होती है जबकि अशुभ कामना व्यक्ति के केवल निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए होती है |
प्रत्येक कामना से कर्म जुडा रहता है | कामना है तो कर्म भी होगा और कर्म होंगे तो उनका परिणाम भी अवश्य मिलेगा और अगर कर्म का परिणाम प्राप्त करना ही है तो इस संसार में पुनः आना भी होगा | अशुभ कामना (Greed) सकाम कर्म कराती है और शुभ कामना (Good wishes) निष्काम कर्म | फल तो दोनों प्रकार के ही कर्मों का मिलना अवश्यम्भावी है | निष्काम–कर्म में परमार्थ की कामना होती है और सकाम कर्म में स्वार्थ की | बिना कामना के किसी भी प्रकार के कर्म का होना असंभव है | निष्काम–कर्म जब अकर्म बन जाते हैं तभी उनका फल प्राप्त नहीं होता | अकर्म वे कर्म होते हैं, जो बिना किसी कामना के किये जाते हैं और जिनको व्यक्ति अपने द्वारा किया हुआ न मानकर प्रकृति के गुणों द्वारा हुआ मानता है | मनुष्य कामना को विकास का आधार मानता है | हाँ, यह एक प्रकार से भौतिक विकास का आधार अवश्य है परन्तु भौतिक विकास को मनुष्य का वास्तविक विकास नहीं माना जा सकता | अशुभ कामना व्यक्ति को सुख-दुःख के संसाधन उपलब्ध करवा सकती है जबकि शुभ कामना आनन्द को | मनुष्य को अपने आध्यात्मिक विकास, जो कि वास्तविकता में उसका विकास है, के लिए सभी प्रकार की कामनाओं को त्यागना होगा क्योंकि कामनाएं बंधन पैदा करती है, कर्म-बंधन को | विकास बंधन में बंधे रहकर नहीं हो सकता, मनुष्य का विकास तो उसके मुक्त होने में ही है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, December 19, 2016

आलोक-अनुभूति-2

प्रथम प्रश्न -.
मैं असमंजस में हूँ कि अगर कोई व्यक्ति नई खोज के लिए कामना नहीं रखता है, कुछ नया करने का विचार उसके मन में पैदा नहीं होता है तो ऐसे में सम्पूर्ण मानव जाति का विकास कैसे होगा ? परमात्मा ने हमें बुद्धि दी, हमें इसका उपयोग क्यों नहीं करना चाहिये अन्यथा वह हमें बुद्धि ही क्यों देता ?
इस प्रश्न के तीन भाग हैं –विकास, कामना और बुद्धि | मानव के विकास के बारे में मैं कहना चाहूँगा कि कामना और मानव जाति के विकास में कोई गहरा सम्बन्ध नहीं है | हाँ, एक सीमा तक कामना रखकर संसार के भले के लिए कुछ किया जा सकता है परन्तु ऐसे को हम विकास नहीं कह सकते | आइन्स्टीन ने परमार्थ के लिए आणविक ऊर्जा के लिए सापेक्षता का सिद्धांत प्रतिपादित किया था | क्या उससे मानव का विकास हुआ है ? सुख के साधन जुटा लेना अथवा अत्यधिक मारक क्षमता के आयुध बना लेना कोई विकास नहीं है | आणविक ऊर्जा तो प्रत्येक पदार्थ में इस ब्रह्माण्ड के बनने के प्रारम्भ काल से ही है | आइन्स्टीन ने इस ऊर्जा को व्यक्त करने का उपाय खोज निकाला | सेव पेड़ से जमीन पर प्रारम्भ से ही गिरते आ रहे हैं परन्तु न्यूटन ने विचार करके गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को संसार के सम्मुख स्पष्ट कर दिया | इस सिद्धांत के आधार पर हमने इस संसार से बाहर अन्य ग्रहों की यात्रा प्रारम्भ कर दी परन्तु इससे मानव का कितना विकास हुआ ? वास्तव में विश्लेषण करें तो पाएंगे कि अभी तक विकास के नाम पर विनाश की ओर ही अग्रसर हुए हैं हम | इसलिए मैं यह कह रहा हूँ कि कामना और मानव के विकास का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि केवल भौतिक विकास को ही विकास कहना अनुचित है |
मानव का विकास तभी होगा जब प्रत्येक मनुष्य अपने आपको आध्यात्मिक रूप से विकसित करेगा | जिस दिन प्रत्येक व्यक्ति आत्मिक रूप से विकसित हो जायेगा उस दिन ही सही मायने में इस संसार का विकास होगा | मनुष्य का विकास होगा आध्यात्मिक उत्थान से, भौतिक उत्थान से नहीं | बुद्धि का उपयोग कर मनुष्य इस विकास की ऊँचाइयों को छू सकता है | अब आते हैं, कामना के विषय पर | कामना को जाने बिना हम कर्म को नहीं जान पाएंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, December 18, 2016

आलोक-अनुभूति-1

आलोक-अनुभूति-1 
मेरे अवकाश पर जाने से पूर्व कुछ मित्रों ने मेरी post पढ़कर कुछ प्रश्न किये थे | समयाभाव के कारण उनके उत्तर मैं तत्काल नहीं दे सका, क्षमाप्रार्थी हूँ | उन्हीं मित्रों में से मेरे एक मित्र हैं डॉ. आलोक गुप्ता | हम दोनों ने एक साथ ही बीकानेर मेडिकल कालेज से चिकित्सकीय शिक्षा प्राप्त की थी | फिर राजकीय सेवा में रहते हुए उनकी नियुक्ति जब तक रतनगढ़ में रही, तब तक बराबर मिलना होता रहता था | आजकल वे जोधपुर हैं और फेसबुक के माध्यम से हमारा संपर्क बना हुआ है | ‘न करोति न लिप्यते’ पर मेरी अंतिम post पढकर उन्होंने कुछ जिज्ञासा प्रकट की है | उन्होंने तीन प्रश्न किये हैं | जो इस प्रकार हैं-
1. मैं असमंजस में हूँ कि अगर कोई व्यक्ति नई खोज के लिए कामना नहीं रखता है, कुछ नया करने का विचार उसके मन में पैदा नहीं होता है तो ऐसे में सम्पूर्ण मानव जाति का विकास कैसे होगा ? परमात्मा ने हमें बुद्धि दी, हमें इसका उपयोग क्यों नहीं करना चाहिये अन्यथा वह हमें बुद्धि ही क्यों देता ?
2. क्या परमात्मा को प्राप्त करना एक कामना नहीं है ?
3. हम केवल आत्म-केन्द्रित होकर अपने स्वार्थ के लिए उच्च अवस्था को उपलब्ध होना चाहते हैं, क्या ऐसा करना हमारा स्वार्थ पूर्ण उद्देश्य नहीं है ? जबकि परमात्मा ने श्री कृष्ण के रूप में सदैव संसार की भलाई के लिए कार्य किया था |
बहुत ही गूढ़ विषय पर जिज्ञासा प्रदर्शित की है, मेरे मित्र ने | वैसे तीनों ही प्रश्न आपस में एक दूसरे से सम्बन्धित (Inter related ) हैं | अतः इनकी शंका का मैं व्यापक रूप से समाधान करना चाहूंगा | उनकी भी इस प्रकार की भावना है कि मैं post के माध्यम से इस विषय को स्पष्ट करूँ, जिससे उनकी तरह ही अन्य व्यक्ति लाभान्वित हो सके | वैसे मैं इतना ज्ञानी नहीं हूँ कि उच्च स्तर पर जाकर इस विषय पर अपने विचार रख सकूँ | फिर भी आचार्य जी के सान्निध्य और सनातन शास्त्रों के माध्यम से जो कुछ भी इस बारे में ज्ञान रखता हूँ, एक लघु श्रृंखला के माध्यम से प्रकट कर रहा हूँ |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, December 17, 2016

संसार-सागर

                              आज लगभग 40 दिनों बाद social media पर नियमित रूप से लौट रहा हूँ । इस काल का अनुभव बड़ा ही सबक देने वाला रहा । हम सांसारिक  कर्मों  की आड़ में किस प्रकार बंधनों में जकड़ जाते हैं, यह प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया जा सकता है । मकड़ी के  जाल की तरह  ही है इस संसार का ताना-बाना , जहाँ शिकारी भोजन की  तलाश करते करते ही किसी और शिकारी का शिकार बन जाता है । एक कर्तव्य आपके समक्ष आता है और उस कर्तव्य को पूर्णता प्रदान करने से पहले ही दूसरा कर्तव्य आपके समक्ष उपस्थित हो जाता है या यूँ कहा जा सकता है कि प्रस्तुत कर दिया जाता है । आपका विवेक ही ऐसे सांसारिक कर्तव्यों के मक्कड़जाल  से बचा सकता है । यहाँ आकर यह आसानी से समझा जा  सकता है कि क्यों कर इस संसार को सागर कहा गया है जहाँ से पार होना कितना मुश्किल है ।  प्रायः हम इस संसार सागर में डूब ही जाते हैं ।
                               हरि : शरणम् के आचार्य श्री  गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करना भी आपका एक धर्म है परंतु उन कर्तव्यों को अपने अनुसार पूरा करने का संकल्प ही आपको संसार में उलझा देता है । कर्तव्य  करने के लिए कर्म करें परंतु वह आपकी इच्छानुसार हो  पाता है अथवा नहीं,इस दुविधा में न  पड़ें । अगर  कर्तव्य-कर्म आपके मन  अनुसार हो गए तो फिर आप उन  कर्मों में आसक्त हो जायेंगे और अगर नहीं हो पाए तो फिर यह आपके दुःख का एक कारण होगा । इस दुःख से बाहर निकलने के लिए  फिर से आप कोई नया कर्म करेंगे ।  इस प्रकार आप एक से दूसरे और फिर तीसरे कर्तव्यों के लिए कर्म करते हुए इस संसार में उलझ कर रह जायेंगे । अपने आप को इस स्थिति से बचाने के लिए  आप कर्तव्य को निभाने के  लिए कर्म अवश्य  करें और उनका जो भी परिणाम हो,स्वीकार करें और पुनः संसार से बाहर निकल आएं । सभी प्रकार के संकल्पों और विकल्पों का त्याग करते हुए साक्षी-भाव से सांसारिक कर्तव्यों का निर्वहन करें । 
                       ॥ हरि : शरणम् ॥ 
                             

Saturday, December 10, 2016

गृहस्थ / संन्यस्थ

                  एक सन्यासी और एक गृहस्थ होने में अंतर क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर आज मिला है | ऐसी एक धारणा बन गई है जिसके अनुसार गृहस्थी को एक बंधन माना जाता है और सन्यासी को मुक्त | वास्तव में यह धारणा ही पूर्ण रूप से गलत है | गृहस्थ भी मुक्त अवस्था में रह सकता है और सन्यासी भी बंधन में बंधा रह सकता है | केवल सन्यास का आँचल पकडे रहना भी एक बंधन है और इसी तरह केवल गृहस्थी में रमे रहना भी बंधन है | गृहस्थ भी मुक्त अवस्था में रह सकता है | लगभग छः माह पहले जब मेरे छोटे पुत्र के विवाह की तिथि 8 दिसम्बर को निश्चित की गई थी, तब मैं हरिः शरणम् गया था | मेरी धर्मपत्नी के आग्रह पर आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने मुझे कहा था कि अपने कर्तव्य का पालन करते हुए पहले पुत्र का विवाह करो और फिर आध्यात्मिकता के मार्ग पर आगे बढ़ना | उस समय मुझे यह लगा कि मैं पुनः उस संसार  में लौट रहा हूँ जहां से मैं शनैः शनैः निवृत हो रहा था | बीच में एक दो बार मैंने अपनी यह व्यथा उनके सामने दूरभाष पर प्रकट भी की थी परन्तु उन्होंने अपने कथन को परिवर्तित नहीं किया | आज जब मैं पुत्र का विवाह दो दिन पहले संपन्न कर चूका हूँ तब जाकर उनका कहना मुझे शत प्रतिशत सत्य नज़र आ रहा है | यह सत्य है कि सन्यास भी एक प्रकार का बंधन है जब तक कि आप अपने कर्तव्य से मुक्त न हो चुके हों |
                    गृहस्थ को ऐसा होना चाहिए जो सदैव सन्यस्थ होकर रहे और सन्यासी को भी ऐसा होना चाहिए कि जब कर्त्तव्य का पालन करना हो कुछ समय के लिए गृहस्थी में लौट जाये | इसी को गीता में समत्व योग कहा गया है | गीता में समता को ही सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है |
        योगस्थः कुरु कर्माणि संगत्यक्त्वा धनंजय |
        सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते || गीता 2/48 ||
अर्थात हे धनञ्जय ! तू आसक्ति को त्याग कर त्तथा सिद्धि असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है |
|| हरिः शरणम् ||
आप सभी मित्रों, बंधु-बांधवों और मेरे बुजुर्गों का आभार जिन्होंने अपना अमूल्य समय निकाल कर मेरे पुत्र के विवाह समारोह में पधारकर आशीर्वाद प्रदान किया | मैं उनका भी आभारी हूँ जिन्होंने मेरे जन्म दिन और पुत्र-विवाह पर विभिन्न माध्यमों से शुभकामनाएं प्रेषित की हैं | बहुत बहुत धन्यवाद | एक सप्ताह में सभी कार्यों से निवृत होकर आपके समक्ष पुनः लौटूंगा |

आपका- डॉ.प्रकाश काछवाल  

Tuesday, November 8, 2016

अहम् ब्रह्मास्मि

अहम् ब्रह्मास्मि
एक भक्त था जो अपने गुरु की प्रतिमा के समक्ष बैठा उस पर पुष्प अर्पित कर रहा था | अचानक उसका ध्यान अंतर्मुखी हो गया और समाधिस्थ होकर उसने देखा कि समस्त ब्रह्मांड उसी के भीतर है | उसकी देह स्थिर थी पर उसकी चेतना अनंत के साथ एकाकार हो गई |
बाद में उसे लगा कि मैं पुष्प सही स्थान पर अर्पित नहीं कर रहा था क्योंकि समस्त ब्रह्मांड तो मेरी चेतना है, मैं यह देह नहीं अपितु पूर्ण समष्टि हूँ | मैं, मेरे गुरुदेव और परमात्मा सभी एक हैं | उसने बचे हुए पुष्प अपनी नश्वर देह के सिर पर ही चढ़ा दिए, और पुनः समाधिस्थ हो गया |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
आज से कुछ समय के लिए अवकाश पर जा रहा हूँ | दिसम्बर माह के तीसरे सप्ताह से फिर से अध्यात्म चर्चा में सब साथ होंगे |
|| हरि शरणम् ||

Monday, November 7, 2016

शरीर- एक साधन

एक बार एक राजा कहीं जा रहा था। उसने एक सफाई कर्मचारी को देखा। राजा को उसकी निर्धनता देखकर दया आ गई। उसने हीरे-मोतियों से जड़ित एक स्वर्ण थाल दिया, ताकि वह उससे धन कमाकर आराम की जिंदगी बिता सके। कुछ वर्षों के पश्चात राजा ने उस व्यक्ति को पुन: सफाई करते हुए देखा, तो पूछा कि मैंने जो थाल तुम्हें दिया था, वह कहां है ? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया कि आपकी बहुत कृपा है। मैं बहुत समय से उसमें गंदगी डालकर फेंकता रहा हूं। राजा यह सुनकर क्रोधित हो गया। उसने अपने सेवकों को आदेश दिया कि इससे थाल लेकर किसी अन्य साधनहीन व्यक्ति को दे दो।
इसी तरह परमात्मा भी जीव को मनुष्य तन देता है, लेकिन वह इसे विषय-वासना से गंदा कर देता है और बाद में दुखी होता है। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि जो जीव मानव तन धारण करने के पश्चात भी भवसागर से पार होने का प्रयत्न नहीं करता, वह कृतघ्न, मंदबुद्धि और आत्महंता है। यदि जीव प्रभु-कृपा का लाभ उठाकर परमात्मा की भक्ति करता है, तो वह सदा के लिए कर्म-बंधनों से मुक्त हो जाता है। इंसान इस शरीर रुपी नगर में एक सीमित समय के लिए आया है। इस नगर में वह अकेला नहीं है, बल्कि काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार आदि भी इसमें उसके साथ निवास करते हैं। यदि वह इनसे सावधान नहीं रहेगा, तो फिर पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी हाथ आने वाला नहीं है। इस संसार में संत- महापुरुष एक पहरेदार का काम करते हैं। जैसे यदि गांव में पहरेदार को जरा भी संशय हो जाता है कि इस गांव में चोरी होने की आशंका है, तो वह उच्च स्वर में आवाज लगाता है। उसकी आवाज सुनकर जो जाग जाते हैं, उनका घर बच जाता है। जो नहीं जागते और यह सोचकर ही सोये रहते हैं कि शोर करना तो इसका काम ही है, वे सूर्योदय होने तक लुट चुके होते हैं। महापुरुष भी जीव को जगाकर कहते हैं कि किसी भी इंसान के शरीर रुपी घर के अंदर दिन-रात पांच चोर चोरी करने का प्रयत्न करते रहते हैं। इसलिए उनसे सावधान होने की जरूरत है। यदि किसी जीव को काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह के विकारों ने लूट लिया, तो उसका संपूर्ण जीवन बेकार है। इसलिए महापुरुष बार-बार इंसान को जगाते हैं। इस अज्ञानता की निद्रा से जागकर उस प्रभु रुपी औषधि का प्रयोग करना चाहिए, ताकि इस जीवन को सार्थक बनाया जा सके। मानव तन अति दुर्लभ और क्षण भंगुर भी है। इसलिए सोचने में समय नष्ट करने की बजाय उस परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास आज और अभी से शुरू कर देना चाहिए।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल


|| हरिः शरणम् ||

Sunday, November 6, 2016

ज्ञान

ज्ञान
पात्रता के अभाव में ज्ञान टिकता नहीं है । सुपात्र के अभाव में ज्ञान शोभा नहीं पाता है । धन और ज्ञान सुपात्र के बिना शोभा नहीं पाते है ।
जब तक ज्ञान क्रियात्मक नहीं होता तब तक वह अज्ञान जैसा ही होता है । बहुत जानने की अपेक्षा तो जितना जान लिया है, उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए । ज्ञान जब तक क्रियात्मक न बन जाये तब तक उसकी कोई कीमत नहीं होती । जब ज्ञान क्रियात्मक होता है तभी वह शान्ति देता है । ज्ञान को शब्द रुप ही न रहने दिया जाये बल्कि उसे क्रियात्मक बनाया जाये । ज्ञान का अन्त न कभी हुआ और न कभी होने वाला है परन्तु जितना ज्ञान प्राप्त हो गया है उसे ही क्रियात्मक बनाने से शान्ति मिलती है ।
कपिल अर्थात् जो जितेन्द्रिय है, वही ज्ञान को पचा सकता है । विलासी जन ज्ञान का अनुभव नहीं कर सकते ।
कर्दम जीवात्मा है और देवहूति बुद्धि है । देवहूति देव को बुलाने वाली निष्काम बुद्धि है ।
ज्ञान प्राप्त करने हेतु सरस्वती के पास रहना होगा। कर्दम होना होगा । यदि हम कर्दम होंगे तभी बुद्धि देवहूति बनेगी अर्थात् जितेन्द्रिय होने पर ही बुद्धि निष्काम होगी और कपिल भगवान आयेंगे अर्थात् ज्ञान सिद्ध होगा । ज्ञान सिद्ध होने पर पुरुषार्थ सिद्ध होगा ।
वैराग्य और संयम के अभाव में ज्ञान सिद्ध नहीं होता, प्राप्त ज्ञान को जीवन में उतारकर भक्तिमय जीवन बिताने वाले जन बहुत ही विरले है ।
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, November 5, 2016

राग-द्वेष

संसार में दुःख राग के कारण है । जब कोई कही फँस जाता है तो उसको न ईश्वर मालूम पड़ता है न गुरु मालूम पड़ता है न धर्म मालूम पड़ता है न अपना कर्तव्य मालूम पड़ता है। जिसके चित्त में किसी के प्रति राग नहीं , उसके चित्त में किसी प्रकार का दुःख भी नहीं । राग द्वेष से हृदय कलुषित हो जाता है तब उसमें सम्पूर्ण दुःख , भय , अन्धकार और मृत्यु आते हैँ ।
यह संसार सरकता हुआ जा रहा है , संसरणशील है . दुःख रुप है . विमोहक है। कौन किसका बेटा और कौन किसका घर ? स्नेहवान ज्वलतेऽनिशम- जिस प्रकार जब तक दीये में तेल रहता है तब तक वह जलता रहता है, इसी प्रकार जब तक हृदय में लोगों के प्रति. संसार के प्रति मोह बना रहता है तब तक हृदय में जलन होती है ।
राग शब्द का अर्थ द्वेष भी होता है । ये दोनों सहचरित है । जहाँ राग है वहाँ द्वेष है, जहाँ द्वेष है वहाँ राग है । ये मधु कैटभ दैत्य के समान हैं । भगवान से भी बहुत दिनों तक लड़ते हैं । भगवान भी इनको तभी मारते है जब ये स्वयं मरना चाहते हैं । कहाँ मरते है ? जहाँ विषय रस की निवृत्ति हो जाती है ।
ये राग द्वेष जहाँ भी रहते हैँ वहाँ दुःख देते हैं । ये हमारे हैं और वे दूसरे हैं यही तो अज्ञान है ।
( गोकर्ण एवं आत्मदेव संवाद पर आधारित )
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, November 4, 2016

कर्म-रहस्य

कर्मफलों से मुक्त कैसे हों ? यह एक ऐसा विषय है जिसे बौद्धिक धरातल पर समझना तो सबसे आसान है, पर करना सबसे अधिक कठिन कार्य है|
शरणागति द्वारा परमात्मा को पूर्ण समर्पित होकर ही हम अपने अच्छे-बुरे सब कर्मों से मुक्त हो सकते हैं| यह समर्पण अपने अहंकार, मोह, कामनाओं, लोभ, और राग-द्वेष सभी का हो | यही मुक्ति है, और यही मोक्ष है |
जब कोई भी कार्य हमारे माध्यम से परमात्मा के लिए ही, परमात्मा को समर्पित होकर ही होता है, वह किसी भी प्रकार के बंधन का कारण नहीं बनता |
जो कार्य अपने इन्द्रिय सुख के लिए, अपने अहंकार कि तृप्ति के लिए होता है, वह ही बंधन का कारण होता है | हमारी सोच, हमारे विचार और हमारे भाव भी हमारे कर्म ही हैं, जो हमारे खाते में जुड़ जाते हैं |
यही है कर्म फलों का रहस्य और मुक्ति का उपाय जो समझने में सर्वाधिक सरल है, पर करने में सर्वाधिक कठिन है |
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, November 3, 2016

प्रार्थना का फल

हमारी प्रार्थनाओं के फल क्यों नहीं मिलते? यह समझना बहुत ही सरल है पर कार्य रूप में करना थोड़ा कठिन है |
हम अपने नित्य नियमित शास्त्रोक्त कर्म नहीं करते, इसीलिए न तो हमारी प्रार्थनाओं का कोई उत्तर मिलता है और न ही किसी भी अनुष्ठान का फल मिलता है| समझने के लिए इतना ही पर्याप्त है |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, November 2, 2016

हम और हमारा धर्म

हम कौन हैं? हमारा परम धर्म क्या है ?
हम सब परमात्मा की एक अभिव्यक्ति हैं जो कुछ समयके लिए यह देह बन गए हैं | इस देह से हमारा सम्बन्ध नश्वर है | यह देह एक साधन मात्र है |
सम्पूर्ण सृष्टि में जो भी सृष्ट है व उससे परे जो भी है वह सब हम स्वयं ही हैं |
जिसे हम ढूँढ रहे हैं वह भी हम स्वयं ही हैं |
हम यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्ण चैतन्य हैं, सम्पूर्ण ब्रह्मांड हैं |
अपने आत्म-तत्व में स्थित होना ही हमारा परम धर्म है |
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Tuesday, November 1, 2016

"जन्म दुःखं जरा दुःखं जाया दुःखं पुनः पुनः ।
अन्तकालं महादुःखं तस्मात् जागृहि जागृहि ।।"
जन्म दुःख है, वृद्धावस्था दुःखमय है, स्त्री, पुत्रादि कुटुम्ब जन दुःख रुप है और अन्त काल भी बडा दुखद है, इसलिए जागो - जागो । इस अंतकाल को रोज याद करो ।
          नित्य विचार करें कि यदि आज यमदूत मुझे पकडने आयें तो मैं कहाँ जाऊँगा - नरक में, स्वर्ग में, बैकुण्ठ में | मृत्यु का निवारण शक्य नहीं है, तो फिर पाप क्यों? कई लोग बहुत समझदार बनते है । जब बाजार में कुछ लेने जाते है तो बडी देर तक सोच विचार करते है कि किस वस्तु को लिया जाये । किन्तु जिसका विचार करने की आवश्यकता है उस पर विचार ही नहीं करते । मृत्यु को रोज याद करें, मृत्यु का भय रहेगा तो पाप दूर होगा और जिस दिन पाप दूर हो जायेगा, उसी दिन मनुष्य संत बन जायेगा ।