Saturday, November 5, 2016

राग-द्वेष

संसार में दुःख राग के कारण है । जब कोई कही फँस जाता है तो उसको न ईश्वर मालूम पड़ता है न गुरु मालूम पड़ता है न धर्म मालूम पड़ता है न अपना कर्तव्य मालूम पड़ता है। जिसके चित्त में किसी के प्रति राग नहीं , उसके चित्त में किसी प्रकार का दुःख भी नहीं । राग द्वेष से हृदय कलुषित हो जाता है तब उसमें सम्पूर्ण दुःख , भय , अन्धकार और मृत्यु आते हैँ ।
यह संसार सरकता हुआ जा रहा है , संसरणशील है . दुःख रुप है . विमोहक है। कौन किसका बेटा और कौन किसका घर ? स्नेहवान ज्वलतेऽनिशम- जिस प्रकार जब तक दीये में तेल रहता है तब तक वह जलता रहता है, इसी प्रकार जब तक हृदय में लोगों के प्रति. संसार के प्रति मोह बना रहता है तब तक हृदय में जलन होती है ।
राग शब्द का अर्थ द्वेष भी होता है । ये दोनों सहचरित है । जहाँ राग है वहाँ द्वेष है, जहाँ द्वेष है वहाँ राग है । ये मधु कैटभ दैत्य के समान हैं । भगवान से भी बहुत दिनों तक लड़ते हैं । भगवान भी इनको तभी मारते है जब ये स्वयं मरना चाहते हैं । कहाँ मरते है ? जहाँ विषय रस की निवृत्ति हो जाती है ।
ये राग द्वेष जहाँ भी रहते हैँ वहाँ दुःख देते हैं । ये हमारे हैं और वे दूसरे हैं यही तो अज्ञान है ।
( गोकर्ण एवं आत्मदेव संवाद पर आधारित )
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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