Monday, September 30, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-८

क्रमश:८

ज्ञान-योग -क्रमश:

          गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                            ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते |
                            एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् || गीता ९/१५ ||
        अर्थात्,दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार का ज्ञानयज्ञ के द्वारा अभिन्न भाव से मेरी उपासना करते हैं और अन्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराट्स्वरूप परमेश्वर की पृथक-भाव से उपासना करते हैं |यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण ज्ञानमार्ग के विषय में बता रहे हैं | 
               ज्ञान योग के बारे में चर्चा करते हुए तीन प्रश्न मन में उठते हैं-ज्ञान क्या है ? ज्ञेय क्या है ?और ज्ञाता कौन है ?
        पहला प्रश्न है कि ज्ञान क्या है ?ज्ञान के सम्बन्ध में गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                           अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् |
                           एतज्ज्ञानमिति   प्रोक्तमज्ञानं   यदतोSन्यथा || गीता १३/११ ||
       अर्थात्,अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थ रूप में परमात्मा को देखना -यह सब ही ज्ञान है और जो इससे विपरीत है वह अज्ञान है |
        यहाँ ज्ञान केवल उसे ही बताया गया है जिसमें व्यक्ति को तत्वज्ञान हो जाता है |तत्व ज्ञान का अर्थ होता है कि जो भी यहाँ पर हो रहा है उसका मूल कारण क्या है ?जब तक आप वास्तविकता से दूर रहेंगे तब तक केवल मात्र शब्दों में ही भटकते रहेंगे |विज्ञानं के बारे में यही कहा जाता है कि जो बात विज्ञानं साबित कर दे वही मान्य होती है |लेकिन जब आप विज्ञानं से मूल तक पहुँचने का प्रश्न करते हैं तब अंत में आकर विज्ञानं भी मौन हो जाता है और हाथ ऊपर करके परम सत्ता को स्वीकार करता है | विज्ञानं ने चाहे कितनी ही प्रगति कर ली हो परन्तु मुख्य कारण जानने में वह भी विफल है |ब्रह्माण्ड के निर्माण को जानने के अभी तक कितने ही प्रयोग हो चुके है-कहते है कि God-particle खोज लिया गया है |परन्तु वास्तव में मुख्य कर्ता कौन है,वह अभी भी खोज नहीं पाया है |ब्रह्माण्ड के निर्माण का कारण है तो कोई कर्ता भी होगा | जीव विज्ञानं में भ्रूण निर्माण से लेकर मृत्यु पर्यंत सब जानकारी विज्ञानं हासिल कर चूका है परन्तु इस पूर्ण चक्र का कर्ता कौन है,विज्ञानं यहाँ पर भी मौन है |यह मौन ही परमात्मा के अस्तित्व की स्वीकृति है |
                           जितनी भी व्याधियाँ है उन सब की कोई न कोई दवा खोज ली गयी है |परन्तु एक भी दवा ऐसी नहीं है जो किसी बीमारी में शतप्रतिशत कार्य करती हो |ऐसा क्यों?विज्ञानं यहाँ पर भी मौन है |जब एक दवा किसी एक बीमारी में पूरा आराम देती है ,तो फिर उस दवा के देने के बाद भी कुछ व्यक्ति उस बीमारी से क्यों मर जाते है ?विज्ञानं यहाँ पर भी निरुत्तर है |अंतरिक्ष के इतने सफल अभियानों के बाद भी कल्पना चावला की मौत एक असफल अभियान में क्यों हो गयी थी ?कारण जरूर बताती है विज्ञानं,परन्तु फिर भी इशारा परम सत्ता की और ही होता है |इसीलिए परमात्मा को अज्ञेय कहा गया है |जिसे जानना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है |कहा जा सकता है कि जहाँ ज्ञान समाप्त होता है,आध्यात्मिकता की शुरुआत वहीँ से होती है |सभी ज्ञान परमात्मा में आकर समाप्त हो जाते हैं |
                           अतः कहा जा सकता है कि परम पिता परमात्मा ही सब कुछ है यह मानना ही ज्ञान है |इससे  अलग अगर कुछ माना जाता है ,तो वह अज्ञान है |
               दूसर प्रश्न है कि ज्ञेय क्या है ?अर्थात् जानने योग्य क्या है ?गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
                                     ज्ञेयं यत्ततप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते |
                                     अनादिमत्परं   ब्रह्म   न  सत्तन्नासदुच्यते || गीता १३/१२ || 
अर्थात्,जो जानने योग्य है (ज्ञेय )तथा जिसको जानकर परमानन्द को प्राप्त होता है उसको भली भांति कहूँगा |वह  अनादि परम ब्रह्म हैजिसे न तो सत् और न ही असत् कहा जा सकता है |
                               संसार असीमित और अनगिनत साहित्य से भरा पडा है |परन्तु कोई भी साहित्य ,कोई भी पुस्तक आपको क्या जानना चाहिए ;यह बताने में असमर्थ है |भगवान कहते हैं कि जानने योग्य वही है,जिसको जानने के बाद आपको परमानंद की अनुभूति हो |और वह एक मात्र परम ब्रह्म यानि परम पिता परमात्मा ही है |जिसका न तो कोई आदि है और न अंत |जो न तो सत् है और न ही असत् |जानने योग्य केवल एक मात्र यही परम ब्रह्म है | वह सब ओर हाथ ,पैर,मुख ,सिर,कानऔर नेत्र वाला है|सब इन्द्रियों को जानते हुए भी सब इन्द्रियों से रहित है |वह आसक्ति रहित है फिर भी सबका भरण-पोषण करने वाला है |निर्गुण होते हुए भी गुणों को भोगने वाला है |विभाग रहित होने के बावजूद वह सभी भूतों में व्याप्त होने के कारण विभक्त भी प्रतीत होता है |वह ब्रह्मा के रूप में सबको उत्पन्न करने वाला,विष्णु रूप में सब भूतों का भरण-पोषण करने वाला तथा रूद्र रूप में संहार करने वाला है |वह परम ब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति है और माया से अत्यंत ही परे है |वही जानने योग्य है और तत्वज्ञान से प्राप्त किया जा सकता है |वह वास्तव में सबके ह्रदय में विशेष रूप से स्थित है |कबीर इस बात को बड़े ही साधारण तरीके से समझते हैं-
                                  ज्यूँ तिल मांहीं तेल है, ज्यूँ चकमक में आग |
                                  तेरा   सांई  तुझी  में  है,   जाग सके तो जाग ||
    अतः कहा जा सकता है कि ज्ञेय केवल मात्र परम ब्रह्म है ,जिसे जानने के बाद किसी और को जानने की आवश्यकता नहीं रह जाती है |ज्ञान भी इसी को जानने को कहते है |
          तीसरा प्रश्न है कि ज्ञाता कौन है ?ज्ञेय और ज्ञान को जानने के बाद स्पष्ट है कि ज्ञाता किसे कहते हैं ?ज्ञाता वही होता है या कहलाता है जिसे ज्ञेय का ज्ञान हो जाये | परन्तु यह सबसे बड़ी भूल है कि पुस्तकीय ज्ञान से ओतप्रोत व्यक्ति ज्ञाता हो जाता है |यह व्यक्ति वास्तविकता में ज्ञान से कोसों दूर है |
क्रमश:
                            || हरिः शरणम् ||

Sunday, September 29, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-७

क्रमश:७

ध्यान-मार्ग--क्रमश:

                       ध्यान योग के अंतर्गत विचारों का त्याग ही महत्वपूर्ण है,ध्यान को उपलब्ध होने की विधि नहीं  है | ध्यान योगके लिए जाने वाले  प्रत्येक व्यक्ति के लिए विधियाँ अलग अलग हो सकती है ,परन्तु उपलब्धि मात्र निर्विचार होना है |यहाँ गीता में वर्णित विधि को उद्घृत किया गया है |ध्यानयोग साधना एक कठिन प्रक्रिया है और इसके लिए बार बार कड़े अभ्यास की आवश्यकता होती है |इसीलिए यह साधन प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपयुक्त भी नहीं है |ध्यान के लिए लगातार अभ्यास करते रहने से व्यक्ति के मन में विचारों का प्रवाह धीर धीरे कम होता हुआ अंत में पूर्ण रूप से अवरुद्ध हो जाता है |यह स्थिति ही निर्विचार की स्थिति होती है |एक बार निर्विचार(Thoughtlessness) की स्थिति प्राप्त होजाने के बाद किसी भी प्रकार के अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती,और व्यक्ति ध्यान की अवस्था में तत्काल जा सकता है |अब उसे परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नज़र नहीं आता है |  वह उस स्थिति को प्राप्त हो जाता है जब वह सम्पूर्ण रूप से ध्यानस्थ ही रहता है |लेकिन यह अभी भी ध्यान की पूर्ण अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है|अभी भी उसके मन में विचार आ रहे है चाहे वह परमात्मा का ही विचार हो |अंत में वह ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेता है जब परमात्मा का भी विचार उसके मन से लुप्त हो जाता है|मन पूर्ण रूप से निर्मल हो जाता है |यही ध्यान की परम अवस्था होती है |
                           कामनाएं और इच्छाएं मन में ही पैदा होती है,उसके कारण ही व्यक्ति को कर्म करने पड़ते हैं |जब मन निर्विचार की अवस्था को प्राप्त हो जाता है तब समस्त कामनाये और इच्छाएं भी पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती है |ऐसे में वह व्यक्ति अपनी इच्छाओं व कामनाओं की पूर्ति के लिए कोई कर्म नहीं करेगा |ऐसे कर्म से जब वह विमुख हो जायेगा तो चित्त में कुछ भी अंकित नहीं होगा |वह चित्त एकदम निर्मल अवस्था में होगा |ऐसी स्थिति में कर्मफल भी नहीं होगा,और जब कर्मफल मिलने ही नहीं है तो फिर पुनर्जन्म क्यों होगा |ऐसे में आत्मा का परमात्मा के साथ योग होना निश्चित्त है |यही ध्यान योग से पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति है |

ज्ञान-मार्ग--

                   ज्ञान योग परमात्मा को देखने की दूसरी विधि है |इसको कुशाग्र बुद्धि युक्त व्यक्ति अपना सकते हैं |गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-
                                 चतुर्विद्याभजन्ते माँ जनाः सुकृतिनोSर्जुन |
                                 आर्तो  जिज्ञासुरर्थार्थी  ज्ञानी  च  भरतर्षभ || गीता ७/१६ ||
अर्थात्,हे भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन!उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए ),आर्त(संकट निवारण के लिए ),जिज्ञासु (जानने की इच्छावाले)और ज्ञानी -ये चार प्रकार के भक्त जन मुझको भजते हैं |
                                 तेषां  ज्ञानी  नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते  |
                                 प्रियो हि ज्ञानिनोSत्यर्थमहं स च मम प्रियः || गीता ७/१७ || 
अर्थात्,उनमे नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है ;क्योंकि ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और ज्ञानी मुझे अत्यंत प्रिय है |
                                  यहाँ पर भगवान स्पष्ट करते हैं की परमात्मा की उपासना चार प्रकार के भक्त करते हैं |अर्थार्थी वे भक्त होते हैं जिन्हें सांसारिक पदार्थों की आवश्यकता होती है और वे परमात्मा से इनको प्राप्त करने की प्रार्थना करते हैं|दूसरे प्रकार के भक्त आर्त यानि दुखी होते है ,वे अपने पर आये संकट से मुक्ति के लिए परमात्मा की उपासना करते हैं |तीसरे प्रकार के भक्त जिज्ञासु प्रकृति के होते हैं |उनकी जिज्ञासा(Interest to know ) परमात्मा को जानने की होती है,जिसके लिए वे परमात्मा की आराधना करते हैं |ज्ञानी भक्त वे होते हैं जो जानते हैं की जानने योग्य क्या है |वे तदनुसार परमात्मा के बारे में सब कुछ जान जाते हैं और निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि परमात्मा के बारे में जानना कितना कठिन है यानि परमात्मा जानने में नहीं आते हैं |भगवान श्री कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं-
                                   बहिरन्तश्च      भूतानामचरं     चरमेव    च |
                                   सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् || गीता १३/१५ ||
अर्थात्,चराचर सब भूतों के बाहर भीतर और चार अचर रूप भी वही है और वह परमात्मा सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है अर्थात सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता |तथा तथा अति समीप और दूर में भी वही स्थित है |अति समीप का अर्थ यह है कि शरीर में जो आत्मा है वह परमात्मा का ही तो अंश है अतः वह मनुष्य के अति समीप है |तथा जो परमात्मा में श्रद्धा नहीं रखते ऐसे अज्ञानी व्यक्तियों के लिए परमात्मा अत्यंत दूर ही है |
                     परमात्मा की प्रकृति सूक्ष्म है इस कारण से उसे जानना बहुत ही मुश्किल है |इसी कारण से परमात्मा जानने में नहीं आता है |इस बारे में समस्त ज्ञान रखने वाला ही ज्ञाता कहलाता है और परमात्मा को ही सर्वेसर्वा मानने वाला ज्ञानी भक्त |इस दुर्लभ ज्ञान को प्राप्त करने में मनुष्य को कई जन्म लग जाते हैं,तभी वह परमात्मा को कुछ जानने की स्थित को उपलब्ध होता है | 
                            जो ज्ञानी भक्त होता है वह परमात्मा को ही सब कुछ मानते हुए प्रेमभाव से भक्ति करता है |भगवान कहते हैं कि ऐसे ज्ञानी भक्त को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह भक्त मुझे भी अत्यंत प्रिय है |वैसे भगवान को सभी भक्त प्रिय होते हैं परन्तु ज्ञानी भक्त को उन्होंने इन चारों में अत्यंत प्रिय बताया है |श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि उपरोक्त चारों तरह के भक्त उदार हैं परन्तु ज्ञानी तो मेरा ही साक्षात् स्वरुप है |परमात्मा ने ज्ञानी भक्त को ही अपना साक्षात् स्वरुप इसलिए बताया गया है कि ऐसा भक्त केवल परमात्मा के प्रति समर्पित होता है और परमात्मा में ही स्थित होता है |तुलसीदास जी ने मानस में लिखा है-
                                        सोई जानई जेहू देइ जनाई |जानत तुम्हहि तुमइ होई जाई ||
           परमात्मा स्वयं के बारे में जिसको जनाना चाहता है,वही उसे जन सकता है |प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है कि वह उस परम पिता परमात्मा को जान सके |और जो व्यक्ति उस परमात्मा को जान लेता है वह साक्षात् परमात्मा स्वरुप ही हो जाता है |यह जानने वाला और परमात्मा में स्थित भक्त ही ज्ञानी भक्त कहलाता है |
क्रमश:
               || हरिः शरणम् ||  

Saturday, September 28, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-६

क्रमश:६
                     मंदबुद्धि वाले व्यक्ति तो तत्वज्ञानियों से सुनकर उपासना आदि साधन अपनाकर संसार सागर को पार करने की स्थिति निर्मित कर लेते है |कुशाग्र बुद्धि वाले इस प्रकार उपासना करना स्वीकार नहीं कर पाते |उन्हें बुद्धि ऐसा करने से रोकती है |ऐसी स्थिति में अपनी संतुष्टि के लिए व्यक्ति ऐसे साधन की तलाश में रहता है जिसे जानकर और समझ कर वह अपने लिए उसे उपयुक्त मानते हुए स्वीकार करे |ऐसी कई विधियाँ या साधन उपलब्ध भी है |जिनमे तीन साधन प्रमुख है-ध्यान ,ज्ञान और कर्म |

   ध्यान-मार्ग--

     ध्यान योग को समझने के लिए मेरे को एक कहानी याद आ रही है |एक बार एक प्रान्त के शासक के मन में इच्छा पैदा हुई की आज किसी बौद्ध विहार का जाकर निरीक्षण किया जाये |उसके मन में एक जिज्ञासा थी की आखिर वहाँ पर बौद्ध भिक्षु करते क्या हैं ?राजा अपने घोड़े पर सवार होकर बौद्ध विहार पहुँच गया | वहाँ पहुंचकर उसने देखा कि सभी भिक्षु अपने अपने कार्य में व्यस्त है |जब मुख्य भिक्षु को पता चला कि वहाँ का शासक बौद्ध विहार का निरीक्षण करना चाहता है तो वह तरंत उनकी अगवानी के लिए मुख्य द्वार पर पहुंचा |ससम्मान राजा को लेकर उसने अंदर प्रवेश किया |वह प्रत्येक स्थान  राजा को दिखलाता और संक्षेप में उसका उपयोग भी बताता जाता |बांयी तरफ उसने इशारा करते हुए बताया कि यह पुस्तकालय है ,यहाँ पर भिक्षु अध्ययन करते हैं |थोडा आगे चलकर उसने भोजनालय की तरफ इशारा करते हुए बताया कि यहाँ भिक्षु खाना पकाते है |फिर पास में बने कमरे के बारे में बताया कि यहाँ भिक्षु भोजन करते हैं |
                           इसी बीच राजा की नज़र विहार के मध्य में बने विशाल भवन पर पड़ी |राजा ने पूछा-यहाँ भिक्षु क्या करते है ?मुख्य भिक्षु ने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया ,और आगे बढ़ते हुए बताने लगा कि यहाँ भिक्षु लोग स्नान करते हैं |राजा ने फिर उस खाली पड़े विशाल भवन की तरफ इशारा करते हुए पूछा कि यहाँ आप क्या करते हैं ?मुख्य भिक्षु ने फिर कोई जवाब नहीं दिया और अन्य कमरे की तरफ इशारा करते हुए बताया कि सभी भिक्षु यहाँ पर रात्रि विश्राम करते हैं |राजा बार बार उस विशाल कमरे के बारे में पूछता कि वहाँ भिक्षु क्या करते हैं ?परन्तु हर बार मुख्य भिक्षु इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं देता |आखिर राजा ने पूरे विहार का निरीक्षण कर लिया और वापिस जाने को उद्यत हुआ |मुख्य भिक्षु उन्हें मुख्य द्वार तक विदा करने आया |अकेला पाकर राजा ने उनसे पूछा कि मैंने आपको इतनी बार पूछा कि यह विशाल कक्ष क्यों है ?आप यहाँ पर क्या करते हैं ?और आपने इसका जवाब अभी तक नहीं दिया |
                          मुख्य भिक्षु नम्रता पूर्वक बोला-'राजन,यह ध्यान कक्ष है |'राजा ने कहा 'ऐसे कहो न कि यहाँ बौद्ध भिक्षु ध्यान करते हैं | 'मुख्य भिक्षु बोला -'राजन !आपने हर बार मुझे यही पूछा कि आप यहाँ क्या करते है?जब यहाँ पर हम कुछ भी नहीं करते तो मैं आपको क्या जवाब देता?ध्यान कुछ करने की बात नहीं है |जबकि कुछ भी न करना ही ध्यान है |' मैं नहीं समझता कि राजा ने इसे कैसा समझा होगा |परन्तु वास्तविकता यही है कि कुछ भी न करने को ही ध्यान कहते हैं |ध्यान करना नहीं होता .बल्कि न करना ही ध्यान होता है |यही ध्यान का मुख्य आधार है |
                          इस शरीर में स्थित मन की ऐसी स्थिति होती है कि उसमे विचारों का प्रवाह निरंतर बना रहता है |जब तक मन पर नियंत्रण नहीं रखेंगे तब तक विचारों पर नियंत्रण करना असंभव होता है |जब तक आपके मन में विचारों का प्रवाह बना रहेगा तब तक कोई भी व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध नहीं हो सकता |ध्यान एक निर्विचार की स्थिति है |निर्विचार की स्थिति प्राप्त करने के लिए कड़े अभ्यास की जरुरत होती है |गीता में भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन को ध्यान की विधि के बारे में समझाते हुए कहते है कि व्यक्ति को ध्यान को उपलब्ध होने के लिए ऐसी जगह को चुनना चाहिए जो शुद्ध हो |शुद्ध से यहाँ अर्थ किसी भी प्रकार के व्यवधान पैदा करने वाली परिस्थितियों से मुक्त  जगह से है |ऐसी जगह पर इन्द्रियों को विचलित करने वाली कोई भी परिस्थिति बनने की सम्भावना नहीं होनी चाहिए |उस स्थान पर प्रयाप्त आसन लगाना चाहिए ,जो न तो ज्यादा ऊँचा हो और न ही ज्यादा नीचा |आसन स्थिर भी हो |इस आसन पर बैठ कर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को नियंत्रित करने का अभ्यास करना चाहिए |अपने शरीर,गर्दन और सिर को अचल कर नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि जमायें|इससे किसी भी दिशा में देखा जाना संभव ही नहीं होगा |ऐसा व्यक्ति अब अपने मन को रोककर परमात्मा में चित्त लगा सकते हैं |यहाँ श्री कृष्ण कहते हैं-
                               युन्जन्नेवं  सदात्मानं  योगी  नियतमानसः |
                               शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति || गीता ६/१५ ||
अर्थात्,वश में किये हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरुप में लगाता हुआ मुझ में रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शांति को प्राप्त होता है |
                         यहाँ भगवान यही कह रहे हैं कि जब व्यक्ति चारों दिशाओं से अपना ध्यान हटाकर,अपने मन को नियन्त्रित कर मेरे परायण हो जाता है तब वह मेरे में स्थित उस शांति को प्राप्त कर लेता है जो परमानन्द की पराकाष्ठा है |आगे श्री कृष्ण कहते हैं कि यह योग न तो बहुत खाने वालों का है और न ही बिलकुल न खाने वालों का |न ज्यादा शयन करने वालों का है और न ही ज्यादा जागने वालों को ही यह योग सिद्ध होता है |इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि जब मन और इन्द्रियों पर व्यक्ति पूर्णरूप से नियंत्रण पा लेता है तभी वह परमात्मा का ध्यान लगा सकता है |मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण आते ही व्यक्ति तुरंत ही उत्पन्न होने वाले विचारों से छुटकारा पा लेता है और निर्विचार( Thoughtlessness ) की स्थिति को उपलब्ध हो जाता है |
                             निर्विचार की स्थिति में व्यक्ति सांसारिकता से विमुख हो जाता है |यहाँ मुख्य बात विचारों का त्याग ही है |विचारों के त्यागते ही संसार से ध्यान तत्काल हट जाता है और जो शांति उपलब्ध होती है वही परम तत्व की प्राप्ति  है |
क्रमश:
                              || हरिः शरणम् || 

                                                

Friday, September 27, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-५

क्रमश:५
                         अभ्यास योग में नाम जप की महिमा को प्राथमिकता दी गयी है |अभ्यास योग में नाम जप के बाद जो स्थिति आती है या साधक को जिस स्थिति में जाना चाहिए वह स्थिति भक्त की स्थिति कहलाती है |गीता के १२ वें अध्याय को भक्ति योग नाम से कहा गया है |केवल मात्र नाम जप से ही व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता |उसको जानने या प्राप्त करने के लिए उसे भक्त बनना ही होगा | इस प्रक्रिया या विधि को भक्ति योग नाम से जाना जाता है |मीरा ने भगवान की प्राप्ति इसी योग के माध्यम से की थी |वैसे भक्ति शब्द का अर्थ होता है-भगवान के साथ जुडाव |भक्त वही कहलाता है जिसने परमात्मा के साथ योग कर लिया हो | परमात्मा के साथ योग करने लिए जो प्रक्रिया अपनाई जाती है उसे भक्ति कहा जाता है | भक्ति के अंतर्गत परमात्मा प्राप्ति के सभी साधन आ जाते हैं |इसमे सूक्ष्म यानि कुशाग्र बुद्धि वालों के लिए उपयोगी ध्यान,ज्ञान और कर्म योग के साधन हैं और मंद बुद्धि वालों के लिए तत्वज्ञानियों द्वारा सुने हुए उपासना करने का मार्ग है |
                                                        भक्ति के लिए भगवान ने गीता में क्रमानुसार प्रक्रिया बतलाई है |सबसे पहले और उत्तम विधि ध्यान की है |परन्तु यह सबसे कठिन विधि है |इस ध्यान विधि को अपनाने के लिए श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -
                                                मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय |
                                                निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः || गीता १२/८ ||
अर्थात्,परमात्मा कहते हैं की मुझ में मन लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा ;इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा,इसमे कुछ भी संशय नहीं है |
                                                अथ चित्तं समाधातुं न शन्कोषि मयि स्थिरम् |
                                                अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय  || गीता १२/९ ||
अर्थात्,यदि तू मन को मेरे में अचल स्थापित करने में असमर्थ है तो हे अर्जुन! अभ्यास रूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर |
                                                अभ्यासेSप्यसमर्थोSसि मत्कर्मपरमो भव  |
                                                मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि || गीता १२/१० ||
अर्थात्,अभ्यास करने में भी अगर तू अपने आप को समर्थ नहीं पाता है तो केवल मेरे लिए कर्म कर |इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करते हुए भी तू मेरी सिद्धि को प्राप्त हो जायेगा |
                                                अथैतदप्यशक्तोSसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः |
                                                सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् || गीता १२ /११ ||
अर्थात्,यदि पूरे प्रयास के उपरांत भी तू ऐसा करने में असमर्थ है तो तू मन,बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सभी कर्मों के फलों का त्याग कर |
                          भक्ति योग में भगवान कहते हैं कि परमात्मा को पाने का सबसे उत्तम उपाय यह है कि व्यक्ति अपने मन को नियंत्रण में रखे |जहाँ भी और जब भी मन पर नियंत्रण कमजोर पड़ता है ,परमात्मा से विमुख होकर सांसारिकता की तरफ अग्रसर हो जाता है |मन को परमात्मा में लगाने से व्यक्ति में इच्छाओं और कामनाओं पर  नियंत्रण पाने की क्षमता भी पैदा हो जाती है |बुद्धि और मन जब परमात्मा में लग जाते हैं तब मनुष्य का इस संसार से कोई भी प्रयोजन नहीं रह जाता है |इस स्थिति में ऐसा लगता है जैसे व्यक्ति संसार की जगह परमात्मा में ही निवास करता है |लेकिन ऐसा करना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है |
                           भगवान आगे कहते हैं कि यह कार्य अगर तुम नहीं कर सकते तो तुम्हे इस मन और बुद्धि पर नियंत्रण करने का अभ्यास करना चाहिए |अभ्यास की निरंतरता से एक दिन मन और बुद्धि को परमात्मा की तरफ मोड़ा जा सकेगा |इसको अर्थात् अभ्यास से भी अगर मन और बुद्धि को नियंत्रित न कर सको तो जो भी कर्म करो ,मेरे निमित्त करो |यह मानो कि कर्म परमात्मा के लिए कर रहा हूँ |कर्मों में कर्तापन का भाव नहीं होना चाहिए |जब व्यक्ति में कर्तापन का भाव नहीं होगा तो किये गए कर्म स्वतः ही नष्ट हो जायेंगे |इस के सिद्ध होते ही परमात्मा को पाया जा सकता है |
                              अगर व्यक्ति उपरोक्त तीनों साधन करने में अपने को सक्ष्म नहीं समझता तो परमात्मा उसे अंतिम मार्ग समझाते हुए कहते हैं कि तुम अगर मेरे लिए भी कर्म करने में अपने आप को असमर्थ पते हो तो अपनी बुद्धि और मन पर नियंत्रण करने वाला बन |ऐसा कर पाने से व्यक्ति कर्मफल का त्याग करने वाला बन जायेगा |जो भी कर्मफल उसे प्राप्त होगा ,उसे हरि इच्छा मानते हुए स्वीकार कर लेगा |इसी को कर्मफल का त्याग करना कहते हैं |इसमे व्यक्ति कर्म तो सकाम ही करता है परन्तु कर्मफल के प्रति मोहित नहीं होता है |उदाहरणार्थ एक विद्यार्थी परीक्षा की तैयारी,सफल होने के लिए करता है |यह सकाम कर्म हुआ |लेकिन तैयारी के दौरान वह अगर कर्मफल के प्रति मोहित हो गया तो सफल होने पर उसे अत्यधिक खुशी मिलेगी और असफल होने पर उसे अपार दुःख का अनुभव होगा |अगर तैयारी करते समय वह कर्मफल से मोहित नहीं होता है,यानि सफलता या असफलता के बारे में नहीं सोचता है तो यह कर्मफल का त्याग कहलाता है |अब अगर वह परीक्षा में परिणाम स्वरुप सफल हो जाता है तो उसे अत्यधिक खुशी भी नहीं होगी तथा असफल होने पर अत्यधिक  दुःख भी नही होगा |वह इस परिणाम को हरि इच्छा मानकर स्वीकार कर लेगा |
                                उपरोक्त चारों ही साधनों में मन और बुद्धि पर व्यक्ति का नियंत्रण होना आवश्यक है |अगर व्यक्ति इन दोनों पर नियंत्रण नहीं कर सकता तो कोई भी साधन आपको साध्य यानि परमात्मा तक ले जाने में असमर्थ होगा |
क्रमश :
                  || हरिः शरणम् ||          

Thursday, September 26, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-४

क्रमश:४ 
    मंदबुद्धि वाले व्यक्ति के पास इतनी बुद्धि भी नहीं होती कि वह अपने भावी जन्म के बारे में भी कुछ सोच विचार कर सके |परमात्मा प्राप्ति की बात तो उसके लिए दूर की कौड़ी ही है |इसीलिए उन्हें तत्वज्ञानी व्यक्ति से जो भी सुनने को मिलता है उसी अनुसार उपासना आदि कर इस संसार से मुक्त होने का प्रयास करता है |परन्तु जिनकी बुद्धि सूक्ष्म है उनके बारे में ऐसा नहीं कह सकते |उनके पास अपनी वैचारिक क्षमता होती है,जिसके आधार पर वह निर्णय करता है |परमात्मा प्राप्ति के लिए उसके सामने कई विकल्प होते हैं जिनमें से कोई भी एक वह अपने स्वभावानुसार चुन सकता है |श्रीमद्भागवतगीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को तीन विकल्प सुझाये है-ध्यान,ज्ञान और कर्म मार्ग|  इन तीनों में से कौन सा विकल्प किसके लिए उपयुक्त होगा,कहना बड़ा ही मुश्किल है |इसको जानने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि व्यक्ति विशेष को जिस विकल्प को अपनाना और उस के अनुसार आगे बढ़ते रहना सुगम लगता हो,जिसके अपनाने से उसे कोई असुविधा न हो और जिसका उसे कोई बोझ महसूस न हो,वही विकल्प उसके लिए उपयुक्त होगा |कोई आवश्यक नहीं है कि मुझे जो विकल्प आसान महसूस हो रहा हो वह आपको भी आसान लगे|अतः इसमे चयन उपयुक्तता के आधार पर होना अत्यावश्यक है |
                   सारे विकल्प ,सारे मार्ग उस परमात्मा को जानने,समझने और देखने के लिए ही है |समस्त मार्ग,समस्त विकल्प एक दूसरे के समानान्तर चलते हैं |कोई भी मार्ग एक दूसरे को काटता नहीं है |और ऐसा भी नहीं है कि एक मार्ग पर अग्रसर हो रहा व्यक्ति दूसरे मार्ग का अनुपालन नहीं कर रहा होता है |किसी भी एक मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति स्वतः ही शेष दोनों मार्गों का अनुसरण करने लगता है |जिस प्रकार किसी भी व्यक्ति में केवल मात्र एक गुण नहीं होता बल्कि समस्त तीनो गुण उपस्थित होते हैं परन्तु जिस गुण की बहुलता होती है,सम्बंधित व्यक्ति की प्रकृति उसी गुण के अनुरूप मानी जाती है|उसी प्रकार परमात्मा प्राप्ति के लिए चयनित मुख्य मार्ग के अनुसार ही वह व्यक्ति अपनी साधना करता है |परन्तु उसके व्यवहार में शेष दोनों मार्गों का अनुसरण करना भी परिलक्षित होता है |   
       भगवान श्री कृष्ण ने गीता में तीन साधन या मार्ग तो कुशाग्र और सूक्ष्म बुद्धि वालों के लिए बताये हैं और चौथा साधन मंद बुद्धि वालों के लिए उपयुक्त बताया है |कौन सा साधन श्रेष्ठ है,इसके बारे में श्री कृष्ण कहते हैं –
            श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते |
            ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् || गीता १२/१२ ||
अर्थात्,किये हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है,ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है;क्योंकि त्याग से अनंत यानि परम शांति प्राप्त होती है |
         तत्वज्ञानी पुरुष से सुनकर जो भी उपासना पद्धति व्यक्ति के द्वारा अपनाई जाती है उसे अभ्यास कहते हैं |क्योंकि तत्वज्ञानी द्वारा परमात्मा में मन लगाने के लिए यानि एकाग्रचित्त होने के लिए परमात्मा के नाम का स्मरण करना होता है |इसके लिए बार बार अभ्यास की आवश्यकता होती है |इस विधि को अभ्यास योग कहकर संबोधित किया गया है |इस अभ्यास विधि से ज्ञान की विधि श्रेष्ठ है |ज्ञान से विशेष स्थान ध्यान का है |परन्तु सबसे श्रेष्ठ कर्म फल का त्याग है |त्याग भले ही किसी भी प्रकार का हो,त्याग करते ही व्यक्ति को परम और अनंत शांति का अनुभव होता है |यहाँ पर त्याग का अर्थ केवल कर्मफल के त्याग से नहीं है|यहाँ विशेष रूप से यह उल्लेख करना आवश्यक है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए तीनों में से किसी भी साधन को अपनाया गया हो,सब में त्याग का ही प्रमुखता लिए हुए है | इसीलिए भारतीय दर्शन में त्याग को ही सर्वोपरि माना गया है |
            ध्यान योग में विचारों का त्याग महत्त्व रखता है |ज्ञान योग में ज्ञान अर्जित करने के बाद ज्ञान के अभिमान का त्याग आवश्यक होता है अन्यथा ज्ञानी होने का अभिमान व्यक्ति को अपनी स्थिति से नीचे गिरा सकता है |कर्म योग में कर्मफल के त्याग का अपना महत्त्व है |अतः तीनों योग त्याग को ही प्रमुखता देते हैं | इन तीनों योग में त्याग के साथ साथ काम,क्रोध,लोभ,मोह,ममता आदि का त्याग भी आवश्यक है |त्याग ,व्यक्ति की स्थिति में उत्तरोतर सुधार करने के लिए आवश्यक है | कई बार शास्त्रों के अध्ययन से ऐसा लगता है मानो त्याग ही आध्यात्मिकता का मूल मन्त्र है,जो एक आध्यात्मिक व्यक्ति को अन्य साधारण व्यक्ति से अलग करता है |
            जैसा कि पहले वर्णित किया गया है कि अल्पबुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए तत्वज्ञानी पुरुषों से केवल सुनकर ही उनके द्वारा सुझाई गयी उपासना पद्धति से एक साधारण व्यक्ति संसार से पार हो सकता है |ऐसे व्यक्तियों की बहुतायत कलियुग में ज्यादा होती है |आज का युग कलियुग है और इस प्रकार के व्यक्ति ही चारों और दृष्टिगोचर होते हैं | तत्वज्ञानी और योगी तो लगभग लुप्तप्राय हो गए हैं |गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में ऐसे व्यक्तियों के लिए उपासना की विधि सुझाई है –
              कलियुग केवल नाम अधारा | सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा ||  
   यहाँ गोस्वामीजी ने ऐसे ही व्यक्तियों के लिए यह लिखा है |आज के युग में केवल परमात्मा के नाम का बार बार उच्चारण करने ,परमात्मा के नाम का सुमिरन करने यानि इसके नाम का अभ्यास करने से व्यक्ति संसार सागर को पार कर लेता है |इसे नाम-महिमा से जाना जाता है |कलियुग में भौतिकतावादी व्यक्ति ज्यादा संख्या में होते हैं और उनका परमात्मा की तरफ केवल झुकाव अपने कार्यों की सिद्धि  तक ही सीमित होता है |इस कारण से योग की तीनों पद्धतियाँ ही उनके अनुकूल नहीं होती है |अतः ऐसी स्थिति में नाम-जप उनके लिए सबसे सुगम साधन माना जा सकता है |साधारण तौर पर यह साधन बड़ा ही आसान प्रतीत होता है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है |व्यक्ति के पास समय होने के बावजूद भी परमात्मा का नाम लेना उसे लगभग असंभव लगता है |
क्रमश:

           || हरिः शरणम् ||            

Wednesday, September 25, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-३

क्रमश:
                                परमात्मा की प्राप्ति हेतु ध्यान,ज्ञान और कर्म योग-ये तीन मार्ग श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने बताएं है |हो सकता है कि उपरोक्त तीनों मार्गों में से किसी एक का चयन करना भी किसी किसी के लिए असंभव हो |परमात्मा ने ऐसे लोगों के लिए एक अलग ही चौथा मार्ग भी बताया है |गीता में भगवान श्री कृष्ण इस चौथे मार्ग को अर्जुन को बताते हुए कहते हैं -
                                अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते |
                                तेSपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः || गीता १३/२५ ||
                 अर्थात्,परन्तु इनसे दूसरे अर्थात् जो मंद बुद्धि वाले पुरुष हैं ,वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात् तत्व को जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युसंसार सागर को निःसंदेह पार कर  जाते हैं |
                  यहाँ पर भगवान कहना चाहते है कि कुशाग्र बुद्धि वाले व्यक्ति तो ऊपर वर्णित तीनों मार्गों में से कोई एक मार्ग चुन कर उसपर अग्रसर हो जाते है परन्तु जो व्यक्ति मंद बुद्धि वाले हैं अर्थात उपरोक्त तीन मार्गों में से किसी एक का चयन नहीं कर पाते अथवा उन मार्गों पर चलने में अपने आपको समर्थ नहीं समझते है उनके लिए यह चौथा मार्ग भी है |इस मार्ग में ऐसे व्यक्ति तत्वज्ञानी पुरुषों से सुनकर और समझ कर परमात्मा की उपासना करते हैं और संसार से मुक्ति पा सकते हैं |ये व्यक्ति मंद बुद्धिवाले इस लिए माने जा सकते हैं क्योंकि वे सांसारिकता में इतने व्यस्त होते हैं की न तो उनके पास ज्ञान पाने का तथा न ही उन्हें ध्यान करने का समय होता है और वे इनके बारे में अनभिज्ञ भी होते है |मंद बुद्धि लोग कर्मयोग का मार्ग भी नहीं अपना सकते क्योंकि वे केवल सकाम कर्म ही करते रहते हैं |ऐसे व्यक्ति केवल परमात्म तत्व को जानने वाले व्यक्ति से मात्र सुनकर ही ईश्वर की उपासना कर जैसे तैसे इस संसार सागर को पार करने का प्रयास करते हैं |
                       आज इन भौतिकतावादी युग में लगभग सभी लोग इसी श्रेणी में आते हैं |संसार की गतिविधियों में इतने तल्लीन हैं कि किसी को भी अपनी इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति के लिए अर्थार्जन के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य के लिए समय ही नहीं है |अगर किसी के पास समय है भी तो वह भोग और विलास में रत है |ऐसी परिस्थितियों में परमात्मा के बारे में सोचा भी कैसे जा सकता है ?आज के समय में तत्वज्ञानी पुरुष भी कहाँ रह गए हैं जो ऐसे व्यक्तियों को उपासना का मार्ग भी दिखला सके |अगर कोई तत्वज्ञानी पुरुष प्रयास भी करता है तो उसकी स्वीकार्यता होना भी संदिग्ध है |जो भी आजकल परमात्मा और धर्म के प्रचारक हैं ,वे भी मात्र इसे अपना व्यवसाय बना चुके हैं ,इससे ज्यादा कुछ भी नहीं |आश्रम भी केवल व्यावसायिक प्रतिष्ठान हो गए है |उपासना की पद्धतियां मूल्य चुकाकर खरीदी जा रही है |पतन की पराकाष्ठा देखिये कि उपासना करने हेतु भी व्यक्ति खरीदे या किराये पर लिए जा रहे हैं |ऐसी परिस्थितियों में यह भगवान श्री कृष्ण द्वारा सुझाया गया चौथा मार्ग कहाँ उपलब्ध है ? इस चौथे मार्ग के नाम पर केवल आडम्बर अपना प्रभाव फैला रहा है |आज आडम्बर को ही धर्म और उपासना के नाम पर परोसा जा रहा है |विडम्बना देखिये कि ये मंद बुद्धि लोग अपने हो रहे इस शोषण को समझ भी नहीं पा रहे है |
                       ऐसी परिस्थितियों से बाहर निकालने का मार्ग आज इस भौतिकतावादी युग में तत्काल दिखाई  भी नहीं दे रहा है |जब तक आम व्यक्ति इस बारे में गंभीरता से विचार करने की परिस्थिति को उपलब्ध नहीं होगा तब तक यहाँ कुछ भी परिवर्तन नहीं होने वाला है |जरुरत है कि व्यक्ति समय निकालकर इस बारे में विचार करे और इन आडम्बर फ़ैलाने वालों का विरोध करे जिससे ऐसी गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलना बंद हो | यह प्रत्येक व्यक्ति के हित में ही होगा |
                       शास्त्रों में जो गुरु-शिष्य परम्परा का उल्लेख है,भगवान श्री कृष्ण के अनुसार यही चौथा मार्ग है |गुरु से तत्व ज्ञान को सुनकर ही शिष्य उपासना करते हुए परमात्मा को प्राप्त करता है |तत्वज्ञानी पुरुष ही गुरु की भूमिका निभा सकता है |गुरु बनने के लिए पहले वर्णित तीन मार्गों में से किसी एक मार्ग से परमात्मा तक पहुंचा पुरुष ही योग्य व्यक्ति हो सकता है |क्योंकि जिस व्यक्ति को परमात्मा प्राप्ति का अनुभव होगा ,वही किसी अन्य के साथ अपना अनुभव बाँट सकता है | परमात्मा प्राप्त होने का अर्थ है परमात्मा को जान लेना|परमात्मा को जान लेना ही तात्विक ज्ञान है और जानने वाला पुरुष तत्वज्ञानी |
क्रमश:
                                 || हरिः शरणम् ||

Tuesday, September 24, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-२

क्रमश:
                          परमात्मा का ही अंश यहाँ वहाँ सब में मौजूद है |उस अंश की वास्तविकता को जो भी समझ लेता है ,वह फिर किसी भी ऐसे कर्म में लिप्त हो ही नहीं सकता ,जिसका परिणाम उसे पुनर्जन्म पाकर भुगतना पड़े |सब परमात्मा का ही है और परमात्मा सब का ध्यान रखता है ,यही इस संसार का मूल मन्त्र है |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
                                              यो माँ  पश्यति सर्वत्र सर्वं च  मयि पश्यति |
                                              तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति || गीता ६/३० ||
                     अर्थात्,जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक रूप से देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है,उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता  है |
                     इसका अर्थ यही हुआ की संसार में परमात्मा का ही अंश मौजूद रहता है |जो व्यक्ति इस बात को आत्मसात कर लेता है,उसके लिए परमात्मा के दर्शन करना दुर्लभ नहीं है,क्योंकि सब में परमात्मा का ही अंश उपस्थित रहता है |भगवान कहते है की ऐसे व्यक्ति मेरे लिए भी अदृश्य नहीं होते यानि ईश्वर भी ऐसे व्यक्तियों का सदैव ध्यान रखता है |इसलिए सब में परमात्मा को देखना ही यथार्थ देखना है | यह जानने और समझने के बाद व्यक्ति कितना भी सांसारिकता  में उलझा हुआ हो ,उसकी परमात्मा की तरफ अग्रसर होने की सम्भावना बनी रहती है |  यह परमात्मा को प्राप्त करने के लिए प्रेरित होने की अवस्था है |यहाँ पर परमात्मा को पाने के मार्ग पर यात्रा शुरू नहीं हुई है |केवल मात्र मार्ग ढूंढने की अभिलाषा के जन्म लेने की सम्भावना बनी है |जब पूर्ण रूप से व्यक्ति इस बात को स्वीकार कर लेगा की सर्वत्र परमात्मा ही व्याप्त है तभी वह उसकी तरफ अग्रसर होने के लिए मार्ग चुनने को प्रेरित होगा |
                              परमात्मा को पाने के यूँ तो कई मार्ग हो सकते हैं |परन्तु प्रमुख रूप से इसके लिए तीन मार्ग बतलाये गए हैं |इन तीनो मार्गों के बारे में गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-
                                             ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मनमात्मना |
                                             अन्ये   सांख्येन    योगेन    कर्मयोगेन    चापरे || गीता १३/२४ ||
                    अर्थात्,परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा ह्रदय में रखते हैं ,अन्य कितने ही ज्ञान योग के द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग के द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं |
                        यहाँ पर परमात्मा ने अपनी प्राप्ति के तीन मार्ग सुझाये हैं |जो दिखाई देने में अलग अलग है परन्तु सब का लक्ष्य एक ही है |सब रास्ते परमात्मा के द्वार तक जाते हैं |ये मार्ग हैं-ध्यान योग,ज्ञान योग और कर्म योग |चुनना आपको है ,अपनी सुगमता के अनुसार,अपनी क्षमता के अनुसार और अपने स्वभाव के अनुसार |यह आवश्यक नहीं है कि जिस रास्ते को कबीर ने चुना (निष्काम कर्म यानि कर्म योग )वह आपके लिए भी उपयुक्त हो|अतः यह जरूरी नहीं है कि आप एक जुलाहे की तरह काम करने लग जाओगे तो तुम्हें परमात्मा मिल ही जायेंगे |कबीर को जुलाहे के कर्म ने परमात्मा के द्वार तक नहीं पहुंचाया था,उन्हें कर्म योग यानि निष्काम कर्म ने वहां तक पहुँचाया था |बुद्ध और महावीर ने परमात्मा को ध्यान योग से पाया था और स्वामी विवेकानंद ने ज्ञान योग से |इन सबके रास्ते अलग अलग जरूर नज़र आते है,नज़र क्या आते है अलग अलग ही हैं,परन्तु सबका लक्ष्य एक ही है-परमात्मा यानि सत् को पाना |
                           इन सभी तीनों मार्ग भले ही अलग अलग नज़र आते हों ,परन्तु सब में एक समानता अवश्य नज़र आती है |सभी मार्गों में परमात्मा की उपस्थिति अवश्य होती है |कर्म योग में सभी कर्म परमात्मा के निमित्त किये जाते है,ध्यान योग में सिर्फ और सिर्फ परमात्मा का ध्यान किया जाता है और ज्ञान योग में परमात्मा के वास्तविक स्वरुप को समझते हुए उसे प्राप्त किया जाता है |तीनों ही मार्गों में संसार से विमुखता होती है और परमात्मा से सम्मुखता |  
क्रमश:
                                || हरिः शरणम् ||

Monday, September 23, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-१

                            आज एक कहानी मुझे याद आ रही है |बात बहुत वर्षों पहले की  है | एक भारतीय गांव की कहानी है यह |उस गांव की आबादी कोई अधिक नहीं थी |गांव के लोग बाकी दुनियां से कटे हुए थे क्योंकि यह गावं चारों और से ऊँचे ऊँचे पहाड़ों से घिरा हुआ था |गांव वाले अपनी जरुरत की चीजे वहीँ पैदा कर लेते और उनका उपयोग करते |कोई भी व्यक्ति पहाड के पार क्या है ,यह जानने की कोशिश ही नहीं करता |गांव में पीढ़ी दर पीढ़ी यही बात प्रचारित की जाती रही कि पहाड़ों के पार ऐसे लोग रहते है जो इस गांव के किसी भी व्यक्ति को देखते ही मार डालते हैं |इसी डर के कारण कोई भी व्यक्ति पहाड़ों के पार झांकने की कोशिश भी नहीं करता |
                               एक बार एक युवक के मन में जिज्ञासा पैदा हुई की एक दिन पहाड़ों के पार जाकर देखा जाये की आखिर वहाँ हो क्या रहा है?उसने अपने कई साथियों को चलने के लिए कहा,परन्तु डर के मारे कोई तैयार नहीं हुआ |आखिर वो अकेला ही चल पड़ा |पहाड़ों के पार उसने देखा कि उस जैसे ही लोग वहाँ रहते हैं |वे लोग बड़े ही आनंद से रहते हैं |किसी को भी किसी बात का भय नहीं है |वहाँ उसको देखते ही सब लोगों ने उसका स्वागत सत्कार किया |वह यह देखकर बड़ा ही खुश हुआ |उसने सोचा ,गांव चलकर सबको यह बताना चाहिए कि हम लोग कितने बड़े भ्रम में जी रहे हैं ?
                                     वह जल्दी जल्दी पहाड से उतरकर गांव में पहुंचा |वहाँ उसने सबको पहाड के पार स्थित गांव के लोगों के बारे में सबको बताया |सब आश्चर्य से उसका मुंह ताक रहे थे |किसी को भी उसकी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था |आखिर उसने कहा कि अगर आपको पहाड के पार का सत्य जानना है तो पहाड पर चढ कर उस पार जाना ही होगा |यहाँ बैठे बैठे वहां के बारे में जानना संभव नहीं है |
                                      आज मैं उस युवक की बात का समर्थन करता हूँ |वह सही कह रहा था |पहाड पर  चढ़े बगैर पहाड के पार का सत्य जानना असंभव है |अगर उस पार की दुनियां को जानना और समझना है तो पहाड पर चढना ही होगा|इतनी मेहनत तो कम से कम करनी ही होगी,अन्यथा सब गांव वाले पहाड के पार की दुनिया को वही समझते रहेंगे,जैसा उसे सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी बताया जा रहा है | सत्य कभी भी विरासत में नहीं मिलता है, उसे तो स्वयं को ही खोजना पड़ता है |विरासत में तो असत्य ही मिलता है,क्योंकि असत्य को कभी भी खोजने की जरुरत ही नहीं होती है |मेहनत तो सत्य को पाने के लिए करनी पड़ती है |इसी प्रकार पुनर्जन्म के लिए कोई मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है ,क्योंकि जिस संसार में पुनर्जन्म होना है वह तो स्वयं असत् है |मेहनत तो सत् को पाने के लिए करनी पड़ती है |और उस सत् को खोजने या जानने के लिए व्यक्ति को पहाड पर चढ कर उस पार जाना ही होगा |पुनर्जन्म असत् को पाना है और असत् से मुक्त हो जाना ही सत् को पाना है |जैसे अंधकार से मुक्त होकर ही प्रकाश को पाया जा सकता है |प्रकाश को कहीं खोजने नहीं जाना होता है |अंधकार मिटा दो,प्रकाश अपने आप प्रकट हो जायेगा |उसके लिए अलग से कोई कोशिश नहीं करनी होती है |
                   पुनर्जन्म संसार की और लौटने का नाम है |यानि असत् की और जाना है |अब व्यक्ति इस और जाये या ना जाये यह उसे स्वयं तय करना होगा |और इसकी तैयारी मानव जन्म में ही करनी होगी |असत् से मुक्त होने की तैयारी |इसीलिए भारतीय दर्शन में त्याग को ही ,कुछ प्राप्त करने का माध्यम बताया गया है |बिना त्याग के ,प्राप्ति असंभव है |संसार से मुक्त हो जाना ही परमात्मा की प्राप्ति है |
                          पुनर्जन्म का आधार क्या होता है ,इसके बारे में हम चर्चा कर चुके हैं |अब हम साधारण रूप से  यह जानने की कोशिश करेंगें कि पुनर्जन्म से बचने का क्या कोई उपाय हो सकता है ?यानि पुनर्जन्म से मुक्ति मिलना|सबसे पहले यह जाने की हम पुनर्जन्म चाहते हैं या नहीं ?आम व्यक्ति जो भी कर्म करता है,उससे अपनी जिंदगी में संतुष्ट नज़र आता है ,परन्तु वास्तव में क्या वह संतुष्ट होता भी है ?अगर गहराई और गंभीरता के साथ सोचें तो जवाब नहीं में ही मिलेगा | वह संतुष्ट किस परिस्थिति मे होगा ?मेरे विचार में इस भूलोक में कोई भी परिस्थिति,किसी भी व्यक्ति को पूर्णतया संतुष्ट कर ही नहीं सकती |इसका मुख्य कारण यह है की मनुष्य शांति और संतुष्टि केवल भौतिक पदार्थों में खोज रहा है |हम सब जानते हैं की भौतिक पदार्थ अनित्य है ,असत् हैं यानि कभी भी और कहीं भी इनका व्यवहार समान हो ही नहीं सकता |भौतिकता सदैव परिवर्तनशील है |जो स्वयं पल पल बदल रहा हो वह आपको स्थाई शांति और संतुष्टि कैसे दे सकता है ?अगर आपको स्थाई शांति और संतोष चाहिए तो असत् और अनित्य से मुक्ति पायें-परमात्मा तो आपका द्वार खोले इंतज़ार कर रहे हैं |देरी केवल आपकी तरफ से है,सत् यानि परमात्मा तो आपका सदियों से इंतज़ार कर रहे हैं और करते रहेंगे क्योंकि आखिर आप उसी के ही तो अंश हैं |
                             गीता में भगवन श्री कृष्ण कहते हैं-
                                          यद्यद्विभूतिमत्सत्वं   श्रीमदूर्जितमेव    वा |
                                          तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंSशसम्भवम् || गीता १०/४१ ||
अर्थात्, जो जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त ,कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है,उस उसको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान |
                           कृष्ण यहाँ कहना चाहते हैं कि यहाँ जो भी कुछ दिखाई दे रहा है,सब मेरे ही अंश है | सबका मूल मैं ही हूँ |फिर सब को मेरे में ही विलीन होना है |ऐसे में मुझ में ही सबको और सब में मुझको ही देख |ऐसा जो भी व्यक्ति स्वीकार कर लेता है ,वह फिर इस अनित्य और असत् मायावी संसार चक्र से बाहर निकल कर मुक्त हो जाता है |
क्रमश:
                               || हरिः शरणम् ||

Sunday, September 22, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ ?-९

क्रमश:
              इस संसार में त्रिगुणी व्यवस्था है |जिस प्रकार किसी भी वस्तु को स्वयं ही अपने बलबूते पर स्थिर रहना हो तो कम से कम तीन आधार जरुरी होते हैं,अन्यथा वह गिर जाती है|इसी प्रकार मनुष्य को भी इस संसार में बने रहने के लिए तीनों गुणों की आवश्यकता होती है |अतः  मनुष्य में भी सभी तीनों गुण स्थित होते हैं और वह सभी गुणों से युक्त कर्म ही करता है |केवल उन गुणों की अधिकता या न्यूनता ही उस व्यक्ति का स्वभाव निश्चित करती है |   समस्या गुणों की नहीं है,वास्तविक समस्या तो मन और उसमे कभी भी पूर्ण न होने वाली अनेक इच्छाएं व कामनाएं हैं,जिसके कारण वह व्यक्ति कर्म करने को वशीभूत होता है | इसलिए जो व्यक्ति मन को नियंत्रित नहीं कर पाता वह इन इच्छाओं और कामनाओं के दुष्चक्र से मुक्त नहीं हो पाता है |जिसने अपने मन पर नियंत्रण पा लिया है,वह शीघ्र ही इस जन्म-मरण के चक्र से भी बाहर निकल जायेगा |गीता में भगवन श्री कृष्ण कहते हैं-
                             यस्त्विन्द्रियाणि  मनसा नियम्यारभतेSर्जुन |
                             कर्मेंन्द्रियै:   कर्मयोगमसक्तः   स   विशिष्यते || गीता ३/७ ||
अर्थात्,हे अर्जुन!जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्म योग का आचरण करता है ,वही श्रेष्ठ है |
                          यहाँ भगवान अर्जुन को यही समझा रहे हैं कि कर्म करने से कोई भी,कहीं भी और कभी भी अपने आप को रोक नहीं सकता |अतः जब आप अपने अनुरूप कुछ कर ही नहीं सकते तो कर्म करने से अपने आप को अलग करने का विफल प्रयास भी क्यों करते हो ? इसका समाधान भी श्री कृष्ण ही सुझाते हैं,और कहते हैं कि आपके बस में कर्म को करने से रोकना नहीं है बल्कि आपके बस में इन्द्रियों को नियंत्रण में रख पाना अवश्य है |अतः इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए अपनी कामनाओं और इच्छाओं को नियंत्रण में रखें और कर्म करते रहें |ऐसे किये गए कर्म आपको विचलित नहीं होने देंगे |
                   पुनर्जन्म के बारे में जो भी अब तक विश्लेषण किया गया है,यह आम व्यक्ति को समझ में आसानी से आ जाये ,इस तरीके से किया गया है |यह एक बड़ा ही गूढ़ विषय है ,जिस पर चाहे जितना लिखा जा सकता है,परन्तु प्रश्न यही पैदा होता है कि लिखने का उद्देश्य क्या होना चाहिए ?मेरा उद्देश्य मात्र इतना ही है कि पुनर्जन्म के बारे में जो भी भ्रांतियां आम व्यक्ति के मन में है ,उन्हें दूर किया जा सके |मरने के बाद क्या होना है,यह अभी भी आम व्यक्ति की समझ से परे है |यह प्रयास उसे मानव जीवन ,कर्म,मृत्यु और पुनर्जन्म और उनसे सम्बंधित ज्ञान-विज्ञानं के बारे में अगर उसकी जिज्ञासा को पूर्ण कर सके ,तो मैं अपना प्रयास सफल समझूँगा |मेरा एकमात्र यही उद्देश्य है |
                   इस प्रकार हम समझ सकते है कि--
                               १.केवल मानव योनि में किये हुए कर्मों के परिणाम ही नए जन्म व नयी योनि में ही उपलब्ध होते हैं|जो भी कर्म मनुष्य योनि के अलावा अन्य योनियों में किये जाते है,वस्तुतः वे कर्म न होकर पूर्व मनुष्य योनि में किये गए कर्मों के फल ही होते हैं|इन्हें कर्म की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है|ये कर्म मात्र पूर्व जन्म में किये गए कर्मों को समाप्त करने के लिए ही किये जाते हैं|अतः इन कर्मों का कोई कर्मफल नहीं होता है|
                               २.पुनर्जन्म मन में अधूरी रही इच्छाओं और कामनाओं का होता है,न कि आत्मा का| क्योंकि आत्मा न तो कभी जन्म लेती है और न ही कभी मारी जाती है|
                                ३.मनुष्य योनि में कामनाओं की पूर्ति के लिए किये गए कर्मों का परिणाम भावी जन्म में  ही मिलता है|यह कब ,कहाँ और किस योनि में मिलना है,यह सब आत्मा ही तय करती है|आत्मा ही परमात्मा की एकमात्र प्रतिनिधि है|अतः साधारण जन इसे परमात्मा का कार्य ही समझते हैं |
                               ४.परमात्मा ने पूरे विश्व को कर्म-प्रधान कर रखा है|जो भी यहाँ जैसे भी होना है ,वह सब व्यक्ति के किये गए कर्मों के अनुसार ही होना है|इसके लिए वह स्वयं ही जिम्मेवार होता है,कोई अन्य नहीं|
                                ५.त्रिगुणी कर्म ही पुनर्जन्म का कारण है |अगर पुनर्जन्म नहीं चाहते ,तो गुणातीत होना होगा |सभी गुणों से ऊपर उठना होगा |इसी अवस्था को मोक्ष और परमात्मा की प्राप्ति होना कहते हैं |
                                ६.पुनर्जन्म हेतु शरीर का चयन आत्मा ही करती है,लेकिन उस शरीर में उसका प्रवेश जन्म लेने की प्रकिया के दौरान या जन्म के बाद ही होता है,पहले नहीं |
                                ७.मानव जीवन के दौरान ही व्यक्ति कर्म करके अपना भावी जन्म या मोक्ष ,दोनों में से कोई भी एक प्राप्त कर सकता है|यह अधिकार उसको केवल मात्र मनुष्य योनि में ही उपलब्ध है,अन्य योनियों में नहीं| इसी कारण से मनुष्य योनि को भोग योनि के साथ साथ योग योनि भी कहा गया है| अन्य सभी योनियाँ मात्र भोग योनियाँ ही हैं |

                     || हरिः शरणम् || 

Saturday, September 21, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ ?-८

क्रमश:
पुनर्जन्म प्रक्रिया की वैज्ञानिक अवधारणा ---
                                     जब शरीर का विद्युत क्षेत्र निष्प्रभावी हो जाता है,तब आत्मा चित्त के साथ चुम्बकीय तरंगों के रूप में शरीर से अलग होकर वायुमंडल में भ्रमण करती रहती है |इस दौरान चित्त में अंकित कामनाएं व् इच्छाओं के लिए किये गए कर्मों के आधार पर आत्मा गणना करती है |यह गणना गणित के आधार पर होती है |जैसे गणित में दो और दो चार ही होते हैं,पांच या तीन नहीं |उसी प्रकार किये गए कर्मों के गुणों के आधार पर भावी शरीर  की एक संभावित प्रतिलिपि बना ली जाती है |उस शरीर में किस प्रकार कर्म फलों को कैसे और कब कब भोगना होता है ,वह सब समयानुसार चुम्बकीय तरंगों के रूप में अंकित कर दिया जाता है |यह सब उसी प्रकार होता है ,जैसे एक कंप्यूटर सी.डी.तैयार करता है |जैसे सी.डी. तैयार हो जाने के बाद उसमे कोई भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता ,उसी प्रकार आत्मा के द्वारा तैयार इस चुम्बकीय तरंगों को भी परिवर्तित नहीं किया जा सकता|ये चुम्बकीय तरंगे शरीर के साथ संयुक्त होकर समय समय पर वह सभी कार्य संपन्न करती है जैसे उसको पूर्व में ही निर्देशित कर दिया गया है |
                                          इस प्रकार भावी जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक जो जो और जब जब घटित होना है वह सब तैयार हो जाता है |यह सब तैयार हो जाने के बाद आत्मा उसी के अनुसार शरीर और परिवेश की तलाश करती है |जब उसकी तलाश पूरी हो जाती है तब शरीर में प्रवेश की तैयारी में आत्मा संलग्न हो जाती है |इसके लिए समय समय पर वह उस चयनित शरीर का निरीक्षण भी करती रहती है |जब शरीर उसके पूर्ण रूप से अनुकूल तैयार हो जाता है,तब जन्म के दौरान आत्मा उसमे प्रवेश करती है |
                                शरीर का आत्मा की तरफ का ध्रुव ,आत्मा के ध्रुव से विपरीत होता है |जन्म के समय आत्मा आकर्षित होकर शरीर के साथ संयोग कर लेती है |अब शरीर और आत्मा दोनों एक इकाई के रूप में कार्य करने लगते हैं |जब दो चुम्बकों के दो विपरीत ध्रुव एक दूसरे को आकर्षित कर के संयुक्त हो जाते हैं तब वे सिर्फ एक चुमबक की तरह ही व्यवहार करने लगते हैं |प्रश्न उठता है कि आत्मा जब शरीर का चयन कर लेती है और उसका चुम्बकीय व्यवहार होता है तो दूसरे का शरीर उसे भी तो आकर्षित कर सकता है,फिर वह अपने चयन किये हुए शरीर की और ही क्यों जाती है ? जिस प्रकार सब रेडियो स्टेशन की तरंगों की अपनी अपनी  तरंग दैर्ध्य ( Wave length ) होती है ,उसी प्रकार सब आत्माओं की चुम्बकीय तरंगों की तरंग दैर्ध्य भी अलग अलग होती है |इस कारण से आत्मा केवल अपने चयनित शरीर की तरफ ही अग्रसर होती है,अन्य की तरफ नहीं |
    आत्मा के द्वारा की जाने वाली गणना में कितना समय लगता है,यह निश्चित नहीं है |जब गणना तुरन्त हो जाती है तो पुनर्जन्म भी तत्काल हो सकता है |अगर गणना में ज्यादा समय लगने की सम्भावना हो तो पुनर्जन्म में भी समय लग जाता है |अतः यह सब कुछ मानव योनि के दौरान अपूर्ण रही इच्छाओं और कामनाओं  तथा किये गए कर्मों की जटिलता पर ही निर्भर होता है |
        अगर किसी व्यक्ति के कर्म चित्त में अंकित ही न हो ,ऐसा कभी भी होने की सम्भावना न के बराबर है,क्योंकि मानव जीवन में कभी भी कोई व्यक्ति कर्म किये बिना नहीं रह सकता |गीता में भगवन श्री कृष्ण कहते हैं-
                          न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
                          कार्यते   ह्यवशः   कर्म   सर्वः   प्रकृतिजैर्गुणे: || गीता ३/५ ||
अर्थात्,निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में बिना कर्म किये नहीं रहता;क्योंकि सारा मानव समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |
                          अतः यह स्पष्ट है कि मनुष्य अपने जीवन में कभी भी एक पल के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता है |और अगर कर्म होते हैं तो फिर उनका कर्मफल भी मिलना निश्चित होता है |चित्त में कर्म प्रत्येक व्यक्ति के अपने जीवन काल में अंकित होते रहते हैं और आगे उसे उनका फल भी मिलना निश्चित होता है |सब कुछ इसी बात पर निर्भर करता है कि कर्म के पीछे की भावना क्या थी |मुख्य रूप से कर्म करने के पीछे की  इच्छा,भावना और कर्म करने की विधि पर ही उस कर्म का फल मिलना निश्चित होता है |कर्म तो त्रिगुणी व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति करता है ,परन्तु कर्मफल ,कर्मों के गुणों के अनुसार ही तय होता है |गुणातीत व्यक्ति बिना गुणों का संग किये कर्म करता है ,अतः उसके कर्मफल नहीं के बराबर या नहीं भी होते है | ऐसी स्थिति में आत्मा की गणनानुसार उसे कोई भी योनि उपलब्ध नहीं होगी|इस कारण आत्मा के अतिरिक्त किसी का भी चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र विकसित नहीं होगा|चूँकि आत्मा मूल रूप से परमात्मा का ही अंश है |अतः अब आत्मा केवल परमात्मा की तरफ ही आकर्षित होगी और उस परम चुम्बकीय क्षेत्र यानि परमब्रह्म परमात्मा से संयोग कर लेगी |इसी अवस्था को परमात्मा की प्राप्ति या जन्म-मरण से मुक्ति या मोक्ष होना कह सकते हैं |पढने सुनने में गुणातीत होना बड़ा आसान लगता है परन्तु व्यावहारिक रूप से गुणातीत होना असंभव नहीं तो बहुत ही कठिन अवश्य है |
क्रमश:
                           || हरिः शरणम् ||

Friday, September 20, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ?-७

क्रमश:
                पुनर्जन्म से मुक्ति के लिए मनुष्य को गुणातीत होना आवश्यक है |गीता में भगवान श्री कृष्ण, गुणातीत के लक्षण(Properties of Gunateet) बताते हुए कहते हैं-
                             प्रकाशं  च  प्रवृत्तिं  च मोहमेव  च  पाण्डव |
                             न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानी न निवृत्तानि कांक्षति || गीता १४/२२ ||
                             उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते |
                             गुणा वर्तन्त इत्येव योSवतिष्ठति नेन्गते || गीता १४/२३ ||
                             समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकांचन:|
                             तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्य निंदात्मसंस्तुतिः|| गीता १४/२४ ||
                             मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपकक्षयो:|
                             सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतःस उच्च्यते  || गीता १४/२५ ||
             अर्थात्,हे अर्जुन!जो पुरुष सत्वगुण के कार्य रूप प्रकाश को , रजोगुण के कार्यरूप प्रवृति को और तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत होने पर द्वेष करता है और न ही निवृत होने पर उनकी आकांक्षा करता है | जो साक्षी की तरह स्थित हुआ, गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते हैं ऐसा समझता हुआ परमात्मा में एकाकी भाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता है |जो निरंतर आत्म भाव में स्थित दुःख-सुख को समान समझने वाला , मिट्टी,पत्थर,और स्वर्ण में समान भाव वाला ,ज्ञानी,प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निंदा-स्तुति में भी समान भाव वाला है |जो मान और अपमान में सम है ,मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है. वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है |    
             गुणातीत व्यक्ति किसी भी स्थिति में अपना पतन नहीं होने देता है |वह सम(Balanced) की स्थिति में रहना जानता है |उसे दुःख-सुख,मन-अपमान,मिट्टी-सोना,ज्ञानी-अज्ञानी,मित्र-शत्रु और निंदा-प्रशंसा जरा भी प्रभावित नहीं कर पाती है |किसी भी कार्य को प्रारंभ करते समय और कार्य के समापन तक उसमे कर्ताभाव (Doer)देखने को नहीं मिलता |यही लक्षण उसे गुणयुक्त पुरुष से अलग करते हैं |गुणातीत पुरुष की भूमिका इस संसार में मात्र एक साक्षी(Observer) की रहती है |वह सब कुछ परमात्मा को ही समझता है और एकाकी भाव से परमात्मा में ही स्थित रहता है |  वह इस संसार में रहते हुए भी संसार को अपने भीतर प्रवेश नहीं करने देता |इसी अवस्था को जीवित रहते हुए भी मुक्त होना कहते हैं | इसी को परमात्म तत्व को पा लेना कहते हैं |              
            आगे गीता में भगवन श्री कृष्ण कहते हैं -
                          माँ च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
                          स गुणान्समती त्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते || गीता १४/२६ ||
अर्थात्,जो पुरुष अव्यभिचारिणी भक्तियोग द्वारा मुझको निरंतर भजता है वह इन तीनों गुणों को भली भांति लाँघ कर सच्चिदानंदघन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिए योग्य बन जाता है |अव्यभिचारिणी भक्ति का अर्थ है कि केवल परमात्मा को ही सब कुछ मान लेना |    
                  रामचरितमानस में गोस्वामीजी लिखते हैं-
                                निर्मल मन जन सो मोहि पावा |मोहि कपट छल छिद्र न भावा ||(सुन्दरकांड४४/५)
                  इसी बात को संत कबीर इस तरीके से कहते हैं-
                               मन ऐसा निर्मल भया,जैसे गंगा नीर |
                                पाछे पाछे हरि फिरे,कहत कबीर कबीर ||
                  गुणातीत के लक्षणों को गोस्वामीजी ने बहुत ही स्पष्ट व अल्प शब्दों में कह दिया है|भगवान कहते हैं कि जिसका मन साफ होगा ,वही मुझको प्राप्त कर सकता है |मन के साफ व स्वच्छ होने का अर्थ वही है जो गीता में गुणातीत के लज्शन बताये गए हैं |इसी प्रकार कबीर भी इसी बात को दोहराते हैं |वे कहते हैं कि जब आप अपना मन निर्मल यानि साफ कर लेते हैं तब परमात्मा ही आपको ढूंढ लेते हैं |
                   निर्मल मन का अर्थ यह हुआ की मन में कोई भी ऐसे कर्म अंकित हुए ही नहीं जिनका कर्मफल अगले जन्म में मिलने की कोई सम्भावना नहीं होती है | इस कारन से देह त्यागने के बाद केवल आत्मा का ही चुम्बकीय क्षेत्र रहता है |चित्त में कर्म अंकित रहते नहीं है,फिर उनकी चुम्बकीय तरंगे आत्मा को निर्मित ही नहीं करनी होती |  ऐसी स्थिति में आत्मा अपने मूल स्वरुप परम ब्रह्म परमात्मा की तरफ आकर्षित हो उसमे विलीन हो जाती है,जैसे नदी अपने ही मूल श्रोत सागर में जाकर विलीन हो जाती है |          

क्रमश:
                           || हरिः शरणम् || 

Wednesday, September 18, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ?-६

क्रमश:
                     तीनों गुणों के अनुसार ही व्यक्ति का स्वभाव होता है |उसे उसकी प्रकृति कहा जाता है|उन्ही गुणों के अनुसार वह व्यक्ति कर्म करता है|उसकी बुद्धि भी गुणों के अनुरूप ही होती है|सात्विक,राजसिक और तामसिक गुण प्रत्येक व्यक्ति में होते हैं |जिस गुण की बहुलता ज्यादा होती है वह व्यक्ति उसी प्रकृति का माना जाता है|सात्विक व्यक्ति में राजसिक और तामसिक गुण अल्प मात्रा में और नियंत्रण में होते है |जिसके कारण सात्विक व्यक्ति के कर्म बहुदा सात्विक ही होते हैं|परन्तु कभी कभी उससे भी राजसिक या तामसिक कर्म हो ही जाते हैं|राजसिक व्यक्ति में राजस गुण बहुतायत में होते हैं|राजसिक गुण सात्विक और तामसिक गुणों  को नियंत्रण में रखते हुए बढ़ते हैं|राजसिक व्यक्ति ज्यादातर राजसिक कर्म ही करते हैं,परन्तु कभी कभी उससे सात्विक या तामसिक कर्म भी जीवन में हो जाते हैं|इसी प्रकार तामसिक प्रकृति के व्यक्ति में तामसिक गुण ही पाए जाते हैं |तामसिक गुण सात्विक और राजसिक गुणों को नियंत्रण में रखते हुए बढ़ते है|तामसिक गुणों से युक्त व्यक्ति प्रायः तामसिक कर्म ही करते हैं|परन्तु कभी कभी इनसे भी सात्विक या राजसिक कर्म हो जाते हैं|
                              जीवन में किये गए कर्मों का लेखा जोखा चित्त में अंकित होता रहता है|जीवन में एक आम आदमी, कर्म अपनी इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति के लिए ही करता है|अतः ये अपूर्ण रही इच्छाए और कामनाएं ही पुनर्जन्म का कारण बनती है ,और इन इच्छाओं को पूरी करने के लिए किये गए कर्म उसके भावी जीवन का भविष्य निश्चित्त करते हैं|पुनर्जन्म की सीधी सादी और सरल गणित मात्र इतनी ही है|
                              कर्म चाहे किसी प्रकार के हों और व्यक्ति की प्रकृति किसी भी गुण से सम्बंधित हो,पुनर्जन्म तो अवश्यम्भावी है|हाँ,किस योनि में होना है और भविष्य कैसा होगा ,यह सब कर्म के गुणों के उपजे फल पर निर्भर करता है|परन्तु मानव जन्म का एक मात्र उद्देश्य केवल मात्र यह तो नहीं हो सकता कि सात्विक कर्म करते हुए उच्च लोकों में आनंद प्राप्त कर पुनः इस दु:खालय यानि इस दु:खों से परिपूर्ण भौतिक संसार में अवतरित होना पड़े और जन्म मरण के चक्र से छुटकारा न मिल सके |ऐसी स्थिति में फिर व्यक्ति का क्या उद्देश्य होना चाहिए?यही विचारणीय विषय होना चाहिए |
                             जब सभी कर्मों के करने से पुनर्जन्म ही होता है तो फिर इन गुणों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ना होगा,जिससे इन पुनर्जन्मों से मुक्ति मिल सके|इस अवस्था को गुणातीत होना कहते हैं |भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-
                             गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् |
                             जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोSमृतमश्नुते || गीता १४/२०||
अर्थात्,पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप इन तीनों गुणों का उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु,वृद्धावस्था और सब प्रकार के दु:खों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है|तीनों गुणों की उत्पत्ति का कारण पहले वर्णित स्थूल प्रकृति के २३ तत्व हैं|ये हैं-पञ्च भूत(भूमि,जल,अग्नि,आकाश और वायु),पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ,पांच ही इनके विषय,पांच कर्मेंदियाँ,मन, बुद्धि और अहंकार|
                   यहाँ भगवान श्री कृष्ण यह कहते हैं कि सात्विक,राजसिक और तामसिक गुणों का उल्लंघन करके ही परमात्मा को पाया जा सकता है,क्योंकि सभी गुण स्थूल शरीर की उत्पति से ही अस्तित्व में आयें है,जिसके कारण इन गुणों का संग ही पुनर्जन्म का एक मात्र कारण है|अतः अगर पुनर्जन्म से मुक्त होना है,तो इन गुणों से भी मुक्त होना होगा अर्थात् व्यक्ति को इन गुणों से ऊपर उठकर गुणातीत होना होगा,जो कि परमात्मा स्वयं की प्रकृति है|परमात्मा प्रत्येक भौतिक शरीर में अपने ही अंश आत्मा के रूप में अवस्थित रहता है|अतः आत्मा भी गुणातीत ही होती है|लेकिन शरीर में रहते हुए वह उपरोक्त २३ स्थूल प्रकृति के तत्वों के गुणों का संग कर लेती है |इन गुणों के संग के कारण ही मन में कई इच्छाएं और कामनाएं पैदा होती है |इन इच्छाओं और कामनाओं को पूरा करने के लिए तीन गुणों से युक्त कर्म शरीर करता है,और वही कर्म , पुनर्जन्म निर्धारित करता है |अतः यदि इस संसार में पुनः नहीं लौटना है तो इस त्रिगुणी व्यवस्था से भी व्यक्ति को ऊपर उठना होगा |तभी इस दु:खालय में न लौटकर परमात्मा का सानिध्य प्राप्त किया जा सकता है |
क्रमश:
                        || हरि: शरणम् ||     

Tuesday, September 17, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ?-५

क्रमश:
                      तामसिक गुणों से युक्त पुरुष की गति भी उसके किये गए कर्मों के अनुरूप ही होती है | तामसिक व्यक्ति ज्यादातर तामसिक कर्म ही करता है|गीता में भगवान श्री कृष्ण तामसिक कर्मों के लक्षण समझाते हुये कहते हैं-
                              अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् |
                              मोहादारभ्यते   कर्म   यत्तत्तामसमुच्यते || गीता १८/२५ ||
अर्थात्,जो कर्म परिणाम,हानि,हिंसा और सामर्थ्य का विचार किये बिना केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है,वह कर्म तामसिक कहा जाता है|
                       तामसिक कर्ता कोई भी कार्य बिना सोचे विचारे प्रारंभ कर देता है|उसे कार्य का ज्ञान भी नहीं होता कि ऐसे कर्म कों करने की क्या तो विधि होनी चाहिए,उसे कैसे परिणाम तक पहुँचाया जाये या इस कर्म का संभावित परिणाम क्या होगा?उसका उद्देश्य तो प्रत्येक कर्म का येन-केन-प्रकारेण अपने मनवांछित फल कों प्राप्त करना होता है,चाहे उसके लिए उसे कितने भी प्रयास शास्त्र विरुद्ध करने पड़े|वह यह समझ ही नहीं पाता कि आज जो भी फल उसे प्राप्त हो रहें है वह सब पूर्व जन्म के कर्मों के फल है ना कि इस जन्म के किये गए कर्मों का फल|इस जन्म में किये गए कर्मों के फल तो उसे अगले जन्म में ही प्राप्त हो पाएंगे|इस कों सही तरीके से समझ नहीं पाना ही उसका अज्ञान है|
                          तामसिक कर्ता शिक्षा से रहित तो होता ही है,साथ में वह घमंडी,धूर्त दूसरों की जीविका का नाश करनेवाला भी होता है|ऐसा कर्ता आलसी होता है और तत्काल करने वाले कार्य कों भी टालता रहता है|इसका कारण उसकी तामसिक बुद्धि ही होती है|तामसिक बुद्धियुक्त पुरुष अधर्म कों भी "यही धर्म है" ऐसा मान बैठता है|लाख समझाने पर भी वह यथार्थ कों समझने का प्रयास भी नहीं करता है|  इसी प्रकार वह सभी संज्ञान में आने वाली बातों के विपरीत कों ही सही  मान लेता है |ऐसा व्यक्ति बाहरी तौर पर देखने में चाहे कितना ही निश्चिन्त और बहादुर नजर आता हो परन्तु वास्तव में वह जीवन में निद्रा,भय,शोक,चिंता ,दुख,दुर्बलता और उन्मत्तता कों त्याग ही नहीं सकता |यही उसकी सबसे बड़ी विडम्बना है|
                           तामसिक कर्मों से  उसे सुख का जो अनुभव  होता है वह आत्मा कों भी मोहित कर देता है जबकि ऐसा सुख मात्र आलस्य ,निद्रा और प्रमाद से ही उत्पन्न होता है|तामसिक व्यक्ति ईश्वर की पूजा,तप और यज्ञ भी शास्त्रविधि के बिना,अन्नदान से रहित,बिना मन्त्रों के और बिना श्रद्धा के करता है|तामसिक कर्ता तप भी मूढतापूर्ण तरीके से,हठपूर्वक तथा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए करता है|वह दान भी तिरस्कारपूर्वक  व अयोग्य तथा कुपात्र कों ही करता है|
                               ऐसी तामसिक वृति वाला पुरुष मरणोपरांत कई वर्षों तक नीच योनियों में जन्म लेकर भटकता रहता है|जहाँ उसे बहुत ही प्रकार के कष्ट सहने पड़ते हैं|जब उसके सभी तामसिक कर्मों का फल पूर्ण रूप से भोगे जाने के बाद समाप्त हो जाते हैं तब उसे वापिस मानव योनि सुलभ होती है|यहाँ पर भी ज्यादा सम्भावना इसी बात की रहती है कि उसका जन्म निम्न कुल में ही होगा|परन्तु मानव योनि ही एक मात्र ऐसी योनि है,जिसमे जन्म ले कर व्यक्ति अपनी स्थिति में सुधार कर सकता है|अगर कोई तामसिक वृति का व्यक्ति तामसिक कर्मों के साथ साथ सात्विक कर्म भी एकाधिक बार कर लेता है तो भी प्रारंभ में उसे नीच योनियों में ही कई वर्षों तक भटकते रहना होगा|हाँ,ऐसा अवश्य होगा कि मानव योनि में उसका जन्म निम्न कुल की जगह माध्यम कुल में हो,जिससे वह अपने आप का उत्थान कर सके|
                     एक बार पुनः मानव योनि प्राप्त करने के बाद जिस प्रकार के कर्म वह करेगा ,उसी प्रकार से उसका भावी जन्म निश्चित होगा |तामसिक कर्मों का फल नीच योनियों में भोगलेने के पश्चात जब मानव योनि में जन्म होता है तो तामसिक प्रकृति के व्यक्ति का चित्त प्रारंभ में निर्मल अवस्था में होता है|उसे जो भी वातावरण अपने परिवार व परिवेश में मिलता है,उसी के अनुरूप उसका विकास होता है,जो उसकी अपनी स्थिति को सुधारने में भी सहायक सिद्ध हो सकता है|वह उच्च कोटि के कर्म करने को प्रेरित हो सकता है |
क्रमश:
               || हरी शरणम् || 

Monday, September 16, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ?-४

क्रमश:
                          सात्विक गुणों से युक्त पुरुष जब अपने मानव जीवन काल में सात्विक कर्म करता है तो शरीर त्यागने के पश्चात उसकी गति के बारे में स्पष्ट हो चूका है|परन्तु अगर ऐसा व्यक्ति अगर सात्विक कर्मों के साथ साथ कुछेक राजसिक या तामसिक कर्म करता है तो फिर उसकी क्या गति होगी?ऐसे पुरुष का देव व ब्रह्म लोक में निवास अल्प अवधि का ही होता है और राजसिक या तामसिक कर्म का फल उसे पुनः मानव योनि में आकर भुगतना होगा |
                              राजसिक कर्म के लक्षण बताते हुये भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-
                                                 यत्तु कामेप्सुना कर्म साहन्कारेण वा पुनः |
                                                 क्रियते    बहुलायासं    तद्राजसमुदाहृतम् || गीता १८/२४ ||
अर्थात्,जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों कों चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है,वह कर्म राजस कहा गया है|
               अगर हम आज के समाज में रह रहे व्यक्तियों का अवलोकन करें तो हमें ज्यादातर लोग राजस कर्म करते हुये ही प्रतीत होंगे|आज प्रायः सभी जन, भोगों की प्राप्ति के लिए बहुत ही श्रम वाले कर्म करते हैं|जिन लोगों कों सभी भोग उपलब्ध है वे अहंकार रखते हुये इसी प्रकार के कर्म करते है|ऐसे कर्म करने वाला कर्ता आसक्ति से युक्त,कर्मों का फल चाहने वाला तथा लोभी होता है|राजसिक व्यक्ति दूसरों कों कष्ट देनेवाला तथा अशुद्ध आचरण करने वाला होता है|राजसिक कर्ता हर्ष-शोक से लिप्त होता है|किसी उपलब्धि पर वह हर्षित हो जाता है तथा कभी विपरीत परिणाम पाने पर उतना ही शोकग्रस्त हो जाता है|
                                        ऐसे राजसिक गुणों से युक्त पुरुष के कर्म भी प्रायः राजसिक लक्षण वाले ही होते हैं|चूँकि राजसिक व्यक्ति का संसार में जबरदस्त आकर्षण होता है,और वह जीवन भर सांसारिक भोगों के प्रति आसक्त रहता है और उन भोगों कों प्राप्त करने के लिए वह श्रमशील भी होता है|ऐसे व्यक्ति देह त्यागने के उपरांत तत्काल ही मानव योनि में पुनर्जन्म लेते है और अपने अधूरे भोगों और कामनाओं कों पूरा करने हेतु राजसिक कर्म करने लगते है|यह चक्र मानव दर मानव योनि सतत चलता रहता है,जब तक कि वह सत्संग के माध्यम से परमात्मा की तरफ उन्मुख नहीं होता|
                                         राजसिक गुणों से युक्त व्यक्ति अपने जीवन काल में तामसिक या सात्विक कर्म भी कर लेता है|ऐसी परिस्थिति में अगर उसने साथ में एकाधिक तामसिक कर्म किये है तो उनकी तीव्रता के अनुसार पहले नीच योनि में भी जन्म लेना पड़ सकता है|तामसिक कर्मफलों कों भोगने के बाद उसे पुनः मानव योनि सुलभ हो जाती है|इसी प्रकार अगर उसने एकाधिक सात्विक कर्म किये है तो भी उसका उच्च लोक में जाना संभव नहीं है|हाँ,इतना अवश्य होता है कि मानव योनि प्राप्त होने पर उसका जन्म पूर्वजन्म से अच्छे कुल में हो जाता है,जहाँ अपने सात्विक कर्म का फल प्राप्त करता है|
                                         राजसिक गुणों से युक्त व्यक्ति की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि वह धर्म और अधर्म तथा कर्तव्य और अकर्तव्य कों यथार्थ रूप से नहीं जानता क्योंकि उसकी बुद्धि भी राजसिक प्रवृति की होती है|ऐसा व्यक्ति इन्द्रियों से प्राप्त  क्षणिक सुख कों ही वास्तविक सुख मान लेता है,जबकि वह वास्तविक सुख होता नहीं है|जो सुख इन्द्रियों के संयोग से वह प्राप्त करता है वह भोग काल में तो अमृत तुल्य प्रतीत होता है लेकिन उसके परिणाम विष तुल्य होते हैं|इन्द्रियों के अत्यधिक भोग बल,वीर्य ,बुद्धि, धन और उत्साह नाशक तो होते ही है,साथ ही परलोक नाशक भी होते है|कहने का तात्पर्य यह है कि  शरीर त्यागने के बाद भी इन भोगों के लिए किये गए कर्मों के फल भी विषतुल्य होते हैं|
                                     इसी प्रकार राजसिक गुणों से युक्त व्यक्ति अगर ईश्वर की पूजा और यज्ञ तपादि भी करता है तो केवल दम्भाचरण के लिये फल कों ही दृष्टि में लिए करता है| जिसका परिणाम भी श्रेष्ट प्राप्त नहीं होता|क्योंकि  सब कर्म फलों की प्राप्ति कों ध्यान में रखकर किये जाते हैं|
                             अतः स्पष्ट है कि राजसिक स्वभाव युक्त पुरुष मानव जन्मों में इसी प्रकार भटकता रहता है,फिर भी उसकी भोगों की कामनाएं किसी भी जन्म में पूरी नहीं हो पाती|और वह इस जन्म-मरण के चक्र से कभी भी मुक्त नहीं हो पायेगा| उसका हर बार मानव रूप में पुनर्जन्म होता रहेगा|
क्रमश:
                         || हरि शरणम् || 

Friday, September 13, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ?-३

क्रमश:
                     श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                  मनुष्याणां   सहस्रेषु   कश्चिद्यतति   सिद्धये |
                                  यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेति तत्वतः || गीता ७/३ ||  
अर्थात्, हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से यानि यथार्थ रूप से जानता है|
                        पहली बात तो यह है कि ज्यादातर लोग तो परमात्मा कों प्राप्त करने का प्रयास ही नहीं करते हैं|कोई  हजारों लोगों में से कोई मात्र एक व्यक्ति ही इसके लिए प्रयत्न करता है|और ऐसे हजारों प्रयत्न करने वालों में भी कोई एक परमात्मा के प्रति समर्पित होकर उसे तत्व से अर्थात् उसके वास्तविक स्वरुप कों जान पाता है|ऐसा व्यक्ति जिसे भी योगी कहा जा सकता है ,वह योगी शरीर त्यागने के पश्चात परमात्मा कों ही प्राप्त होता है और जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है|इस बात कों और अधिक स्पष्ट करते हुये भगवान कहते हैं-
                                 अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना |
                                 परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् || गीता ८/८ ||
अर्थात्,हे पार्थ!यह नियम है कि परमात्मा के प्रति ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त,दूसरी और न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम दिव्य पुरुष अर्थात परमपिता परमेश्वर कों प्राप्त होता है|
                      इससे यह स्पष्ट होता है कि परमात्मा को अनन्य  भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है|मन कों केवल मात्र परमात्मा के प्रति समर्पित करते हुये एक मात्र उनका चिंतन करते रहने से ही उसकी प्राप्ति सुलभ हो जाती है |इसके लिए एक मात्र परमात्मा के प्रति ध्यान का अभ्यास करते रहना होगा |बिना अभ्यासयोग के ध्यान असंभव होता है|बिना ध्यान के मन पर नियंत्रण रखना असंभव होता है,जिससे परमात्मा की प्राप्ति भी दुर्लभ हो जाती है|रामचरितमानस में गोस्वामीजी कहते हैं कि-
             सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं |जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ||सुन्दरकाण्ड ४४/२ ||
भगवान कहते हैं कि जीव ज्योंही मेरे सम्मुख होता है,त्योंही उसके करोडों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं|जब विभीषण कों रावण ने लंका से निकाल दिया था,तब वह भगवान की शरण में आने कों वहां से निकल पड़ा था|यह प्रसंग उस समय का है|रावण से निराश होकर विभीषण ने एक मात्र भगवान श्री राम का सहारा लिया था|और भगवान श्री राम ने उसे निराश नहीं किया|उस समय विभीषण ने भगवान श्री राम के प्रति अनन्य भक्ति प्रदर्शित की थी|उसी कारण से विभीषण कों परमात्मा उपलब्ध हुये|
                                सतो गुण से युक्त पुरुष कुछ काल के लिए ब्रह्म या देव लोक में रहने के बाद वापिस मानव योनि में जन्म लेते हैं|जिसका वर्णन पहले किया जा चूका है|रजो गुण से युक्त पुरुष का पुनर्जन्म तत्काल ही मानव योनि में ही हो जाता है|क्योंकि इस गुण से युक्त पुरुष का देह ,परिवार,समाज ,ऐश्वर्य आदि के प्रति मोह इतना अधिक होता है कि अपने आखिरी समय में भी वह इन्हीं का चिंतन करता रहता है|भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि इस भौतिक देह कों त्यागते समय जो जो ,जिस जिस का स्मरण करता है वह वह उसी भाव कों प्राप्त होता है|(गीता ८/६ )|अतः यह स्पष्ट है कि राजसिक गुणों से युक्त पुरुष बार बार मानव के रूपमे ही इस धरा पर जन्म पाते रहते  हैं और इस पुनर्जन्म के चक्र से निकल ही नहीं पाते हैं|
                                       गीता में सात्विक कर्म के लक्षण भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार कहे हैं-
                                                       नियतं       संगरहितमरागद्वेषतः   कृतम् |
                                                       अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्विक मुच्यते || गीता १८/२३ ||
                    अर्थात्,जो कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो-वह सात्विक कर्म कहा जाता हैं|
                                  सात्विक कर्म बिना फल की ईच्छा के किये जाते हैं जिससे कर्मबंधन नहीं हो पाता है|अतः कर्मफल के रूप में किसी भी योनि का मिलना संभव नहीं होता है|सात्विक कर्म में कर्म फल का त्याग किया जाता है|यह सब सात्विक ज्ञान के कारण ही संभव हो पाता है| इस कर्म से युक्त पुरुष  उच्च लोक में जाकर कुछ समय तक रहते हैं|जब इन सात्विक कर्मों के अनुसारफल प्राप्त करने के उपरांत  अवधि पूरी हो जाती है तब इस भूलोक में मानव योनि में उनका पुनर्जन्म होता है|
क्रमश:
                         || हरि शरणम् ||
      

Thursday, September 12, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ?-२

क्रमश:
                     गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                       आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोSर्जुन |
                                       मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते || गीता ८/१६ ||
अर्थात्,हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! ब्रह्मलोक पर्यंत सब लोक पुनरावर्ती है,परन्तु जो मुझको प्राप्त हो जाता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता |
                           यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण ने ब्रह्म लोक को सम्मिलित करते हुये कहा है कि इन सभी लोकों में गए पुरुष वापिस लौटते है,अर्थात् उन सभी का मानव योनि में कभी ना कभी पुनर्जन्म होना अवश्यम्भावी है|फिन पुनर्जन्म कहाँ जाने पर नहीं होता उसको समझाते हुये कहते हैं-
                                       परस्तस्मात्तु भावोSन्योSव्यक्त्तोSव्यक्त्तात्सनातनः |
                                       यः    स   सर्वेषु   भूतेषु   नश्यत्सु    न    विनश्यति  || गीता ८/२० ||
अर्थात्,परन्तु उस अवक्त से भी परे दूसरा विलक्षण यानि जो सनातन अव्यक्त भाव है;वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता|
                    ब्रह्म लोक से भी परे जो अव्यक्त भाव है वह कभी भी नष्ट नहीं होता है|केवल मात्र उसको प्राप्त कर लेने से ही किसी पुरुष का पुनर्जन्म होना असंभव हो जाता है|अतः इस स्थिति कों प्राप्त करना ही लक्ष्य होना चाहिए अन्यथा आप पुनर्जन्म कों कुछ समय के लिए टाल जरुर सकते हैं परन्तु पुनर्जन्म कों रोक बिलकुल भी नहीं सकते| उस सनातन अव्यक्त भाव कों कैसे प्राप्त किया जा सकता है कि पुनर्जन्म न हो,इसको स्पष्ट करते हुये भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                        पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया |
                                        यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् || गीता ८/२२ ||
अर्थात्,हे पार्थ!जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत है और जिस परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है,वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो केवल अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है|
                                             ब्रह्म लोक तक तो कोई भी पुरुष सत्कर्म करते हुये पहुँच भी सकता है,परन्तु यह लोक भी पुनरावर्ती है|यहाँ पर समस्त कर्मफल सम्पूर्ण हो जाने पर वापिस मानव रूप में पुनर्जन्म होना होता है|परन्तु अगर पुनर्जन्म से मुक्त होना चाहते है तो फिर उस सनातन अव्यक्त पुरुष तक पहुँचना ही होगा|गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि वह सनातन अव्यक्त पुरुष केवल अन्य भक्ति से ही पाया जा सकता है|भक्ति नाम है ,प्रेम का|और प्रेम में समर्पण आवश्यक होता है|अनन्य भक्ति एक मात्र परमात्मा के प्रति प्रेम सहित समर्पण का ही नाम है|यानि साधारण शब्दों में कहा जाये तो" एक मात्र परमात्मा ही मेरे सब कुछ है और मैं परमात्मा के प्रति पूर्णरूप से समर्पित हूँ|अन्य यहाँ मेरा कोई भी नहीं है,सबकुछ परमात्मा ही है"इसी का नाम अनन्य भक्ति है|इस भक्ति से परमात्मा कों पाना संभव है|एक बार उससे मिलन हो जाने पर व्यक्ति जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है|
                       उस सनातन अव्यक्त भाव कों प्राप्त करने के अतिरिक्त हर स्थान से पुनर्जन्म के लिए लौटना ही होता है|पुनर्जन्म की इस सम्बन्ध में क्या सम्भावनाये हो सकती है ,इस पर विचार करेंगे|
                    जब चित्त में अंकित कर्मों के आधार पर फल निश्चित हो जाते है तो उन्हें उपलब्ध करवाने की व्यवस्था भी आत्मा द्वारा ही की जाती है|अगर सात्विक कर्म इस भांति किये गए हों कि जिससे मिलने वाले कर्मफल मानव योनि में भी संभव ना हो ,तो ऐसी स्थिति में किसी भी योनि में पुनर्जन्म नहीं हो सकता |ऐसी आत्माए फिर देवलोक या ब्रह्म लोक में कुछ समय के लिए निवास करती है और जब पुण्य कर्मों का कर्मफल पूर्ण होता है तभी उनका जन्म मानव योनि में संभव होता है|सतोगुण युक्त पुरुष ही इस लोक के अधिकारी होते हैं|सतोगुण से युक्त व्यक्ति साधारणतया सात्विक कर्म ही अपने जीवन में संपन्न करते हैं अतः उनका उपरी लोकों में कुछ समय के लिए निवास करना संभव होता है| उनका पुनर्जन्म उच्च कुल में और सुशिक्षित परिवार में होता है,जहाँ बचपन से ही उसे ईश्वर के प्रति भक्ति पूर्ण वातावरण उपलब्ध रहता है,जिससे उसे परमात्मा कों पाने की सोच बलवती हो जाती है|इसी कारण से भागवत में कहा गया है कि मानव योनि बार बार इसी लिए मिलती है कि व्यक्ति निरंतर परमात्मा कों पाने की दिशा में प्रगति करता रहे|
क्रमश:
                         || हरि शरणम् ||  

Wednesday, September 11, 2013

पुनर्जन्म-कब और कहाँ?-१

                                            पुनर्जन्म के कारण और प्रकिया समझ लेने के बाद यह जानना होगा कि मृत्यु के बाद पुनः आत्मा और चित्त को देह कब उपलब्ध होती है? इस बारे में विज्ञानं के आधार पर कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि विज्ञानं तो अभी भी पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं कर पाया है|अतः इस बारे में जो भी भारतीय शास्त्रों में उपलब्ध है ,उन्ही के आधार पर समझने का प्रयास करेंगे|
                                         मृत्यु के बाद जब आत्मा चित्त को साथ लेकर शरीर से अलग हो जाती है तो उसे नया शरीर उपलब्ध होने में कुछ क्षणों से लेकर कई वर्ष तक लग सकते हैं|यह सब पूर्व शरीर में रहते हुये मन द्वारा शरीर से जो कर्म करवाए जाते है ,उन पर निर्भर करता है|प्रत्येक कर्म के आधार पर पहले कर्मफल निर्धारित किये जाते हैं ,फिर उन्हीं के आधार पर यह तय होता है कि किस योनि में वह फल उपलब्ध होगा|कौन सा कर्मफल कब भुगतना होगा ,समयानुसार वही योनि उस समय आत्मा को उपलब्ध होगी|सब कुछ आत्मा को ही तय करना होता है क्योंकि वह परमात्मा की प्रतिनिधि या अंश है|आत्मा जब कर्मों के अनुसार सब तय कर लेती है तब निश्चित क्रमानुसार शरीर उपलब्ध होने की प्रक्रिया शुरू होती है|फिर उसमे कुछ भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता|
                                             कर्मफलों का आकलन केवल मानव योनि भोग लेने के बाद ही होता है,अन्य योनियों में शरीरों की मृत्यु के बाद ऐसा आकलन बिलकुल भी नहीं होता है|अतः अगर किसी व्यक्ति के कर्मों के अनुसार  मानव योनि के अतिरिक्त कोई अन्य योनि मिलना निश्चित होता है, तो वह अन्य योनि उसे पहले भोगनी होगी|ऐसी समस्त योनियों को भोगने के पश्चात ही उसे मानव जीवन सुलभ होगा|अपवाद स्वरुप कई बार मानव योनि पहले भी उपलब्ध हो सकती है;परन्तु ऐसे उदाहरण नगण्य ही है|
                                   आत्मा इन सब कर्मों का कर्मफल उनके गुणों के आधार पर करती है|कर्म भी गुणों के आधार पर तीन प्रकार के कहे गए हैं-सात्विक,राजसिक और तामसिक| ये तीनो गुण प्रत्येक व्यक्ति में होते हैं|कोई भी एक व्यक्ति मात्र एक ही गुण से युक्त नहीं होता है|सभी में तीनो गुणों की उपलब्धता होती है|तमो व रजो गुणों को दबाकर सात्विक गुण बढता है,सतो व तमो गुणों को दबाकर राजसिक गुण बढता है और इसी प्रकार सतो व रजो गुणों को दबाकर तामसिक गुण बढता है|परन्तु एकव्यक्ति में मात्र एक ही गुण की उपलब्धता असंभव है|इन्हीं गुणों के आधार पर कर्मफल निश्चित किये जाते हैं|गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्य तिष्ठन्ति राजसाः |
                                जघन्यगुणवृतिस्था   अधो   गच्छन्ति   तामसाः || गीता १४/१८ ||
अर्थात्,सत्व गुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं;रजो गुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात् मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमो गुण के कार्यरूप निद्रा,प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात्,कीट,पशु आदि नीच योनियों को प्राप्त होते हैं|
                                  पदार्थों के गुणों के संग से उसी कोटि के गुणयुक्त कर्म शरीर द्वारा किये जाते है,जिसके फल व्यक्ति को अपने आगामी जन्मों में उपलब्ध होते हैं|इस लिए प्रत्येक स्थान पर गुणों का अपना महत्त्व है|व्यक्ति को प्रत्येक कर्म करने से पहले यह विचार जरूर करना चाहिए कि कारित कर्म किस गुण से युक्त हो सकते हैं|सत्व गुण में स्थित पुरुष भी कई बार तामसिक प्रकृति के कर्म कर सकता है और तमो गुणों से युक्त व्यक्ति भी कभी कभी सात्विक प्रकृति के कर्म कर सकता है|अतः प्रत्येक स्थिति में यह संभव नहीं है कि जिस गुण में पुरुष स्थित हो उसे उसी प्रकार का कर्मफल मिलेगा|अगर सतो गुण में स्थित पुरुष एक भी तामसिक प्रकृति के कर्म में लिप्त हो जाता है तो भावी जन्म में उसका फल मिलना अवश्यम्भावी है|इसी कारण से कहा जाता है कि जो जैसा दिखाई देता है ,उसे वास्तव में वैसा होना भी चाहिए|यह सोचना नितांत ही असत्य है कि एक तामसिक कर्म को करने के उपरांत सौ सात्विक कर्म कर तामसिक कर्म के फल से मुक्ति पाई जा सकती है|कर्म फल से मुक्ति केवल भोगकर ही पाई जा सकती है|इनसे मुक्ति पाने के लिए प्रायश्चित और ज्ञान दो अन्य साधन उपलब्ध  अवश्य हैं परन्तु इन दोनों में बहुत ही अधिक श्रम,समय और धैर्य की आवश्यकता होती है|जो कि साधारण पुरुष के लिए लगभग असंभव है|संत कबीर ने सच ही कहा है-
                                       कर्ता था तो क्यूँ रहा,अब कर क्यूँ पछताय |
                                       बोया पेड़ बबूल का,फिर आम कहाँ से पाय ||
             कबीर यहाँ कहना चाहते हैं कि अगर तूंही  सब का कर्ता था,तो जो कर्म तूने पिछे किये है उनका फल भोगते हुये क्यों पछता रहा है?कहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति कर्म करते वक्त सब कार्यों का कर्ता स्वयं कों मानता है,लेकिन जब उन कर्मों का फल मिलने लगता है तो वह अपनी किस्मत कों दोष देते हुये पछताता रहता है|जबकि इन कर्मफलों का अधिकारी भी वही है,क्योंकि उसने सभी कर्म कर्ता भाव से ही किये हैं |
क्रमश:
                      || हरि शरणम् ||
               

Tuesday, September 10, 2013

पुनर्जन्म-कैसे?-प्रक्रिया-९ |

क्रमश:
                       गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                 प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः |
                                 भूतग्रामिमं कृत्सनमवशं प्रक्रितेर्वशात् || गीता ९/८ ||
अर्थात्,अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतंत्र हुये इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को बार बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ|
                             यहाँ यह स्पष्ट है कि पुनार्जन्मका कारण व्यक्ति द्वारा किये गए उसके कर्म ही एक मात्र कारण होते है,अन्य कोई नहीं|वैज्ञानिक तौर पर देखा जाये तो कर्म जो भी चित्त में अंकित होते हैं वे चुम्बकीय तरंगों के रूप में होते हैं|इन्हें नष्ट नहींकिया  जा सकता,परन्तु पढ़ा जा सकता है|जितने भी कर्म इन चुम्बकीय तरंगों के रूप में होते है,वे नए शरीर में बने जैव  विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र के साथ संयोग करने के लिए  उसकी तरफ आकर्षित होते हैं |क्योंकि उन्हें उस शरीर से ही फल प्राप्त होने की आशा होती है|जो कामनाएं अधूरी रह जाती है,उन्हें नए शरीर से प्राप्त कर लेने हेतु यह आकर्षण उसे नए शरीर में आने को  प्रेरित करता है|जिस तरीके से चित्त आत्मा को लेकर पुराने शरीर से अलग होता है,उसकी विपरीत क्रिया से चित्त आत्मा के साथ नए शरीर में प्रवेश करता है|
                                        जब आत्मा को नए शरीर में जाना होता है तब शरीर और आत्मा के विपरीत चुम्बकीय ध्रुव एक दूसरे के सामने होते है जिसे आत्मा मय चित्त उसकी तरफ आकर्षित होकर शरीर के साथ संयुक्त हो जाती है|ज्यादातर मामलों में इसी समय शिशु का जन्म होता है|ज्योंही आत्मा का शरीर के साथ संयोजन होता है,शरीर में उपस्थित मन के साथ आत्मा संयोग कर लेती है|फिर वापिस वही जीवन चक्र प्रारंभ हो जाता है ,जैसा पूर्व में वर्णित किया जा चूका है|वास्तव में शरीर में स्थित यही आत्मा ही भोक्ता है|इन्द्रियों के विषय मन के द्वारा कर्मेन्द्रियों से कर्म करवाते हुये सब भोग आत्मा को ही उपलब्ध होते हैं|
                गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                 ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
                                 मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||गीता १५/७ ||
अर्थात्,इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और यह प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है|
                                 श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च |
                                 अधिष्ठाय   मनश्चायं  विषयानुपसेवते ||गीता १५/९  ||
अर्थात्,यह जीवात्मा कान ,चक्षु,त्वचा,रसना ,नाक और मन को आश्रय करके अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है|
                                उपरोक्त दोनों श्लोकों से स्पष्ट है की आत्मा,परमात्मा का ही अंश है ,और शरीर में आकार वह इन्द्रियों और मन सेसंयोग करते हुये इन्द्रियों के सभी विषयों का सेवन करती है|
                                  उपरोक्त दोनों श्लोक इस बात को स्पष्ट करते हैं कि शरीर में स्थित आत्मा ही इन्द्रियों के विषयों का भोग करती है|इन भोगों के प्रति आसक्तिभाव शरीर को मन के द्वारा कर्म करने को बाध्य करता है,जिसको आत्मा के द्वारा पदार्थ के गुणों का संग करना कहते हैं |यही गुण युक्त कर्म चित्त के साथ संयुक्त होकर मृत्यु उपरांत आत्मा के साथ चले जाते हैं|इन्ही के कारण पुनर्जन्म का आधार बनता है|इन्ही कर्मों के कर्मफल स्वरुप जब भी नया मानव शरीर उपलब्ध होता है,आत्मा फिर उसी प्रकार मन व इन्द्रियों के प्रति आकर्षित हो कर उनसे संयोग कर लेती है|और इस प्रकार नए कर्म फिर से चित्त में अंकित होते रहते है|इस प्रकार मानव जीवन में किये गए कर्मों के कर्मफलों से छुटकारा मिलना असंभव हो जाता है ,और व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो पाता है|
                                                     || हरि शरणम् ||