शरीर-8
एक अन्य उदाहरण से इस बात को और अधिक स्पष्ट
करता हूँ | जैसे मिट्टी का हमने ढ़ेला लिया और उसकी ईंट पका ली और फिर ऐसी ही कई ईंटों
से घर बना लिया | घर किसी भूकंप अथवा बाढ़ जैसी त्रासदी (Disaster) में गिर गया |
आपने उन्हीं ईंटों को तोड़कर वापस मिट्टी बना दी, तो वापस ये मिट्टी बन गई यानि कारण शरीर बन गया |
सोने और मिट्टी के उदाहरण से हम समझ
सकते हैं कि स्वर्ण और मिट्टी की तरह जीवात्मा प्रलय के समय तो अलग हो गया पर उसे
मुक्ति नहीं मिली | मुक्ति तो तभी मानी जाएगी जब सोना, सोना नहीं रहेगा और मिट्टी,
मिट्टी नहीं रहेगी अर्थात स्वर्ण और मिट्टी का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा |
सोना और मिट्टी रहेगी तो फिर नए-नए गहने भी बनेंगे और नए नए मकान भी |
इस प्रकार फिर प्रलय के बाद जब
एक नयी सृष्टि का सृजन (Creation) होगा, तो उस जीवात्मा को ईश्वर फिर सृष्टि के साथ दोबारा जोड़ देगा | तब तक
वह बंधन (Bondage) की स्थिति में ही बना रहता है | कहने का अर्थ है कि प्रलय होने
की स्थिति में भी बंधन मुक्त नहीं हो सकेंगे | जब तक मोक्ष (Liberation) न हो जाये
अथवा प्रलय न हो जाये तब तक ये दोनों शरीर आत्मा के साथ जुड़े रहेंगे | मोक्ष में
या प्रलय में ये छूट जायेंगे | मोक्ष होने पर तो फिर हजारों सृष्टियों तक ये तीनों
शरीर फिर जुड़ते नहीं हैं परन्तु प्रलय होने पर जब अगली सृष्टि का सृजन होगा तब
तत्काल ही तीनों शरीर जुड़कर संसार में व्यक्त (Appear) हो जायेंगे |
सूक्ष्म शरीर में मन रहता है |
प्रलय में यही मन कारण शरीर में परिवर्तित हो जाता है | मन में हमारे जीवन की अधूरी
रह गई समस्त कामनाएं, इच्छाएं और कर्म परिवर्तित गुणों के रूप में तथा राग-द्वेष
आदि संचित रहते हैं | इन सबके संचय के कारण बना ‘कारण शरीर’ ही नए शरीर के मिलने
का कारण बनता है | कामनाएं और इच्छाएं ही हमारे भीतर राग-द्वेष (Love and hatred) को
जन्म देती है, जिनकी पुनर्जन्म में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है | आइये ! बढ़ते हैं,
राग-द्वेष के विवेचन की ओर |
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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