Saturday, May 9, 2020

शरीर-16


शरीर -16    
      इतने विवेचन के उपरांत हमें निम्न बातें समझ लेनी जरूरी है। आत्मा का तत्व एक है। उस आत्मा के तत्व के संबंध में आकर दो तरह के शरीर सक्रिय होते है। एक सूक्ष्म शरीर  और एक स्थूल शरीर। स्थूल शरीर से हम परिचित हैं ही | सूक्ष्म शरीर से कोई योगी ही परिचित हो सकता है और योग के भी जो ऊपर उठ जाते हैं, वे उससे परिचित होते है जिसको आत्मा कहा जाता है। सामान्य आंखें देख पाती है, केवल इस स्थूल शरीर को। योग-दृष्टि अर्थात  ध्यान के माध्यम से देख सकते हैं सूक्ष्म शरीर को। लेकिन ध्यानातीत (Beyond meditation) जो योग है, उस के द्वारा ही सूक्ष्म के भी पार, उसके भी आगे जो शेष रह जाता है, उसका अनुभव होता है। जो ध्यान से भी परे है, अतीत है उसको समाधि कहा जाता है | ध्यान से भी जब व्यक्ति ऊपर उठ जाता है तो ही समाधि फलित होती है। और उस समाधि में जो अनुभव होता है, वह परमात्मा का अनुभव है।
           अब प्रश्न उठता है कि समाधि क्या है ? समाधि का अर्थ है, आत्मा से जुड़ना, शब्दों से परे परम चैतन्य की अवस्था अर्थात मन और बुद्धि का परमात्मा में लीन होना | समाधि उस अवस्था का नाम है जिसमें आत्मा की शक्ति का आविर्भाव (Emergence) अर्थात प्रकटीकरण होता है | समाधि के परिणाम स्वरूप आत्मा की शक्ति प्रकट होती है | अवस्थाओं के आधार पर समाधि को दो भागों में बांटा जा सकता है-  सविकल्प समाधि और निर्विकल्प समाधि |
सविकल्प समाधि –
          यह समाधि का प्रारम्भ है । इसमें ध्येय,  ध्याता एवं ध्यान तीनों ही होते हैं । यह समाधि द्वैत भाव से युक्त है | इसमें साधक का अस्तित्व भी विद्यमान रहता है । इसको इस प्रकार से समझ सकते हैं जैसे लोहे का कोई बर्तन बनाया तो बर्तन में लोहे की भी अभिव्यक्ति उपस्थित रहती है । समाधि की इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए साधक को किसी न किसी सहारे की आवश्यकता होती है । चित्त एकाग्र होने पर ही यह समाधि घटित होती है । ऐसी अवस्था में प्रज्ञा के संस्कार बाकी रह जाते हैं ।
निर्विकल्प समाधि –
           जब साधक ( ध्याता ) ध्यान करते-करते ध्येय में इस प्रकार समाहित हो जाता है कि उसका अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता है तथा केवल “ध्येय” ही शेष रह जाता है अर्थात अद्वैत अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो इसे निर्विकल्प समाधि कहते हैं । समाधि की इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए साधक को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं होती है । इस समाधि के उपरांत सभी दुखों की निवृत्ति होकर पूर्ण सुख की प्राप्ति हो जाती है । निर्विकल्प समाधि वह अवस्था होती है, जिसमें ज्ञेय और ज्ञाता आदि का कोई भेद नहीं रह जाता।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment