शरीर-10
मैंने एक प्रसंग सुना है, वह मैं आपके साथ बांटना चाहूँगा | यह प्रसंग स्थूल, सूक्ष्म, कारण
शरीर और तात्विक दृष्टि को समझने में सहायक सिद्ध होगा | वनवास समाप्ति के बाद भगवान
श्रीराम अयोध्या लौट चुके थे | राज्याभिषेक हो चूका था | वनवास और लंका-युद्ध के सभी
साथी वापिस अपने-अपने स्थानों को लौट चुके
थे । हनुमान के अति आग्रह पर भगवान ने उन्हें अपने पास सेवक के रूप में रहने को कह दिया था । दिन रात हनुमान भगवान श्रीराम और जानकी की सेवा में रत
रहते थे । हनुमान, राम के प्रिय भक्त हैं ।
अतिरिक्त समय में भगवान श्रीराम अपने भक्त को तात्विक ज्ञान देते रहते हैं ।
एक बार ऐसे ही अतिरिक्त समय में भगवान श्रीराम और
हनुमान बैठे बातें कर रहे थे । अचानक श्रीराम ने हनुमान से पूछा- "हनुमान ! एक बात बताओ
। तुम कौन हो और मैं कौन हूँ ?" हनुमान तो भगवान श्रीराम के
अनन्य भक्त ठहरे । वे भगवान के पूछने का निहितार्थ समझ गए । उन्होंने प्रश्न की
गंभीरता को समझते हुए बड़ी ही शालीनता के साथ उत्तर दिया । हनुमान बोले- "भगवन ! अगर स्थूल
दृष्टि से देखा जाये तो आप मानव हैं और मैं एक वानर । इस दृष्टि को अगर और सूक्ष्म
करे अर्थात अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये, सूक्ष्म रूप से देखा जाये
तो आप मेरे प्रभु हैं और मैं आपका सेवक हूँ । परन्तु इससे भी अति सूक्ष्म दृष्टि भी होती है जिसको तात्विक दृष्टि कहा जाता है । अगर उस दृष्टि से देखा
जाये तो जो आप हैं, वही मैं हूँ।" इस तात्विक दृष्टि से देखने का अर्थ है, तत्व
रूप से देखना |
देहदृष्ट्या तु दासोSहं जीव दृष्ट्या त्वंदशकः|
आत्मदृष्ट्या त्व्मेहा मिति में निश्चिता मतिः ||
अर्थात स्थूल (देह) दृष्टि से मैं आपका सेवक हूँ,
जीव दृष्टि (सूक्ष्म शरीर) से मैं आपका अंश हूँ तथा तत्व दृष्टि (आत्म-दृष्टि ) से
तो मैं आपका ही स्वरूप हूँ | अतः इस दृष्टि से देखूं, तब क्या कहना और क्या सुनना ?
कारण शरीर को देव शरीर भी कहते हैं, इसका कारण यह है कि इसमें सभी प्रसिद्ध देवताओं की
दिव्य शक्तियों का उसमें समावेश रहता है | परमेश्वर को परम पूज्य और पाँच देव
तत्वों का अधिष्ठाता (Occupant) कहा है | परमात्मा की उपासना का तात्पर्य है;
श्रद्धा (Devotion), निष्ठा (Faith), प्रज्ञा (Wisdom), इन तीनों की
सद्भावनाओं का संगम | इस समागम को जिसने अन्तरात्मा में धारण कर लिया, समझना चाहिए कि उसने ब्राह्मी स्थिति को
प्राप्त कर लिया है |
स्वर्ग, मुक्ति और ऋद्धि-सिद्धि का भण्डार पर-ब्रह्म
को माना जाता है | उसका अवतरण जब कभी और जहाँ कहीं पर भी हुआ है, उसे अन्तःकरण के
उच्च स्तर एवं कारण शरीर के आधार बिन्दु के रूप में पाया गया है | भगवान् श्री राम
और श्रीकृष्ण के अवतरण इसके उदाहरण हैं | इस प्रकार समझा जा सकता है कि समस्त सत्
प्रवृत्तियों एवं सद्भावनाओं का उद्गम केन्द्र कारण शरीर ही है | उसी को परिष्कृत (Processed)
करने के लिए भक्ति भाव से साधना की जाती है, जिससे हम राम और कृष्ण के स्तर को
प्राप्त कर सकें |
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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