Friday, May 22, 2020

प्रणव-2


प्रणव -2
              ॐ अर्थात ओंकार को अनहद नाद भी कहते हैं और इसे प्रणव भी कहा जाता है |  वास्तव में देखा जाये तो  प्रणव नाम से जुड़े गहरे अर्थ हैं, जो अलग-अलग पुराणों में अलग अलग प्रकार से बताए गए हैं | यहाँ मैं आपको शिव पुराण में बताए ॐ के प्रणव नाम से जुड़े अर्थ को बताना चाहूँगा | शिव पुराण में प्रणव के अलग-अलग शाब्दिक अर्थ और भाव बताए गए हैं | 'प्र' का अर्थ है, प्रपंच, '' यानी नहीं और 'व:' अर्थात तुम लोगों के लिए अर्थात सांसारिक प्रपंच तुम लोगों के लिए नहीं है | इस प्रकार प्रणव (ॐ) का अर्थ हुआ कि यह ॐ आपको सांसारिक जीवन के समस्त प्रपंच यानी कलह और दु:ख दूर कर जीवन के अहम लक्ष्य यानी मोक्ष तक पहुंचा देता है | यही कारण है कि ॐ को प्रणव नाम से भी जाना जाता है।
      एक अन्य अर्थ में प्रणव को 'प्र' यानी यानी प्रकृति से बने संसार रूपी सागर को पार कराने वाली '' यानी नाव बताया गया है | इसी तरह ऋषि-मुनियों की दृष्टि से 'प्र' अर्थात प्रकर्षेण, ‘ण’ अर्थात नयेत् और 'व:' अर्थात युष्मान् मोक्षम् अर्थात “प्रकर्षेण नयेत् युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणव:” बताया गया है, जिसका सरल शब्दों में अर्थ है प्रत्येक साधक को शक्ति देकर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त करने वाला होने से यह ॐ ही प्रणव: है |
         शिव-पुराण में सूतजी ऋषियों को कहते हैं कि महर्षियों ! मायारहित महेश्वर को ही नव अर्थात नूतन कहते हैं | वे परमात्मा प्रधान रूप से नव अर्थात शुद्ध स्वरुप है इसलिए प्रणव कहलाते हैं | प्रणव, साधना करने वाले साधक को नव अर्थात शिव स्वरुप कर देता है | हालाँकि जीवन-मुक्त को किसी प्रकार की साधना की आवश्यकता नहीं रहती है क्योंकि वह पहले से ही सिद्ध स्वरुप है परन्तु जब तक प्रारब्ध शेष है, तब तक यह देह नहीं छूट सकती और जब तक देह है तब तक उससे स्वतः ही ॐ का जप होता रहता है | ‘अ’ शिव है, ‘उ’ शक्ति है और ‘म’ इन दोनों की तत्व-रूप एकता है, यह सोचकर ही हमें प्रणव का जप करना चाहिए |
           इस प्रकार से ‘अ’, ‘उ’ और ‘म’ इन तीन अक्षरों से जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन होता है | यह ब्रह्म स्वरुप ओंकार हमारी ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन और बुद्धि की वृतियों को सदैव भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले धर्म और ज्ञान की ओर प्रेरित करता है | अतः यह सिद्ध होता है कि जो व्यक्ति इस प्रणव अर्थात ॐ के अर्थ का बुद्धि से चिंतन करता हुआ ध्यान में उतरता है वह निश्चय ही एक दिन ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, May 21, 2020

प्रणव -1


प्रणव -1
          “शरीर” श्रृंखला से ही सम्बंधित एक प्रश्न और आया है कि ध्यान लगाने में ‘ॐ’ का उच्चारण ही क्यों आवश्यक है, बिना किसी शब्द के उच्चारण के भी तो ध्यान में जाया जा सकता है ?
               हाँ, बिना किसी शब्द के उच्चारण के भी ध्यान में जाया जा सकता है और ॐ के अतिरिक्त अन्य किसी मन्त्र को उच्चारित करते हुए भी | एक बार इस प्रकार का प्रयास करने में कोई हानि नहीं है | न ही आप पर इस बात का दबाव है कि ध्यान के लिए केवल ‘ॐ’ का उच्चारण ही करना होगा | आपको जानते हैं कि नदी में धारा के प्रवाह की दिशा में तैरना सरल है, धारा की विपरीत दिशा की तुलना में | फिर भी आप धारा की विपरीत दिशा में ही तैर कर अपना श्रम और समय व्यर्थ ही नष्ट करना चाहते हैं तो भला आपको कोई कैसे रोक सकता है ?
          हमें सनातन धर्म में अपने पूर्वजों से कई सिद्ध सत्य मिले हैं, उनमें ही एक है यह “ॐ” | ॐ का उच्चारण सुगमता से हमें अपनी सांसारिक जाग्रति, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था से बाहर निकाल सकता है और यह ॐ हमें परम जाग्रत अवस्था तक ले जा सकने में भी सक्षम है | सनातन हिन्दू धर्म में देव उपासना, शास्त्र वचन, मांगलिक कार्य, ग्रंथ पाठ या भजन-कीर्तन के दौरान ॐ का उच्चारण करना जरूरी होता है | इसका उच्चारण कई प्रकार से और बार-बार किया जाता है | ॐ की ध्वनि तीन अक्षरों से मिलकर बनी है- अ, उ और म | ये मूल ध्वनियां हैं, जो हमारे चारों तरफ हर समय उच्चारित होती रहती हैं | अब तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि सूर्य से हमारे सौर मंडल में सदैव ॐ की ध्वनियाँ प्रसारित होती रहती है | इस बात की सत्यता परखने के लिए आप NASA की रिपोर्ट देख सकते हैं |
          जब हमारे चारों ओर ॐ की ध्वनि से यह ब्रह्मांड ओतप्रोत है, तो ऐसे में हम सहज ही इस प्रणव ॐ का उच्चारण कर ध्यान में जा सकते हैं और ब्राह्मी चेतना की अवस्था तक तक पहुँच सकते है | शिव पुराण में इस प्रणव के बारे में विस्तार से लिखा गया है | शिव पुराण में सूतजी ऋषियों को प्रणव के बारे में विस्तार से बतलाते हैं | कल आगे इस बात की चर्चा करेंगे |
कल समापन
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, May 20, 2020

आत्म-अवस्थाएं -9 - समापन कड़ी


आत्म-अवस्थाएं – 9
             इतने विवेचन के उपरांत एक व्यक्ति के जीवन की संभावित सभी अवस्थाएं पूर्ण रूप से स्पष्ट हो गयी होंगी | इस श्रृंखला का समापन करने के पूर्व एक महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देना चाहूँगा | प्रश्न है कि सर्वोच्च ब्राहमी-चेतन अवस्था को प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना होगा ? इसका उत्तर जानना आवश्यक है |
          प्रारम्भ में हमें अपने संसार को पूर्णतया त्यागना होगा और ऐसी अवस्था को प्राप्त करना होगा जहाँ हम संसार में भले ही रहें परन्तु हमारे भीतर के संसार का पूर्णतया लोप हो जाए | हमें तुरीय अवस्था के लिए प्रयास करते हुए ही संतुष्ट नहीं होंना है बल्कि ब्राह्मी-चेतना की अवस्था तक पहुँचाना होगा | प्रायः साधक तुरीय अवस्था तक पहुंचकर ही संतुष्ट हो जाते है और वे परम जाग्रत अवस्था तक नहीं पहुँच पाते | इसके लिए मध्य में आकर रूकें नहीं बल्कि सतत प्रयास करते रहें और समय-समय पर अपने गुरु से मार्गदर्शन लेते रहें | शनैः-शनैः आध्यात्मिक पथ पर आपकी प्रगति होती रहेगी | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कह रहे हैं –
      शनैः शनैरूपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया |
      आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ||6/25||
              अर्थात धीरे-धीरे क्रम से अभ्यास करते हुए उपरति को प्राप्त होओ तथा धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी चिंतन न करें |
             ध्यान में विचार मुक्त हो जाना इतना सरल नहीं है | विचार भी आयेंगे और भूतकाल की स्मृति और भविष्य की कल्पनाएँ भी आएँगी | हरिः शरणम् आश्रम बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि “ ध्यान करते समय इस प्रकार के विचार, लौट जाने के लिए ही आते हैं | इनमें से किसी एक को भी पकड़ कर बैठना उचित नहीं है, किसी एक का भी चिंतन नहीं करना है बल्कि ऐसे सब विचारों और कल्पनाओं की उपेक्षा करनी है | धीरे-धीरे इन सबका एक-एक कर लोप होता जायेगा और अंततः आप विचार मुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाओगे |”
          व्यक्ति की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह थोड़े से अभ्यास के उपरांत ही अपनी प्रगति की समीक्षा करने लगता है | ऐसा करने से उसकी प्रगति रूक जाती है और व्यक्ति तुरीय अवस्था को भी उपलब्ध नहीं हो सकता | जबकि निरंतर अभ्यास करते हुए एक दिन तुरीय अवस्था ही नहीं बल्कि उससे आगे छलांग लगाकर व्यक्ति ब्राह्मी-चेतन की अवस्था को भी प्राप्त कर लेगा, यह निश्चित है |
       इसी के साथ आत्म-अवस्थाओं को स्पष्ट करने के लिए शुरू की गयी इस श्रृंखला का समापन होता है | आप सभी का साथ बने रहने का आभार | कल ॐ पर पूछे गए एक प्रश्न को लेंगे, फिर किसी अन्य विषय पर चिंतन करने के लिए नई श्रृंखला प्रारम्भ करेंगे |
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, May 19, 2020

आत्म-अवस्थाएं-8


भगवत चेतना – कल से आगे
                कहा जाता है कि स्वामी विवेकानंद को एक दिन इस अवस्था की उपलब्धि होने का अनुभव हुआ, तब उन्होंने पास के कमरे में बैठे अपने साथी को एक सन्देश प्रक्षेपित किया | इस बात का जब ठाकुर रामकृष्ण परमहंस को पता चला तो उन्होंने विवेकानंदजी को इस सिद्धि के उपयोग करने को लेकर चेतावनी दी | साथ ही उन्होंने कहा कि अब भविष्य में तुम इन सिद्धियों का उपयोग नहीं कर पाओगे | हाँ, देह त्यागने से दो दिन पूर्व ये सिद्धियाँ तुम्हारे पास पुनः आ जाएगी | एक दिन जब स्वामी विवेकानंद को इन सिद्धियों के लौटने का अनुभव हुआ तो वे समझ गए कि अब उनका देह त्यागने का समय आ गया है और सत्य है कि दो दिन बाद उनका देहावसान हो गया |
             भगवत चेतन अवस्था में स्थित सिद्ध पुरुष अपनी भावनाएं अथवा अपने किसी सन्देश का प्रक्षेपण संसार में किसी भी व्यक्ति को कर सकता है | इसी प्रकार संसार में किसी भी स्थान पर होने वाली घटना को जान सकता है और सूक्ष्म शरीर के रूप में कहीं पर भी घूम फिर आ सकता है | ये सिद्धियाँ उपयोग में लेनी नहीं चाहिए क्योंकि मनुष्य जीवन का उद्देश्य ब्राह्मी चेतन अवस्था तक पहुँचाने का होना चाहिए न कि सिद्धियों के उपयोग करते रहने का | सिद्धियाँ व्यक्ति को अहंकारित कर सकती है, जिससे उसका पतन हो सकता है | अतः सिद्ध पुरुष को इन सिद्धियों की उपेक्षा करनी चाहिए |
सातवीं और अंतिम अवस्था - ब्राह्मी चेतना –
          समस्त सिद्धियों की उपेक्षा करके ही सिद्ध सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकता है | भगवत चेतना के बाद सिद्ध पुरुष में ब्राह्मी चेतना का उदय होता है अर्थात कमल के फूल का पूर्ण रूप से खिल जाना | इस अवस्था में भक्त और भगवान के मध्य का भेद मिट जाता है | अहम् ब्रह्मास्मि और तत्वमसि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं और यह संपूर्ण जगत ही मुझे ब्रह्म नजर आता है | इस अवस्था में “मैं” की पूर्ण समाप्ति हो जाती है | यह व्यक्ति की परम जाग्रत अवस्था है | इस अवस्था को ही योग में समाधि की अवस्था कहा गया है अर्थात जीते-जी मोक्ष |
               इस अवस्था को उपलब्ध हो जाने के पश्चात् व्यक्ति की देह नाम मात्र की ही रह जाती है और अंततः प्रारब्ध के समाप्त हो जाने पर देह का भी विसर्जन हो जाता है | फिर उसको नई देह नहीं मिलती अर्थात उसका संसार से आवागमन मिट जाता है | यह निर्विकल्प समाधि है | इसी को ब्रह्म में स्थित हो जाना कहा जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, May 18, 2020

आत्म-अवस्थाएं - 7


आत्म-अवस्थाएं - 7
छठी अवस्था - भगवत चेतना-
           तुरीयातीत की अवस्था में रहते-रहते भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी सघन प्रयास के ही प्राप्त हो जाती है | यह ठीक ऐसा ही है जैसे सुषुप्ति अवस्था से स्वप्नावस्था में जाने के लिए किसी भी प्रकार का अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता है | अतः कहा जा सकता है कि यह अवस्था संसार की ओर से सुषुप्त हो जाने के बाद उससे आगे की स्वप्न की अवस्था है | इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और बिना किसी प्रयास के हो जाता है | किसी भी प्रकार का प्रयास करना तो इससे पूर्व की तुरीय अवस्था में पहले ही छूट चूका होता है | इस भगवत अवस्था में व्यक्ति से कुछ भी छुपा नहीं रहता और वह संपूर्ण जगत को भगवान की सत्ता मानने लगता है | यह एक महान सि‍द्ध योगी की अवस्था है |
                 यह अवस्था साधक से सिद्ध हो जाने की अवस्था है | इस अवस्था में व्यक्ति को सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है और संसार में कहीं पर भी घटित होने वाली घटनाएँ उससे छुपी नहीं रह सकती | यह ठीक वैसे ही होता है, जैसे शरीर की स्वप्न अवस्था में होता है | शरीर की स्वप्न अवस्था में दिखाई पड़ने वाली घटनाएँ केवल मानसिक प्रपंच होती है परन्तु इस स्वप्निल अवस्था में वास्तविक जीवन में भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पूर्वाभास होता है | जब सिद्ध पुरुष इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तब उसको जो स्वप्निल अनुभव होते हैं, वे सभी स्वप्न न होकर सत्य होते हैं | कहा जाता है कि ऐसे सिद्ध पुरुषों को भोर में दिखलाई पड़ने वाले स्वप्न प्रायः सत्य सिद्ध होते हैं | एक सिद्ध को साधारण अवस्था में बैठे-बैठे अचानक ही इस प्रकार के अनुभव होते हैं, जिनका उस स्थान अथवा वर्त्तमान परिस्थिति से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता | प्रायः इस अवस्था में आकर व्यक्ति को सावधान रहना आवश्यक है | अगर वह इन सिद्धियों को सब के समक्ष प्रकट करने लग जाता है अथवा उनका दुरूपयोग करने लग जाता है, तो फिर उसकी आगे की प्रगति नहीं हो सकती बल्कि इसके उलट पतन होने की सम्भावना बढ़ जाती है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, May 17, 2020

आत्म-अवस्थाएं-6


आत्म-अवस्थाएं -6
चौथी अवस्था- तुरीय अवस्था- कल से आगे
              हमारी इसी अवस्था से शुरू होती है आध्यात्मिक यात्रा, क्योंकि तुरीय के इस पार संसार के दुःख है तो तुरीय के उस पार मोक्ष का आनंद होता है | हम संसार और परमात्मा के मध्य में स्थिर होकर खड़े हैं; बस आगे अब पूरे मन से एक छलांग लगाने की आवश्यकता है | जो व्यक्ति दिखावे के लिए ध्यान करता है, उससे यह छलांग नहीं लग सकती | संसार से ध्यान हटाना ही इस अवस्था को प्राप्त करने की प्रथम आवश्यकता है | चेतना की इस अवस्था में कोई भी विचार, ज्ञान आदि कुछ भी नहीं रहता | संसार के सारे प्रपंच का लोप हो जाता है | यह ध्यान की अवस्था है | इस अवस्था का अनुभव किसी विरले को ही अनुभव होता है, साधारण सांसारिक व्यक्ति को इस अवस्था का अनुभव हो ही नहीं सकता |
पांचवीं अवस्था - तुरीयातीत अवस्था-
         तुरीय अवस्था के पार पहला कदम है तुरीयातीत अवस्था के अनुभव का | यह संसार से सुषुप्ति की अवस्था है अर्थात इस अवस्था में व्यक्ति की दृष्टि में संसार उपेक्षित हो जाता है | तुरीयातीत का अर्थ है, तुरीय अवस्था से आगे निकल जाना अर्थात तुरीय अवस्था को पीछे छोड़ देना | यह अवस्था तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद ही आती है | चेतना की इस अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है |
             इस अवस्था को उपलब्ध हो जाने के उपरांत व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं है | इस अवस्था में काम और आराम, दोनों एक ही बिंदु पर आकर मिल जाते हैं | काम को वह बोझ नहीं समझता और विश्राम की अवस्था में भी वह बौधिक स्तर पर सतत परमात्मा का स्मरण करता रहता है | दूसरे शब्दों में कहूँ तो कहा जा सकता है कि ऐसा योगी कुछ न करते हुए भी बहुत कुछ करता रहता है और सब कुछ करते हुए भी कुछ भी नहीं करता | इस अवस्था को जिसने प्राप्त कर लिया, वह हो गया इस जीवन के रहते हुए ही जीवन-मुक्त | राजा जनक इसके उदाहरण हैं | इस अवस्था में व्यक्ति को स्थूल शरीर या इंद्रियों की आवश्यकता तक नहीं रहती | इनके बिना भी वह सब कुछ कर सकता है | चेतना की तुरीयातीत अवस्था को सहज-समाधि भी कहते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, May 16, 2020

आत्म-अवस्थाएं - 5


आत्म-अवस्थाएं – 5
              इस प्रकार हमने अब तक पूर्व श्रृंखला में वर्णित तीनों अवस्थाओं का स्मरण किया है | अब आते हैं, आत्मा की आगे की चार महत्वपूर्ण अवस्थाओं पर |
           जो व्यक्ति उक्त तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) से बाहर निकलकर स्वयं के अस्तित्व अर्थात स्वयं के होने को निश्चित कर लेता है वही मोक्ष के, मुक्ति के और परमात्मा के सच्चे मार्ग पर है | संसार से बाहर निकलने और आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की छटपटाहट ही व्यक्ति के आगे की अवस्थाओं में जाने का संकेत करती है | उक्त तीन अवस्थाओं से क्रमश: ही बाहर निकला जा सकता है | इसके लिए निरंतर ध्यान करते हुए सदैव साक्षी भाव में रहना पड़ता है, तभी हमें आगे की चार अवस्थायें प्राप्त होती है | ये चार अवस्थाएं हैं - तुरीय अवस्था, तुरीयातीत अवस्था, भगवत चेतना और ‍ब्राह्मी चेतना | अब हम इन चारों अवस्थाओं पर चर्चा प्रारम्भ करते हैं |
चौथी अवस्था - तुरीय अवस्था-
              आत्मा की चौथी अवस्था को तुरीय अवस्था कहते हैं | यह अवस्था व्यक्ति के स्वयं के प्रयासों से ही प्राप्त होती है | चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है, न ही कोई रूप | यह अवस्था निर्गुण है, निराकार है | इसमें न जागृति है, न स्वप्न और न ही सुषुप्ति | यह निर्विचार और अतीत की स्मृति व भविष्य की कल्पना से परे की जागृति है | हालाँकि यह अवस्था भी जाग्रत अवस्था है परन्तु इस अवस्था में संसार पीछे छूट जाता है और भविष्य की कोई कल्पना भी नहीं रहती | एक प्रकार से इस अवस्था को मध्य अवस्था कहा जा सकता है, जिसमें न तो संसार की ओर अवलम्बन दृष्टिगत है और न ही ब्रह्म की ओर | इसी अवस्था से व्यक्ति की आगे की यात्रा प्रारम्भ होती है | जिस प्रकार दौड़ रहे वाहन को पुनः पीछे की ओर ले जाने के लिए सर्वप्रथम उसकी गति को शून्य करना पड़ता है अर्थात वाहन को पूर्ण रूप से रोकना पड़ता है और फिर उसे पीछे ले जाने को गति देनी पड़ती है, उसी प्रकार संसार को छोड़कर परमात्मा की ओर जाने से पहले की यह गति शून्य अवस्था है | 
            यह उस साफ और शांत जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है | तुरीय का अर्थ होता है चतुर्थ | इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसे संख्या से संबोधित करते हैं | यह पारदर्शी कांच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी चित्र  नहीं बन रहा | जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतना की अवस्थाएं तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें वैसी की वैसी हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है | यह आधार-चेतना है | आधार चेतना से ही ब्राह्मी-चेतना की ओर जाना संभव होता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, May 15, 2020

आत्म-अवस्थाएं - 4

आत्म-अवस्थाएं – 4
               पहली अवस्था जिसे आत्मा की जाग्रत अवस्था अवस्था कहा गया है, वह जाग्रति संसार के प्रति है, परमात्मा के प्रति नहीं | आत्मा इस शरीर में प्रवेश कर प्रकृति के गुणों की ओर आकर्षित हो जाती है और अपना वास्तविक स्वरुप भूल जाती है | अतः इस बात का स्मरण रखें कि प्रथम अवस्था केवल संसार के प्रति जाग्रति है |
दूसरी अवस्था – स्वप्न –
          जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं | निद्रा में डूब जाना सुषुप्ति अवस्था कहलाती है | स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागा और थोड़ा सोया रहता है | शरीर विज्ञान की भाषा में इसे REM (Rapid eye movement) sleep कहा जाता है | इसमें अस्पष्ट अनुभवों और भावों का मिश्रण रहता है इसलिए व्यक्ति कब और किस प्रकार का स्वप्न देख ले, कुछ कहा नहीं जा सकता | अभी वह इस धरा पर सोया हुआ है और स्वप्न में अन्तरिक्ष और ग्रहों-नक्षत्रों तक की यात्रा तक कर आता है | प्रायः स्वप्न दिन भर के हमारे जीवन, विचार, भाव और सुख-दुख पर आधारित होते हैं | हम स्वप्न में किसी भी तरह का संसार रच सकते हैं | यह सब कुछ केवल मन और इन्द्रियों का खेल मात्र है | इसका यथार्थ से किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है | इस अवस्था में स्थूल शरीर तो सोया रहता है परन्तु मन और इन्द्रियाँ सक्रिय रहते हुए अपना प्रभाव दिखाती रहती है | इस अवस्था में सुख-दुःख का अनुभव भी होता है और कई बार तो कर्मेन्द्रियाँ तक सक्रिय हो जाती है | इसीलिए कई बार व्यक्ति रोने अथवा हंसने तक लगता है | वास्तविक सांसारिक जीवन से इस अवस्था का कोई सम्बन्ध नहीं होता सिवाय इसके कि मनुष्य दिन भर जाग्रत अवस्था में पूरी न हो सकने वाली अपनी कामनाओं की जो जो कल्पना करता है, वे सभी कामनाएं स्वप्न अवस्था में उसे साकार होती प्रतीत होती है |
तीसरी अवस्था- सुषुप्ति-
             गहन निद्रा को सु‍षुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित चेतना/आत्मा (हम स्वयं) विश्राम करते हैं | पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा | पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु |
           सुषुप्ति की अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था है | यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है | इस अवस्था में हमें किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता | इस अवस्था में व्यक्ति के द्वारा न तो कोई क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना | मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और अधिक गहरी अवस्था में चले जाते हैं | जब तक संसार से मुक्ति नहीं होती तब तक यह गाढ़ निद्रा मृत्यु के समय और अधिक गहरी हो जाती है | जब पुनः नया शरीर मिलता है, तब व्यक्ति इस सुषुप्ति अवस्था से वापिस जाग्रत अवस्था को प्राप्त कर लेता है | एक शरीर में ही सुषुप्ति से जाग्रत अवस्था में आने पर उसकी स्मृति लोप नहीं होती जबकि शरीर की मृत्यु के बाद नया शरीर मिलने के उपरांत उसे किसी एक-दो अपवाद को छोड़कर पूर्व जन्म की स्मृति का पूर्णतया लोप हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Thursday, May 14, 2020

आत्म-अवस्थाएं-3


आत्म-अवस्थाएं – 3 
           हमारी आत्मा की एक शरीर में रहते हुए सात अवस्थाएं हो सकती है, जिनकी एक एक कर हम चर्चा करेंगे | इस शरीर की जाग्रत अवस्था को प्रायः हम सभी जानते हैं | फिर आती है, स्वप्न अवस्था और अंत में सुषुप्ति अवस्था | यह क्रम इस प्रकार चलता है - जागा हुआ व्यक्ति जब पलंग पर सोता है तो पहले स्वप्न अवस्था में चला जाता है फिर जब नींद गहरी होती है तब वह सुषुप्ति अवस्था में होता है | इसी के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जागृत हो जाता है | व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रह सकता है | कुछ लोग जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं अर्थात वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं | चलिए, थोडा विस्तार से इन अवस्थाओं को जान ही लेते हैं |
प्रथम अवस्था – जाग्रत-
            जाग्रत अवस्था में व्यक्ति को सांसारिक अनुभव होता है | उसकी समस्त इन्द्रियाँ और मन सक्रिय अवस्था में रहते हैं | यह जो लेख आप अभी पढ़ रहें है वह आप अपनी जाग्रत अवस्था में ही पढ़ रहे हैं | कहने का अर्थ है कि सजग रूप से जाग्रत अवस्था में रहना ही वास्तव में शरीर की जाग्रत अवस्था है | जाग्रत अवस्था में सजगता का होना अति आवश्यक है | यदि हम जागते हुए भी वर्तमान से बाहर निकल जाते हैं तो फिर यह हमारी स्वप्न की अवस्था होगी | प्रायः हम देखते हैं कि कई व्यक्ति जाग्रत अवस्था में होते हुए भी भविष्य की कल्पना में खो जाते हैं | उनकी यह अवस्था शारीरिक रूप से जागते हुए भी जाग्रत अवस्था नहीं है बल्कि स्वप्न अवस्था है | जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो वर्तमान में नहीं रहकर कल्पना-लोक में चले जाते हैं | कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं एक प्रकार का स्वप्न-लोक होता है | जब हम अतीत अर्थात भूतकाल की किसी याद में खो जाते हैं, तो हम स्मृति-लोक में चले जाते हैं | यह भी एक-दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक ही है | अधिकतर व्यक्ति स्वप्न-लोक में ही जीकर मर जाते हैं केवल कुछ लोग ही जाग्रत अवस्था को वास्तव में जी पाते हैं अर्थात वर्तमान में बहुत कम लोग जीते हैं, प्रायः तो लोग भूत की स्मृति अथवा भविष्य की कल्पना में ही जीवन खो देते हैं | मेरे कहने का अर्थ है कि ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही आत्मा की जाग्रत अवस्था है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, May 13, 2020

आत्म-अवस्थाएं - 2


आत्म-अवस्थाएं – 2
            स्थूल शरीर की तीनों अवस्थाओं के अतिरिक्त चौथी अवस्था है, तुरीय अवस्था; जिसकी चर्चा हमने गत श्रृंखला में की थी | वास्तव में देखा जाये तो इस शरीर की कुल सात अवस्थाएं होती है | शरीर एक ही है, परन्तु अवस्थाएं सात, यह कैसे हो सकता है ? वास्तव में देखा जाये तो शरीर का जिस स्थान से आगमन हुआ है, वह परम ब्रह्म अर्थात परमात्मा कहलाता है | हमारा शरीर वैसे तो स्थूल होने से जड़ ही है परन्तु उसको संचालित करने वाली चेतना उस परम ब्रह्म की ही होती है, जिसे समझाने की दृष्टि से आत्मा कहा जाता है | यह आत्मा ही वास्तव में ब्रह्म है | उस ब्रह्म की अवस्था को पाना ही इस मानव जीवन का उद्देश्य है | इस प्रकार शरीर की अवस्थाओं को आत्मा की अवस्थाएं भी कहा जा सकता है क्योंकि शरीर का तभी तक मूल्य है, जब तक वह चेतन है | इसलिए आत्मा की अवस्थाओं को समझाने की दृष्टि से शरीर की अवस्थाएं कह सकते हैं | चूँकि ये अवस्थाएं व्यक्ति की निजी अवस्थाएं होती हैं इसलिए इनको आत्म अवस्थाएं भी कहा जा सकता है | आइये ! अब हम इस शरीर की विभिन्न अवस्थाओं अर्थात आत्म अवस्थाओं को एक –एक कर जान लेते हैं |
             वेद के अनुसार शरीर के जन्म और मृत्यु तथा पुनः मृत्यु से जन्म के बीच तीन अवस्थाएं ऐसी हैं, जो अनवरत चलती रहती है | वे तीन अवस्थाएं हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति | इन तीनों अवस्थाओं से बाहर निकलने की विधि का नाम है सनातन धर्म | सनातन धर्म को विधि बताने का अर्थ है कि हमारा यह धर्म किसी एक सीमा में सिमटा हुआ नहीं है | यह असीम और सदा के लिए है | इस धर्म में व्यक्ति को यह स्वतंत्रता है कि वह स्वयं के अनुसार किसी भी मार्ग को पकड़ कर उस ब्रह्म तक पहुँच सकता है, जहाँ तक पहुंचना ही इस जीवन का उद्देश्य है | अन्य धर्मों में केवल एक ही निश्चित मार्ग निर्धारित है, उस परम तक जाने का परन्तु यहाँ पर तो भिन्न-भिन्न मार्ग है उस तक पहुँचने के | प्रथम तीनों अवस्थाओं से तो प्राणी अपने जीवन में गुजरता ही है, महत्वपूर्ण तो इन तीनों अवस्थाओं से बाहर निकल जाना ही है | सर्वप्रथम हम इन तीन अवस्थाओं का पुनः स्मरण कर लेते हैं | मनुष्य की यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि उसकी स्मृति सांसारिक कार्यों में तो बड़ी तीव्र होती है परन्तु शास्त्रों और गुरु की बातों को वह शीघ्र ही विस्मृत कर देता है | हमें सांसारिक बातों को किसी को पुनः याद दिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती परन्तु परमात्मा की बातों को बार-बार याद दिलाना पड़ता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, May 12, 2020

आत्म-अवस्थाएं - 1


आत्म-अवस्थाएं -1
           कल समाप्त हुई “शरीर” श्रृंखला पर कई प्रतिक्रियाएं और प्रश्न मिले हैं | कुछ प्रश्न शरीर की जो तीन अवस्थाएं बतलाई गयी थी, उनको लेकर थे | वैसे इस शरीर की अवस्थाओं को लेकर जो भी शंकाएं की गयी है उनको देखते हुए मैं यह आवश्यक समझता हूँ कि विषय को और अधिक स्पष्ट किया जाये, जिससे किसी भी प्रकार का भ्रम न रहे | कई बार हम लेख के माध्यम से कोई बात कहते हैं, उसको पाठक किस प्रकार लेते हैं, यह लेखक नहीं जान सकता | लेखक सोचता है कि विषय इतनी सी बात कहने से शायद स्पष्ट हो गया होगा, परन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं है | स्पष्ट होने के स्थान पर कई बार पाठक भ्रमित हो जाता है | यह भ्रम भाषा की अस्पष्टता अथवा विषय को अल्प रूप से स्पष्ट करने से भी हो सकता है | हो सकता है, इसमें मेरे स्तर पर ही कोई त्रुटि रह गयी हो, इस कारण से मैंने उचित समझा कि क्यों न इस सम्बन्ध में उठी प्रत्येक शंका का समाधान थोडा विस्तार से कर दिया जाय |
           शरीर की तीन अवस्थाओं को जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था बताया गया था | इनके अतिरिक्त एक चौथी अवस्था बताई गयी थी, जिसे तुरीय अवस्था कहा जाता है | प्रथम तीनों अवस्थाएं सांसारिक अवस्थाएं है, स्थूल शरीर की अवस्थाएं है | तुरीय का अर्थ ही चार होता है इसीलिए चौथी अवस्था को तुरीय अवस्था कहा गया है | यह शरीर की वह अवस्था है, जब मनुष्य परमात्मा को पाने अर्थात स्वयं के ब्रह्म हो जाने की (वैसे वह ब्रह्म ही है, केवल उस स्वरुप को वह विस्मृत कर चूका है) तैयारी करता है | शरीर की इन अवस्थाओं को हम स्पष्ट रूप से नहीं समझ सके हैं क्योंकि तुरीय अवस्था को ही बहुधा पाठक व्यक्ति अपने जीवन की अंतिम अवस्था समझ लेते हैं | वास्तव में तुरीय अवस्था शरीर की एक मध्यम् अर्थात बीच की अवस्था है, जहाँ से व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक यात्रा की शरुआत करता है | तुरीय अवस्था से व्यक्ति की यह यात्रा किस प्रकार प्रारम्भ होती है और इस संसार में रहते हुए अंतिम अवस्था जिसे व्यक्ति के जीवन की सर्वोच्च अवस्था कहा जा सकता है, वह क्या होती है ? इसी को जानने के लिए एक लघु श्रृंखला आपके समक्ष प्रस्तुत है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

Monday, May 11, 2020

शरीर-18 समापन कड़ी-


शरीर -18 –समापन कड़ी       
       साधारण मनुष्य का अनुभव स्थूल शरीर का अनुभव है, साधारण योगी का अनुभव सूक्ष्म शरीर का अनुभव है, परम योगी का अनुभव परमात्मा का अनुभव है | परमात्मा एक है, सूक्ष्म शरीर अनंत हैं, स्थूल शरीर भी अनंत हैं। वह जो सूक्ष्म शरीर है वही बन जाता है कारण शरीर (Causal body)। वह जो सूक्ष्म शरीर है, वही नए स्थूल शरीर ग्रहण करता है।
        हमारे भीतर से जो चेतना झांक रही है, वह चेतना एक है। लेकिन उस चेतना को झांकने के लिए दो उपकरणों का प्रयोग किया गया है। पहला सूक्ष्म उपकरण है सूक्ष्म देह और  दूसरा स्थूल उपकरण है, स्थूल देह। हमारा अनुभव स्थूल देह तक ही रूक जाता है। यह जो स्थूल देह तक रूक गया अनुभव है, यही मनुष्य के जीवन का सारा अंधकार और दुख है। लेकिन कुछ लोग सूक्ष्म शरीर पर पहुंचकर भी रूक सकते हैं। जो लोग सूक्ष्म शरीर पर जाकर रूक जाते हैं, वे ऐसा कहेंगे कि आत्माएं अनंत हैं। लेकिन जो सूक्ष्म शरीर के भी आगे चले जाते है, वे कहेंगे कि परमात्मा एक है। आत्मा एक, ब्रह्म एक है।
       स्थूल शरीर में आत्मा के प्रवेश का अर्थ है वह आत्मा जिसका अभी सूक्ष्म शरीर गिरा नहीं है। इसलिए हम कहते हैं कि जो आत्मा परम मुक्ति को उपलब्ध हो जाती है, उसका जन्म-मरण बंद हो जाता है। आत्मा का तो कोई जन्म-मरण है ही नहीं। वह न तो कभी जन्मी है और न कभी मरेगी ही | वह जो सूक्ष्म शरीर है, वह भी समाप्त हो जाने पर कोई जन्म-मरण नहीं रह जाता क्योंकि सूक्ष्म शरीर ही कारण बनता है नए जन्मों का।
         सूक्ष्म शरीर का अर्थ है,  हमारे विचार,  हमारी कामनाएँ, हमारी वासनाएं, हमारी इच्छाएं, हमारे अनुभव, हमारा ज्ञान, हमारे राग-द्वेष, इन सबका जो संग्रहीभूत, जो एकीकृत बीज (Integrated seed) है,  वह हमारा सूक्ष्म शरीर है। वही हमें आगे की यात्रा कराता है। लेकिन जिस मनुष्य के सारे विचार नष्ट हो गए, जिस मनुष्य की सारी वासनाएं क्षीण हो गई, जिस मनुष्य की सारी इच्छाएं विलीन हो गई, जिसके भीतर अब कोई भी इच्छा शेष न रही, उस मनुष्य को जाने के लिए कोई जगह नहीं बचती, कहीं जाने का अर्थात पुनर्जन्म का कोई कारण शेष नहीं रह जाता | यही मुक्ति है |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||