Tuesday, March 31, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -21-समापन कड़ी


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-21 समापन कड़ी-
         अब तक किये गए विवेचन का सारांश यह है कि पुरुष स्व-स्वरूप से नित्य मुक्त होते हुए भी प्रकृति के साथ तादात्म्य के कारण जीव बनकर संसार के सुख-दुःख को भोगता है। इसी तादात्म्य के कारण उसमें उत्पन्न हुई वासनाओं के अनुरूप विभिन्न योनियों में उसे जन्म लेना पड़ता है। परन्तु जो साधक साधन संपन्न होकर गुरु के उपदेश से प्रकृति-पुरुष, उनके परस्पर सम्बन्ध तथा प्रकृति के विभिन्न प्रकार के प्रभाव रखने वाले गुणों को तत्व से जान लेता है, वही पुरुष वास्तव में ज्ञानी है। वही पुरुष सदा के लिए संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
               किसी वस्तु को सम्पूर्ण रूप से जानने के लिए उससे विलग हो जाना चाहिए। संसार को भी संसार से विलग होकर जाना जा सकता है। यदि हम संसार में उलझे हुए हैं तो संसार को कभी भी नहीं जान सकेंगे। अतः प्रकृति के विकारों (देहादि) और गुणों (सुख-दुःख) को जानने के लिए हमें उन सबका द्रष्टा बनकर उनसे दूर जाकर स्थित हो जाना चाहिए तभी हम परमात्मा को जान पाएंगे। ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे कि संसार को संसार से भिन्न होकर जाना जा सकता है और परमात्मा को परमात्मा से अभिन्न होकर जाना जा सकता है।
        अतः अनंत-स्वरूप परमात्मा को, परम ब्रह्म को अपने आत्म-स्वरूप से जानने का अर्थ ही अविद्या को नष्ट करना है। ऐसे में पूर्ण ज्ञानी व्यक्ति का पुनः प्रकृति के साथ मिथ्या तादात्म्य स्थापित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसीलिए भगवान कहते हैं कि फिर सब प्रकार से रहते हुए भी ऐसे ज्ञानी का पुनर्जन्म नहीं होता। भगवान् का कहने का अभिप्राय यह है कि ज्ञानी पुरुष इस संसार में कर्म करता हुआ भी सामान्य मनुष्यों के समान नई-नई वासनाओं को अपने में उत्पन्न ही नहीं होने देता और किसी बंधन में नहीं बंधता क्योंकि उसका अहंकार सर्वथा नष्ट हो चूका होता है। ब्रह्म को जान लेने वाला ब्रह्म ही बन जाता है और उसके समस्त कर्म नष्ट हो जाते है, यह सभी उपनिषदों के द्वारा प्रतिपादित सत्य है।    
  अंत में कहना चाहूंगा कि -
   जगच्चित्रं स्वचैतन्ये पटे चित्रमिवार्पितम् ।
   मायया तदुपेक्ष्यैव चैतन्यं परिशेष्यताम् ।।
             -पंचदशी-6/289
अर्थात कपड़े पर खिंचे हुए चित्र की तरह अपने आत्म चैतन्य में जो जगत रुपी चित्र माया के प्रताप से खिंच गया है, उस जगत की उपेक्षा करके अपने आत्म चैतन्य को परिशेष कर डालो अर्थात शेष बचे हुए तत्व का भी बोध कर डालो। 
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
।। हरिः शरणम्।।

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