Wednesday, March 18, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -8


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-8  
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
 अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।15/14।।
अर्थात मैं ही प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर सभी प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।
     इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी प्राणियों के कारण (Causal body) और सूक्ष्म शरीर (Subtle body) तो समान होते हैं परंतु स्थूल शरीर (Gross body) भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। स्थूल शरीर की बाह्य दृष्टि (Outward vision) होती है, इसलिए वे आत्मा को देख नहीं सकते। अतः इन स्थूल शरीरों में से किसी को भी आत्म-तत्व का बोध नहीं होता है।
       शरीर और भोग सामग्री की व्यवस्था होने के बाद विषय भोग (Material enjoyment) भोगने के लिए कर्म (Acts) करना प्रारम्भ होते हैं और फिर उन कर्म के फल भी भोगे जाते हैं। जितने भोग प्राप्त किये जाते हैं, व्यक्ति उतना ही अधिक उन विषयों के प्रति आसक्त होता जाता है। इस प्रकार उसके मन में कामनाओं का बार बार उत्पन्न होने और बढ़ते जाने का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। जिस प्रकार  जल के भंवर में कोई कीड़ा एक निश्चित सीमा में सतत चक्कर लगाता रहता है, उसी प्रकार मनुष्य भी कामनाओं, कर्म तथा भोगों के भंवर में जन्म जन्मों तक चक्कर लगाता रहता है। यह चक्कर तब तक चलता है, जब तक कोई सहृदय दयालु व्यक्ति आकर उसे उस भंवर से बाहर निकाल नहीं लेता। ऐसा तभी होता है जब किसी पूर्वजन्म के पुण्य परिपक्व हो जाने का समय आ जाता हो। ऐसे महान व्यक्तित्व (Great personality) को ही गुरु कहा जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि सद्गुरु पूर्वजन्म के सत्कर्मों के फलस्वरूप ही किसी किसी व्यक्ति को ही मिलते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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