ब्रह्मविद्
ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-5
ब्रह्मतत्त्व
से जगत का निर्माण -
हम सभी ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं और
ब्रह्म तक पहुंचकर ब्रह्म ही हो जाना हमारे जीवन का एक मात्र लक्ष्य है। इसका अर्थ
यह नहीं है कि हम अभी ब्रह्म से भिन्न हैं। नहीं, अभी भी हम ब्रह्म से अभिन्न ही हैं परंतु सांसारिक माया ने हमें इस
वास्तविकता से बहुत दूर कर दिया है। कहने का अर्थ है कि हम अपने ब्रह्म स्वरूप को
विस्मृत कर चुके हैं। ब्रह्म ही सत है। उसका स्वरूप चिदानंद है। जैसे वह चिदानंद
है वैसे ही हम भी चिदानंद है। हम कैसे अपने स्वरूप को भूल गए, यह जानने के लिए हमें सर्वप्रथम ब्रह्म से
सृष्टि निर्माण किस प्रकार हुआ, उसको
जानना होगा।
सृष्टि निर्माण से पूर्व एक बार
सच्चिदानंद ब्रह्म को अपना स्वरूप देखने और जानने की इच्छा हुई। अब कोई अकेला भला
अपना स्वरूप कैसे देख सकता है? इसलिए
उन्होंने सबसे पहले अपने प्रतिबिम्ब रूप त्रिगुणी प्रकृति को उत्पन्न किया।
प्रतिबिम्ब दर्पण में ही देखा जा सकता है, ऐसे
में प्रकृति को एक दर्पण की तरह माना जा सकता है। त्रिगुणी प्रकृति भी सत्व गुण की
तीव्रता और मलिनता के कारण दो प्रकार की होती हैः सत्व की शुद्धि स्वरूपा और सत्व
की मलिन स्वरूपा। सत्व से शुद्ध स्वरूपा प्रकृति को ही परमात्मा की “माया“ (विद्या
माया) कहा जाता है जबकि मलिन सत्व रूप प्रकृति को “अविद्या“ (अविद्या माया) कहा
जाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि “माया“ ही ब्रह्म का प्रतिफल हुआ। इस सत्व
से शुद्ध प्रकृति अर्थात माया में पड़े
चिदानंद के बिम्ब ने माया को अपने वश में किया और वश में करके स्वयं
“ईश्वर“ बन बैठा। कहने का अर्थ है कि माया में चिदानंद के प्रतिबिम्ब रूप उस आत्मा
ने माया को अपने अधीन कर लिया। ब्रह्म अर्थात परमात्मा, अपने बिम्ब द्वारा वश में की गई इसी प्रकृति के
माध्यम से ही जगत में अवतार लेते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः
शरणम् ||
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