Monday, March 16, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -6


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-6  
गीता में भी भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतनामीश्वरोऽपिसन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया”।। 4/6।।
अर्थात मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए,सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर (सर्वेश्वर) होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।
        दूसरी ओर सत्व मलिन प्रकृति यानी “अविद्या“ प्रकृति की विचित्रता यानि चकाचौंध (Glamour) को देखकर चिदानन्द का प्रतिबिंब अर्थात आत्मा उसके वश में हो गया। ऐसी स्थिति में आत्मा स्वयं को भी सत्व मलिन प्रकृति ही समझ बैठा। यहाँ पर आकर इस प्रकार की स्थिति के पैदा होने से ‘सृष्टि के निर्माण’ (Creation) की राह खुलती है। आत्मा का अज्ञानवश इस सत्व मलिन प्रकृति के वश में हो जाना ही “अविद्या“ है। इस अविद्या को ही “कारण शरीर“ कहा जाता है। इस “कारण शरीर“ कहलाने वाली अविद्या में “अहं“ भाव (ego/significance) रखने वाले प्रतिबिम्ब (आत्मा) को “प्राज्ञ“ कहा जाता है। इसी प्राज्ञ को “जीव“ भी कहा जाता है। यह जीव अविद्या की विचित्रता देखकर बहुत रूपों में व्यक्त होता है। इसके अनेक भेद हो जाते हैं जैसे देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि।
        इस स्थिति को देखकर सत्व शुद्ध प्रकृति को अपने वश में कर बैठे ईश्वर ने प्राज्ञों के भोग के लिए तमः प्रुभत्व वाली प्रकृति (सत्व मलिन प्रकृति) से पांच भूत तत्व यथा पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश उत्पन्न किये। फिर इन पञ्च भूतों के पृथक पृथक  पांच सत्व भागों से पांच ज्ञानेंद्रियों (Senses of knowledge) को उत्पन्न किया। इसके बाद इन्हीं पांच भूतों के पांचों सत्वांशों से मिलकर एक अंतःकरण नाम का द्रव्य (Substance) उत्पन्न हुआ। वह अंतःकरण अपने वृति भेद के कारण दो प्रकार का होता है। इस अंतःकरण के दो वृतिभेद (Difference of nature) हैंः प्रथम, जो संशयात्मक वृति (Doubtful nature) रखता है वह मन कहलाता है (Psyche/mood) और द्वितीय, जिसकी निश्चयात्मक वृति (Determine nature) होती है वह बुद्धि (Mind) कहलाई। तत्पश्चात पांच भूतों के पृथक पृथक राजसी भागों से पांच कर्मेन्द्रियाँ (Senses of action) : वाक(Vocal cords), पाणि (Upper limbs), पाद (Lower limbs), पायु (organs of excretion) और उपस्थ (organs of reproduction) बनी। अंत में पांचों भूतों की राजस प्रकृति से पांच प्राण यथा प्राण, अपान, समान, उदान और वियान (व्यान) बने। इस प्रकार पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच प्राण और मन तथा बुद्धि (अंतःकरण) कुल सत्रह मिलकर “सूक्ष्म शरीर“ (Subtle body) कहलाते हैं। वेदांत में इसी सूक्ष्म शरीर को “लिंग शरीर“ कहा जाता है। 
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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