ब्रह्मविद्
ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-12
आनंदमय ईश्वर जगत की रचना किस प्रकार करता
है? गाढ़ निद्रा (deep sleep) जैसे स्वप्न (Dream) में बदल जाती
है उसी प्रकार ईश्वर ने बैठे-बैठे विचार किया कि “अब मैं बहुरूप हो जाऊं“। ऐसा
विचार करते ही वह हिरण्यगर्भ रूप हो गया मानो सुषुप्ति ही स्वप्न हो गया हो। इस
प्रकार इस सृष्टि का निर्माण (Creation) हुआ। अब प्रश्न उठता है कि सृष्टि क्रमानुसार (In well arranged order) उत्पन्न
हुई अथवा एक साथ (Spontaneous)। हमारे शास्त्रों में दोनों ही प्रकार की श्रुतियां विद्यमान है।
तैतरीय उपनिषद ( तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः... 2/1/2) की श्रुति में क्रमोत्पन्न सृष्टि का वर्णन है
वहीं बृहदारण्यक उपनिषद (इदं सर्वम सृजत....
1/2/5) में युगपत् सृष्टि का वर्णन आता है।
दोनों ही सत्य कही जा सकती है। जिस प्रकार स्वप्न भी दो प्रकार के देखे जाते हैं; एक स्वप्न में तो क्रम से पदार्थ उत्पन्न होते
हैं तथा किसी दूसरे स्वप्न में सब के सब पदार्थ एक साथ यकायक (spontaneously) उत्पन्न होते दिखाई
पड़ते हैं।
जैसे किसी कपड़े में सूत्र (Thread) गूंथा (Weaved) रहता है
वैसे ही जगत में गूंथा रहने वाला सूत्रात्मा (हिरण्यगर्भ) रहता है। इसी हिरण्यगर्भ
को जगत की सूक्ष्म देह अथवा लिंग देह भी कहा जाता है। सम्पूर्ण लिंग शरीरों
(व्यष्टि लिंग शरीरों) में अहंभाव करने से यह सूत्रात्मा समस्त लिंग शरीरों का
समष्टि (Whole) रूप है। इस सूत्रात्मा में ’ज्ञान, इच्छा
और क्रिया“ (Knowledge, ambitions and action) ये तीन शक्तियां रहती है। इस
समष्टि सूत्रात्मा का स्वभाव हम जैसी समस्त व्यष्टियों (Units) में भी पाया जाता है। इसी
कारण से हमें पहले तो किसी पदार्थ (Matter) का ज्ञान (Knowledge) होता है, फिर उसकी चाहना यानी इच्छा (ambition/desire) होती है और फिर उसे प्राप्त करने के लिए
क्रिया (Action) की जाती है। इस प्रकार यह समस्त संसार ज्ञान, इच्छा और क्रिया के ही अनंत भंवर (Vicious cycle) में चक्कर काटता रहता है। तत्त्व-ज्ञान
हो जाने पर ज्ञान, इच्छा और क्रिया का यह चक्कर बन्द हो
जाता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः
शरणम् ||
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