Thursday, March 19, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -9


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-9
       गुरु उसको इस संसार सागर के भंवर से बाहर निकालकर विश्राम की अवस्था का अनुभव कराता है। वह उसे शरीर के पांच कोशों के बारे में बताते हुए स्पष्ट करता है कि स्थूल शरीर तो केवल अन्नमय कोश है। यह कोश पांच भौतिक तत्वों से बना हुआ है। फिर उसके भीतर प्राणमय कोश है जिसमें प्राण, अपान, समान, उदान और वियान नामक पांच प्राण होते हैं। प्राणमय कोश के ही भीतर मनोमय कोश होता है, जिसमें मन है। प्राणमय और मनोमय कोश दोनों मिलकर सूक्ष्म शरीर कहलाते हैं। मनोमय के बाद विज्ञानमय कोश आता है जिसमें बुद्धि निवास करती है। अंत में शरीर का सबसे भीतरी कोश आता है : आनंदमय कोश, जिसे कारण शरीर भी कहा जाता है। विज्ञानमय कोश को जीव व आनंदमय कोश को ईश्वर कहा जाता है। आत्मा (ब्रह्म) शरीर के इन पांचों कोशों के भीतर रहती है और इन पञ्च कोशों में सदैव विचरण करती रहती है। मनुष्य की विडम्बना है कि वह इन सभी कोशों का ज्ञान तो रखता है परंतु अपनी आत्मा से अनभिज्ञ बना रहता है। अनभिज्ञ बने रहने का भी एक कारण है। आत्मा आनंदमय कोश के साथ तादात्म्य स्थापित कर स्वयं को आनंदमय कोश ही समझने लग जाती है, जबकि वास्तविकता यह है कि आत्मा इन समस्त कोशों से भिन्न व विलक्षण है। उसी विलक्षण आत्मा के ज्ञान को प्राप्त कर लेना ही आत्मबोध हो जाना अथवा ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान हो जाना है।
                 आत्मा वैसे तो ब्रह्म ही है परन्तु शरीर के प्रति पैदा हुए आकर्षण के कारण वह स्वयं को शरीर ही होना मान लेती है। यही कारण है कि वह अपना स्वरूप तक भूल जाती है और अपने अंशी अर्थात ब्रह्म से दूर हो जाती है। इस वास्तविकता को जिस समय वह जान जाता है, तत्काल ही आत्म-बोध को उपलब्ध हो जाता है। हरिः शरणम् आश्रम बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह सर्वप्रथम स्वयं में परमात्मा को देखे, फिर सभी प्राणियों में परमात्मा के दर्शन करे। इस प्रकार अन्ततः उसके लिए समस्त संसार ही परमात्मा हो जाएगा। इस प्रकार ’वासुदेव सर्वम्’ का भाव रखने से हम ब्रह्म तक पहुंच सकते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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