ब्रह्मविद्
ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-10
इस प्रकार अल्प रूप से हमने ईश्वर, हिरण्यगर्भ, विराट, विश्व, शरीर
आदि के अस्तित्व में आने की चर्चा की है। अब चलते हैं, ब्रह्मतत्त्व को जानने की यात्रा पर। यह यात्रा
प्रारम्भ होती है, गुरु से ईश्वर को जान लेने के बाद। तो
आइए, चलते हैं इस यात्रा पर।
ईश्वर
के रुप -
अपने बिम्ब स्वरूप त्रिगुणी प्रकृति के
सत्वशुद्ध रूप को अपने वश में कर ब्रह्म, ईश्वर
बन जाता है। फिर यही ईश्वर वैश्वानर, हिरण्यगर्भ, तैजस, विश्व
का निर्माण करता हुआ स्थूल शरीर बनने की स्थिति तक पहुंच जाता है। इस प्रकार मोटे
रूप से ईश्वर के दो रूप माने जा सकते हैं : शरीर के भीतर “अंतर्यामी” (Omniscient)
और शरीर के बाहर “सर्वेश्वर” (Omnipresent)। हमें ब्रह्म तक पहुंचना है तो
सर्वप्रथम हमें अपने शरीर के भीतर बैठे अंतर्यामी ईश्वर को जानने से प्रारम्भ करना
होगा।
1.अंतर्यामी—(omniscient)-
अंतर्यामी अर्थात शरीर के अंदर रहकर नियमन
करने वाला ईश्वर। यह बुद्धि के अंदर रहता है। बुद्धि इसको देख नहीं सकती। वह अंदर
रहकर इस बुद्धि को नियम में रख रहा है। यही चोर को चोरी करने को भी उकसाता है, मालिक को सावधान रहने की भी प्रेरणा देता है, बहादुर को लड़ने की और भीरु को भाग जाने की सम्मति देता है।
इस प्रकार वह सब जीवों के कर्मों की डोर को अंदर बैठा हुआ हिलाता रहता है। गीता
में भगवान श्री कृष्ण अंतिम अध्याय में अर्जुन को एकदम स्पष्ट कर देते हैं-
ईश्वरः
सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि
यन्त्रारुढानि मायया।। गीता-18/61।।
अर्थात
हे अर्जुन ! शरीर रुपी यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी
परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के ह्रदय
में स्थित है।
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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