ब्रह्मविद्
ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-4
भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन
महाराज को यह बात समझाते हुए कहते हैं-
“अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो
जगत्त्।।गीता-10/42।।
अर्थात
हे अर्जुन ! बहुत अधिक जानने से तेरा क्या प्रयोजन है। मैं इस सम्पूर्ण जगत को
अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।
यह संसार परमात्मा के एक अंश में स्थित
है और हम अपनी सांसारिक उपलब्धियों को बहुत बड़ी मानकर अहंकारित घूम रहे हैं। हमारा
अहंकार तभी समाप्त हो सकता है जब हमें यह ज्ञान हो कि परमात्मा की इस जगत रचना में
हमारी स्थिति क्या है? अहंकार और कामनाओं का आपस में गहरा
सम्बन्ध है, ये एक दूसरे की वृद्धि करने वाले हैं।
अतः यह आवश्यक है कि हम अपनी स्थिति से अवगत हो जिससे हम कामना और अहंकार रहित हो
सकें। इस श्रृंखला में हम इस बात को जानने का प्रयास करेंगे कि परमात्मा के एक अंश
से इस जगत का निर्माण कैसे हुआ, इस
संसार में हमारी स्थिति क्या है और परमात्मा तक पुनः कैसे पहुंचा जा सकता है ? गीता में कहा गया है- “ब्रह्मविद् ब्रह्मणि
स्थितः” (5/20) यानि ब्रह्म को जानने वाला ही मनुष्य
ब्रह्म में स्थित है। यह शुद्ध ज्ञान मार्ग है, इसलिए
इसको पढ़ना किसी-किसी को थोडा नीरस सा भी लग सकता है। मेरा पूरा प्रयास रहेगा कि
आपको यह श्रृंखला नीरस नहीं लगे और अल्प शब्दों के माध्यम से परमात्मा की इस संसार-रचना की
प्रक्रिया को शास्त्रों से संकलित कर आपके सामने स्पष्ट कर सकूं।
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः
शरणम् ||
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