ब्रह्मविद्
ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-15
एक
जगत तो ईश्वर ने बनाया है,
जिसका वर्णन पहले ही किया जा चुका है।
ईक्षण (देखना, देखभाल) से लेकर प्रवेश पर्यंत सृष्टि तो ईश्वर
की बनाई हुई है। फिर जाग्रत से लेकर मोक्ष पर्यंत की सृष्टि का सृजन अर्थात अपने
संसार का निर्माण स्वयं जीव ने किया है। यहां आकर हम ईश्वर को जीव से भिन्न मान
लेते हैं। नहीं, जीव और ईश्वर में कोई भिन्नता नहीं है।
भिन्नता मानने का कारण है : कर्तृत्व धर्म तो जीव का मान लिया जाता है और
सर्वज्ञता वाला गुण ईश्वर का। इस प्रकार मान लेने का कारण अविद्या ही है।
वास्तव में देखा जाए तो केवल ब्रह्म तत्व ही
सत्य है शेष सभी एक स्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं है। अतः जानना है तो उस ब्रह्म को
जानो, तत्वज्ञान को प्राप्त करो, केवल ईश्वर की पूजा करने से कुछ नहीं होगा ।
पूजन करना है तो उस परम का करो जो इस ईश्वर का भी कारण है। उस परमेश्वर, उस परमात्मा के अतिरिक्त कोई सत्य नहीं है, सब कुछ स्वप्नवत है। जिनको ब्रह्म-तत्व का
ज्ञान नहीं होता है, उनका इस संसार से आवागमन कभी नहीं मिट
सकता। मनुष्य को ’ईश्वर-तत्व’ के विषय में और ’जीव’ के प्रति बड़ा भ्रम हो रहा है।
कहने का अर्थ है कि जो अद्वितीय ब्रह्म को नहीं जानते हैं, वे सभी भ्रमित हैं। उनको मर जाने पर न तो
विदेह-मुक्ति ही मिलती है और न ही जीते जी इस लोक में वे सुख पा सकते हैं। अतः
मुक्ति चाहने वाले को कभी ’जीववाद’ अथवा ’ईश्वरवाद’ के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिए।
उन्हें केवल ब्रह्मतत्त्व का विचार करते हुए वहां तक पहुंचने का प्रयास करना
चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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