ब्रह्मविद्
ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-17
केवल की जा रही क्रियाओं (Actions) को देखकर किसी
का तत्वज्ञानी होना निश्चित नहीं किया जा सकता। क्रिया तो ज्ञानी और अज्ञानी दोनों
ही एक जैसी करते हैं। भेद केवल इतना ही है कि ज्ञानी रंगमंच के कलाकार (Actor) के अभिनय (Acting) करने की तरह अपने हिस्से आया काम कर जाता है और अज्ञानी रो रो कर, खीज खीज कर अपने हिस्से आया काम राग अथवा द्वेष
से करता है।
ब्रह्मतत्त्व
का बोध
हमारी
कामनाएं ही ब्रह्मतत्त्व के बोध में बाधक हैं। इसके लिए हमारा अहंकार और
चिदात्मा का संग (Combination) उत्तरदायी (Responsible) है। अहंकार और चिदात्मा को अपने अज्ञान से एक बनाकर जब
ऐसी आशा करने लग जाते हैं कि हमें यह भी मिले, वह
भी मिले। बस, हमारी यही इच्छाएं ही ’काम’ कहलाती
हैं। अगर चिदात्मा को उसमें प्रविष्ट न किया जाये और अहंकार को उससे पृथक (Separate) करके देख
लिया जाये तो फिर भले ही लाखों करोड़ों इच्छाएं करो, कुछ भी हानि नहीं होगी। फिर ऐसी इच्छाओं से तो केवल लोक संग्रह ही
होगा। अगर हम गंभीरता से विचार करें तो अनुभव होगा कि हमारा अहं ही सब कुछ चाहता
है चिदात्मा तो सदैव निर्मल (Pure) है। अतः विचार कर इन दोनों का संग नहीं होने देना
चाहिए। दोनों का साथ होना चिज्जड़-ग्रंथि कहलाता है और दोनों को अलग अलग मान लेना
ग्रंथि भेद। ग्रंथि भेद हो जाने के बाद भी कामनाएं और इच्छाएं जन्म ले सकती है तो
उसका कारण प्रारब्ध कर्म (Destiny) की प्रबलता मानी जाती है। देह, इन्द्रिय, मन
और बुद्धि जब किसी काम में प्रवृत्त (Incline) अथवा निवृत (Decline) होती हैं तब ज्ञानी और अज्ञानी में
बाहरी रूप से अल्प सा भी अंतर नहीं रह जाता परंतु आंतरिक रूप से ’ग्रंथि’ और
’ग्रंथिभेद’ का अंतर होता है। गीता में इसी बात को भगवान श्री कृष्ण ने इस श्लोक के माध्यम से स्पष्ट किया है |
“उदासीनवदासीनः गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेंगते।।“(गीता-14/23)
अर्थात जो उदासीन की तरह स्थित है और जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुण में बरत रहे हैं-इस भाव से जो अपने स्वरुप में स्थित रहता है और स्वयं कोई प्रयास नहीं करता। ऐसा मनुष्य ही गुणातीत कहलाता है। इस संसार में ही देख लीजिए, संग (Attached) करने वाले तो लोग बंधे फिर रहे हैं और निःसंग (Unattached) व्यक्ति मौज में रहते हैं।
“उदासीनवदासीनः गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेंगते।।“(गीता-14/23)
अर्थात जो उदासीन की तरह स्थित है और जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुण में बरत रहे हैं-इस भाव से जो अपने स्वरुप में स्थित रहता है और स्वयं कोई प्रयास नहीं करता। ऐसा मनुष्य ही गुणातीत कहलाता है। इस संसार में ही देख लीजिए, संग (Attached) करने वाले तो लोग बंधे फिर रहे हैं और निःसंग (Unattached) व्यक्ति मौज में रहते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः
शरणम् ||
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