ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः (ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-3
ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास
जी महाराज कहते हैं कि पदार्थ और क्रिया ही इस संसार-चक्र का मूलभूत आधार है। मनुष्य
तभी योग में स्थित हो सकता है जब उसकी पदार्थ और क्रिया में आसक्ति समाप्त हो
जाये। पदार्थ और क्रिया में आसक्ति समाप्त होते ही सम्पूर्ण संकल्पों का त्याग
स्वतः ही हो जाता है।
इतना विवेचन करने के उपरांत यह
स्पष्ट हो जाता है कि काम और उसको पूरा करने का संकल्प एक दूसरे से गहरे रूप से
जुड़े हुए हैं। काम है तो संकल्प होगा ही और इन्द्रियां, मन और बुद्धि है तो उसमें काम निवास करेगा ही।
केवल ज्ञान ही इस काम को भस्म कर सकता है। अब प्रश्न यह उठता है कि वह ज्ञान कौन
सा और कैसा है जिसको आत्मसात करने से मन, बुद्धि, इन्द्रियां, इन
सबको अपने वश में किया जा सकता है। जब तक हम इस जगत के निर्माण की प्रक्रिया को
नहीं समझेंगे तब तक मनुष्य को इस संसार में अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं
होगा और जब तक स्थिति का अनुभव नहीं होगा तब तक इन्द्रियों, मन और बुद्धि को नियंत्रण में रख पाना संभव
नहीं होगा।
श्री
मद्भागवत महापुराण में लिखा है-
यस्मिन्
यतो येन च यस्य यस्मै
यद् यो यथा कुरुते कार्यते च।
परावरेषां
परमं प्राक् प्रसिद्धं
तद् ब्रह्म तद्धेतुरनन्यदेकम्।। 6/4/30।।
अर्थात
भगवन् ! आप में ही यह सारा जगत स्थित है; आपसे
ही निकला है और आपने किसी अन्य के सहारे नहीं बल्कि अपने-आप ही इसका निर्माण किया
है। यह आपका ही है और आपके लिए ही है। इसके रूप में बनने वाले भी आप ही हैं और
बनाने वाले भी आप ही हैं। बनने- बनाने की विधि भी आप ही हैं। आप ही सबसे काम लेने
वाले हैं। जब कार्य और कारण का भेद नहीं था, तब
भी आप स्वयं सिद्ध स्वरूप से स्थित थे। इसी से आप सबके कारण भी हैं। सत्य बात तो
यह है कि आप जीव-जगत के भेद और स्वगत भेद से सर्वथा रहित अद्वितीय हैं। आप स्वयं
ब्रह्म हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति
- डॉ.प्रकाश काछवाल
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हरिः शरणम् ||
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