Tuesday, March 17, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -7


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-7
              जब यह प्राज्ञ (जीव) जब लिंग शरीर में अभिमान करता है तो वह उसे ही “आत्मा“ मानने लगता है और “तैजस“ कहलाता है तथा जब ईश्वर इस लिंग शरीर में अभिमान करता है तब उस स्थिति में आकर वे ईश्वर “हिरण्यगर्भ“ कहलाने लगते हैं। यहां आकर यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि तैजस और हिरण्यगर्भ दोनों ही लिंग शरीर पर अभिमान करते हैं परंतु अंतर सिर्फ इतना ही है कि एक ओर हिरण्यगर्भ को तो सदैव अपने ईश्वर होने का भान बना रहता है परंतु दूसरी ओर तैजस को कभी भी अपने ईश्वर होने का भान नहीं रहता। इसका कारण है कि ईश्वर ने तो अपनी सत्व शुद्ध प्रकृति (माया) को अपने वश में कर रखा है परंतु तैजस सत्व मलिन प्रकृति के वश में हो गया है। केवल इसी कारण से उसे ईश्वर न कहकर अविद्या कहा जाता है।
        हिरण्यगर्भ सर्वलिंग शरीरों में अपनी एकता (Uniformity) उपस्थिति को समझता है, इसलिए वह तो समष्टि (Whole) है और तैजस स्वयं केवल एक लिंग शरीर में ही अपनी उपस्थिति समझता है, इससे वह व्यष्टि (Unit) है। दोनों में यह भेद (difference) ही महत्वपूर्ण है।
        अब ईश्वर इन जीवों के लिए भोग (Material enjoyment) के लिए भोग्य यानि अन्नादि (Material) तथा भोग्य-मन्दिर यानि शरीर (Physical body) का निर्माण करता है। इनका निर्माण करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि सत्व मलिन प्रकृति के वश में हुआ वह परमात्मा (आत्मा) इस प्रकृति में उपस्थित दो अन्य प्रभावशाली गुणों यथा रजस और तमस के आकर्षण में आकर भोग करना चाहता है। इसके लिए ईश्वर पांचों भूत तत्वों को पंचात्मक कर (एक निश्चित अनुपात में आपस में मिलाकर) विभिन्न प्राणियों के शरीरों की रचना करते हैं। उन पंचीकृत भूतों से ही ब्रह्मांड (Universe) का निर्माण हुआ है। इसी ब्रह्मांड में अन्न व शरीरों का निर्माण होता है। यह शरीर समष्टि (Whole) के स्तर पर विराट (Massive/grand) कहलाता है और व्यष्टि (Unit) के स्तर (Level) पर स्थूल शरीर (Gross body)। इस विराट में अभिमान कर बैठने वाले हिरण्यगर्भ को “वैश्वानर“ (Global) कहते हैं और स्थूल शरीर को पाकर तैजस भी “विश्व“ (World) हो जाता है।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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