ब्रह्मविद्
ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-16
ईश्वर और जीव को इस प्रकार समझा जा सकता है मानो
माया (प्रकृति) नाम की एक कामधेनु है। उसके दो बछड़े हैं। एक का नाम है; ईश्वर (सत्व शुद्ध प्रकृति) और दूसरे का जीव (सत्व मलिन प्रकृति)। वे दोनों द्वैतरूपी दूध
को पेट भरकर जितना चाहे पीते रहें परंतु वास्तविक तत्व तो अद्वैत (ब्रह्म) ही है। यह अद्वैत
ब्रह्मतत्त्व तीनों कालों में रहता है। वह आज भी है और मुक्ति हो जाने पर भी
भविष्य में वह बना रहेगा। इतना जान लेने के उपरांत भी अगर भेद (Difference) बना रहता है तो इसका
कारण है कि उस परम ब्रह्म की माया ने ही हमें भरमा (Confuse) रखा है। बंधन माया के कारण है। बंधन मन की चीज
है। ज्ञानी का बंधन टूट जाता है। अद्वैत भाव-प्रधान है। जब ’द्वैत असत है’ क्योंकि
द्वैत मायामय है, ऐसा मान लिया जाता है, तब ज्ञानी को अद्वैत स्वयंमेव ही स्पष्ट हो
जाता है। द्वैत का मिथ्यापन बार बार विचार करते रहने से स्पष्ट हो सकता है।
इसी प्रकार कई बार साकार और निराकार को मानने वालों में मतभेद सामने आते हैं। अतः साकार-निराकार के भेद को स्पष्ट करना भी आवश्यक है। श्री मद्भागवत महापुराण में प्रजापति दक्ष भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं-
इसी प्रकार कई बार साकार और निराकार को मानने वालों में मतभेद सामने आते हैं। अतः साकार-निराकार के भेद को स्पष्ट करना भी आवश्यक है। श्री मद्भागवत महापुराण में प्रजापति दक्ष भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं-
अस्तीति
नास्तीति च वस्तुनिष्ठयो-
रेकस्थियोर्भिन्नविरुद्धधर्मयोः।
अवेक्षितं
किञ्चन योगसांख्ययोः
समं परं ह्यनुकूलं बृहत्तत्।। भागवत-6/4/32।।
अर्थात
भगवन् ! उपासक लोग कहते हैं कि हमारे प्रभु हस्त-पादादि से युक्त साकार विग्रह है
और सांख्यवादी कहते हैं कि भगवान हस्त-पादादि विग्रह से रहित निराकार हैं। यद्यपि
इस प्रकार वे एक ही वस्तु के दो परस्पर विरोधी धर्मों का वर्णन करते हैं, परन्तु फिर भी उसमें विरोध नहीं है क्योंकि
दोनों एक ही परम वस्तु में स्थित हैं। बिना किसी आधार के हाथ-पैर आदि का होना संभव
नहीं है और निषेध की भी कोई न कोई अवधि होनी चाहिए। आप वही आधार और निषेध की अवधि
हैं। इसलिए आप साकार, निराकार दोनों से ही अविरुद्ध सम परम
ब्रह्म हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः
शरणम् ||
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