ब्रह्मविद्
ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-14
सांसारिक फलों की प्राप्ति तो इन छोटे मोटे
ईश्वरीय रूपों की पूजा करने से प्राप्त हो जाती हैं परंतु मुक्ति तो केवल
ब्रह्मतत्त्व के ज्ञान से ही होती है। इसके अतिरिक्त मुक्ति का कोई अन्य मार्ग
नहीं है। जैसे अपने जागे बिना, देखे जा रहे स्वप्न का भंग होना नहीं होता वैसे ही
आत्म-तत्व को जाने बिना यह संसार रुपी स्वप्न भी भंग नहीं होता। जीव और ईश्वर आदि
के रूप से वर्तमान में जो यह जड़ात्मक और चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत है, यह उस ब्रह्मतत्त्व में ही एक बड़ा स्वप्न (Big dream) मात्र
ही तो है। यह सपना तभी अनुभव में आता है जब हम ब्रह्मविद्या से अपना जागरण कर लेते
हैं अर्थात आत्मज्ञान प्राप्त कर जाग्रत हो जाते हैं।
हमारे में स्थित आनंदमय और विज्ञानमय कोश
ही ईश्वर और जीव हैं। ये दोनों ही माया से कल्पित हैं। हालांकि ये दोनों ही ब्रह्म
से अभिन्न हैं फिर भी ये जगत की ही वस्तुएं हैं जगत से बाहर की नहीं। जगत की
वस्तुएं जगत का ही ज्ञान कराने में सक्षम हो सकती है, परमात्मा का ज्ञान नहीं करा सकती। शरीर के सभी
कोश शरीर को ही सुख पहुंचा सकते हैं, आत्मा
को नहीं। आत्मा को तो सुख का मात्र भ्रम ही होता है, वह भी इसलिए क्योंकि उसने ब्रह्म का संग छोड़ कर संसार का संग कर लिया
है। जिस दिन उसे अपने स्वरुप का ज्ञान हो जाएगा उसी दिन वह भी ब्रह्म हो जाएगी।
विज्ञानमय के बाद आनंदमय कोश आता है। सभी
प्राणियों के विज्ञानमय कोश भिन्न भिन्न होते हैं परंतु आनंदमय कोश सभी में एक
समान होता है। विज्ञानमय कोश जीव है, आनंदमय
कोश ईश्वर है। शूकर को शूकरी में उतना ही आनंद आता है जितना राजा को रानी में; क्योंकि दोनों जीव भिन्न भिन्न होते हुए भी
दोनों जीवों में ईश्वर तो एक ही निवास करता है। सभी में ईश्वर तो एक ही है अतः
आनंद भी एकसा ही मिलता है परंतु आनंद को अभिव्यक्त (Expression) करना भिन्न भिन्न प्रकार से
होता है क्योंकि दोनों में विज्ञानमय कोश
भिन्न भिन्न है। यही ईश्वर और जीव में वेदांत सम्मत भेद है।
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः
शरणम् ||
No comments:
Post a Comment