ब्रह्मविद्
ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-2
मनुष्य के जीवन में कामनाओं का न उठना लगभग
असंभव है क्योंकि कामना का उठना कई परिस्थितियों पर निर्भर करता है। काम का
वास-स्थान इस शरीर में इन्द्रियों, मन
और बुद्धि को कहा गया है। गीता में कहा गया है-
”इन्द्रियाणि मनो
बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष
ज्ञानमावृत्य देहिनम् ।।गीता-3/39।।
अर्थात
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि, इस काम के वास-स्थान कहे जाते हैं। यह काम इन
मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान
को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है।
यह काम ही ज्ञान को दबा डालता है और
मनुष्य की सोचने समझने की क्षमता विपरीत दिशा में जाकर कार्य करने लगती है क्योंकि
ज्ञान के ढक जाने से व्यक्ति को मोह अर्थात अज्ञान उत्पन्न होता है। अज्ञान का
अर्थ ज्ञान रहित हो जाना नहीं है बल्कि अधूरा ज्ञान है जो मनुष्य को दूसरी दिशा
में ले जाता है अर्थात मनुष्य की सोचने समझने की क्षमता उलटी दिशा में कार्य करने
लगती है। मनुष्य यह सोच नहीं पाता कि क्या उचित है और क्या अनुचित। उचित अनुचित का
बोध नहीं होना ही अज्ञान है और इस कारण से मनुष्य अपनी प्रत्येक अच्छी-बुरी कामना
को पूरा करने का संकल्प कर बैठता है। यह संकल्प ही उसे शास्त्र विहित अथवा शास्त्र
निषिद्ध कर्म करने को बाध्य करता है। इसलिए संत सदैव ही कहते हैं कि किसी भी कर्म
को करने के संकल्प का त्याग करें, जिससे
मन में उठ रही कामनाएं धीरे-धीरे स्वतः ही शांत होती जाएगी। गीता में भी कहा गया
है-
“यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्प
संन्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते।।” (6/4)
अर्थात
जिस समय न इन्द्रियों के भोगों में तथा न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पों का त्यागी मनुष्य
योगारुढ अर्थात योग में स्थित कहा जाता
है।
क्रमशः
प्रस्तुति
- डॉ.प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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