Saturday, September 30, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.4(कल से आगे)-

भज गोविन्दम – श्लोक सं.-4(कल से आगे)-
        शंकराचार्य जी कह रहे हैं कि ऐसे मनुष्य जीवन में कैसी सुन्दरता ? मनुष्य के जीवन में सुन्दरता नहीं है क्योंकि वह सदैव कुंठा और कष्ट में ही घिरा रहता है | जीवन में कुंठा तभी पैदा होती है, जब हम जैसा जीवन स्वयं के लिए चाहते हैं वैसा जीवन हमें मिलता नहीं है | वैसा जीवन हमें मिलेगा भी क्योंकर ? हम राग-द्वेष, काम, क्रोध आदि विकारों से ग्रस्त हैं और कल्पना करते हैं विकार रहित जीवन की | इन विकारों से दूर होने का एक मात्र उपाय है, जैसा जीवन हमें मिला है, उसे परमात्मा का प्रसाद मानकर स्वीकार करें | हमें जो जीवन मिला है, वह हमारी अपनी ही पसंद का मिला है | यह जीवन पूर्व मानव जीवन के कर्मों के प्रभाव से बने प्रारब्ध के कारण संभव हुआ है और उसे इसी रूप में स्वीकार करने के अतिरिक्त मनुष्य के पास अन्य विकल्प भी नहीं है |
     एक कहावत है कि जो व्यवहार हमें स्वयं के लिए पसंद नहीं है, वैसा व्यवहार हमें किसी के प्रति नहीं करना चाहिए | यही सुन्दर जीवन का मूल मन्त्र है | आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि सभी विकारों से दूर रहने का प्रारम्भ में एक ही मूल मन्त्र है और वह मन्त्र है कि हम इस संसार में किसी को भी बुरा नहीं समझें | जब हम किसी को बुरा नहीं समझेंगे तब हम न तो किसी का बुरा चाहेंगे, न बुरा कर सकते हैं और न ही किसी के बारे में बुरा कह सकते हैं | जब हम ऐसा करेंगे तो संसार की दृष्टि में हम भी बुरे नहीं होंगे | बुरा नहीं समझने से और बुरा नहीं होने से हमारे भीतर कोई विकार पैदा हो ही नहीं सकता | भीतर किसी भी विकार के न रहने से हम कुंठित भी नहीं होंगे और हमारा जीवन भी कष्ट मय नहीं होगा |
         एक परमात्मा को भजने से ही हमें संसार परमात्मा मय दिखाई देने लगता है | ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि “वासुदेवः सर्वम्” का भाव सबसे महत्वपूर्ण है | जिस समय हमें इस भाव का अनुभव हो जायेगा हमारा जीवन भी सुन्दर हो जायेगा | इसी लिए इस “वासुदेवः सर्वम्” को अनुभव करने के लिए गोविन्द को भजते रहना आवश्यक है | आदि गुरु शंकराचार्य जी भी इसीलिए कहते हैं कि –
नलिनीदलगतसलिलंतरलं, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् |
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोकंशोकहतं च समस्तम् ||4||
अर्थात हमारा जीवन क्षण भंगुर है | यह उस पानी की बूँद की तरह है. जो कमल की पंखुड़ियों से गिरकर समुद्र के विशाल जल स्रोत में अपना अस्तित्व खो देती है| हमारे चारों और प्राणी तरह-तरह की कुंठाओं एवं कष्ट से पीड़ित हैं | ऐसे जीवन में कैसी सुन्दरता ?
|| भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढ़मते ||
कल श्लोक सं.5
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, September 29, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.4

भज गोविन्दम् – श्लोक-4
नलिनीदलगतसलिलंतरलं, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् |
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोकंशोकहतं च समस्तम् ||4||
अर्थात हमारा जीवन क्षण भंगुर है | यह उस पानी की बूँद की तरह है. जो कमल की पंखुड़ियों से गिरकर समुद्र के विशाल जल स्रोत में अपना अस्तित्व खो देती है| हमारे चारों और प्राणी तरह-तरह की कुंठाओं एवं कष्ट से पीड़ित हैं | ऐसे जीवन में कैसी सुन्दरता ?
            मनुष्य का जीवन क्षण भंगुर ही है | आप स्वयं ही देख लीजिये, कल हम जिस व्यक्ति को स्वस्थ और घूमता फिरता देख रहे थे, वह आज हमारे बीच नहीं है | एक क्षण बाद क्या होगा कोई नहीं बता सकता | हम यहाँ इस भौतिक जीवन में आसक्त होकर इस प्रकार जी रहे हैं, मानो युग युगों तक यहाँ रहने के लिए आये है | आदि शंकराचार्य जी कह रहे हैं कि जैसे कमल के फूल की एक पंखुड़ी पर पानी की एक बूँद ठहरी हुयी रहती है, उसका कभी भी नष्ट हो जाना संभव है, वैसे ही इस संसार में मनुष्य का जीवन है | कमल की पंखुड़ी पर ठहरी हुई पानी की वह एक बूँद गर्मी और धूप से वाष्पीकृत होकर कभी भी अपना अस्तित्व खो सकती है अथवा अपने स्थान से फिसलकर विशाल समुद्र के पानी में गिरकर खो सकती है | इसी एक बूँद के भविष्य की तरह ही एक मनुष्य का जीवन है, जो कभी भी समाप्त हो सकता है | कबीर कहते हैं-
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात |
देखत ही छुप जायेगा, ज्यों तारा परभात ||
मनुष्य का जीवन उसी पानी की बूँद के सामान है, जो कभी भी नष्ट हो सकती है | भोर का तारा (बुध) कुछ समय के लिए ही उदय होता है परन्तु ज्योंही सूर्य के दर्शन होने वाले होते हैं वह तारा अदृश्य हो जाता है | इसी प्रकार मनुष्य का जीवन है, कुछ समय के लिए मिला है और वह भी शीघ्र ही नष्ट होने जा रहा है | शंकराचार्य जी महाराज कह रहे हैं कि इस जीवन का अधिक से अधिक सदुपयोग कर लिए जाये, यही सत्य है |
              जीवन की सुन्दरता इसके सही उपयोग कर लेने में ही है | नहीं तो इस दुःख के सागर रुपी संसार में एक व्यक्ति के जीवन में किसी भी प्रकार की सुन्दरता नहीं है | जन्म लेने के बाद युवावस्था तक जो शारीरिक सुन्दरता दृष्टिगोचर होती है, वह सुन्दरता भी स्थूल शरीर की ही है और वह भी अस्थाई | एक दिन यह शरीर भी जर्जर होकर समाप्त हो जायेगा | केवल प्रभु का भजन ही जीवन को सुन्दर बना सकता है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, September 28, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.3(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-3(समापन अंश)-
          आदि शंकराचार्य जी ने स्त्री के शरीर के आकर्षण के पीछे छुपे हाड़, मांस, वसा आदि का बारम्बार ध्यान में रखने का कहा है, जिससे उस आकर्षण के वशीभूत न हो सकें | क्या यही एक रास्ता है, स्त्री आकर्षण से बचने का, उस रूप के आकर्षण को स्पर्श की अवस्था तक न जाने देने के लिए ? आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि हाँ, एक और रास्ता है, इस आकर्षण को स्पर्श में न बदल देने के लिए | वह रास्ता है, ‘मातृ पर दारेषु’ के भाव का | इस भाव को सदैव ध्यान में रखना अर्थात अपनी पत्नी के अतिरिक्त प्रत्येक स्त्री को मां के समान समझना | मैं शत प्रतिशत सहमत हूँ उनके इस कथन से | परन्तु इस युग में, जिसमें हमें दूरदर्शन पर प्रतिदिन रिश्तों को तार-तार करते सिरिअल दिखाए जा रहे हैं, जहाँ एक पुरुष की पत्नी का पर पुरुष के साथ सम्बन्ध केवल आधुनिकता ही नहीं, प्रगतिशील तक माना जा रहा हो, वहां यह मान लेना कि आज की युवा पीढ़ी प्रत्येक स्त्री को अपनी मां के समान समझेगा, कल्पनातीत है | पतन की पराकाष्ठा तो तब हो जाती है, जब आज के तथाकथित धर्मगुरु भी स्त्री आकर्षण में बंधकर व्यभिचारिता के एक-एक कर आरोपी बनते जा रहे हैं | उन पर लग रहे इन आरोपों ने युवा पीढ़ी को सनातन धर्म से विमुख करने में आग में घी डालने का काम किया है | आज की युवा पीढ़ी हमारे धर्म शास्त्रों से विमुख हो रही है और इस पुरातन संस्कृति का सर्वनाश करने में लगी है, उसको सही मार्ग दिखाना हम सब का कर्तव्य बनता है |
       आचार्य जी के कथन से स्त्री के हो रहे शोषण पर अंकुश लग सकता है | इसके लिए युवा वर्ग को सनातन धर्म और संस्कृति की महानता से परिचित कराना आवश्यक है | जब व्यक्ति अपने धर्म और संस्कृति से थोडा सा भी जुड़ जायेगा तो फिर उसके लिए प्रत्येक स्त्री देवी-स्वरूपा ही होगी | जब ऐसी सूक्ष्म दृष्टि व्यक्ति में विकसित हो जाएगी, तो स्थूल शरीर को देखने की दृष्टि भी बदल जाएगी | जब हम स्त्री के स्थूल शरीर को स्थूल दृष्टि से मात्र एक भोग्य शरीर के रूप में देखेंगे तब तो शंकराचार्य जी का कथन ही एक मात्र रास्ता है, स्त्री के प्रति आकर्षण से बचने का | स्थूल दृष्टि में नारी का आकर्षण उसका भौतिक शरीर है और सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर वह सर्वांग आकर्षक शरीर एक देवी स्वरूप नज़र आने लगता है | अंतर केवल दृष्टि का है | अतः एक स्त्री की तरफ स्थूल दृष्टि के कारण आकर्षित हों तो उसमें हाड़, मांस और वसा के संग्रह को देखें और सूक्ष्म दृष्टि से स्त्री की ओर आकर्षित हों तो उसमें एक देवी के रूप को देखें | फिर स्त्री के प्रति होने वाले व्यवहार में परिवर्तन स्वयंमेव आ जायेगा | एक स्त्री को देखने की दोनों ही दृष्टि सही और उचित हैं | इनमें से व्यक्ति को किस दृष्टि का उपयोग करना चाहिए, यह उस व्यक्ति के स्वभाव पर निर्भर करता है |
नारीस्तनभरनाभीनिवेशं, दृष्ट्वा माया मोहावेशम् |
एतन्मासं-वसादि-विकारं, मनसिविचिन्तयबारम्बारम् ||3||
अर्थात हम स्त्री की सुन्दरता से मोहित होकर उसे पाने की निरंतर कोशिश करते हैं | परन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह सुन्दर शरीर केवल हाड़-मांस का टुकड़ा मात्र है |
|| भज गोविदं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढ़मते ||
कल श्लोक सं.4
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Wednesday, September 27, 2017

भज गोविन्गाम् - श्लोक सं.3(कल से आगे)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.3(कल से आगे-4)-
           स्त्री की रचना प्रकृति ने की ही इस प्रकार है कि प्रत्येक स्त्री सुन्दर दिखाई दे | स्त्री के अंगों का आकार ही स्त्री को सुन्दरता प्रदान करता है, केवल उसका गौर वर्ण होना ही उसे सुन्दर कहलाने के लिए पर्याप्त नहीं है | शरीर विज्ञान के अनुसार जब बालिका युवावस्था की दहलीज पर कदम रखती है, तब उसके शरीर में पैदा होने वाले हार्मोंस के प्रभाव से शरीर के विशेष भागों में वसा का अधिक संचय प्रारम्भ हो जाता है | यह वसा का संचय उसके शरीर को सुडौल और आकर्षक बनाता है | इसी प्रकार एक बालक के युवावस्था में प्रवेश करने पर उसके भीतर पैदा होने वाले हार्मोंस के प्रभाव से उसका शरीर मांसपेशियों के कारण बलिष्ठ प्रतीत होने लगता है | इस प्रकार युवावस्था में एक स्त्री का आकर्षण पुरुष के प्रति और एक पुरुष का स्त्री के प्रति होना प्राकृतिक तौर पर स्वाभाविक है | इसी आकर्षण के पैदा होने का प्रारम्भ आँखों के माध्यम से शरीर में उत्पन्न होता है, जो स्पर्श दर स्पर्श जीवन पर्यंत चलता रहता है | तृप्ति फिर भी नहीं मिलती | जब हार्मोन्स का स्राव कम होने लगता है, तब तक मन में यह काम-भाव स्थाई रूप से अपना स्थान बना लेता है | युवावस्था के बीत जाने पर मनुष्य में स्पर्श-भोग शारीरिक स्तर पर होना लगभग असंभव हो जाता है परन्तु आँखों के माध्यम से स्त्री का आकर्षण उसे प्रभावित किये बिना नहीं रहता | इस कारण से उसके मन में ऐसे ही आकर्षण के प्रभाव से स्त्री के स्पर्श का चिंतन जीवन भर चलता रहता है | इसलिए आवश्यक है कि इस विपरीत लिंग के प्रति होने वाले आकर्षण के पीछे छुपे वसा और मांस आदि के आधार का बारम्बार ध्यान करें, जिससे शरीर के प्रति आकर्षण समाप्त हो सके और मन में स्पर्श-भोग की कामना तक न उठ पाए, चिंतन करना तो बहुत दूर की बात होगी | कोई बिरला ही इस अवस्था को छू सकता है | बहुत मुश्किल है, इस काम चिंतन की वृति को त्यागना | ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज कहा करते थे कि यह शरीर मल-मूत्र बनाने का एक कारखाना मात्र है | उनकी इस बात को स्त्री/पुरुष के प्रति आकर्षण होने के समय अगर ध्यान में रखें, तो काम-भाव से मुक्त हुआ जा सकता है |
         इसीलिए शंकराचार्य जी कह रहे हैं कि प्रकृति के गुणों के कारण स्त्री के स्तन, नाभि आदि अंगों के कारण उसमें आकर्षण होना स्वाभाविक है | परन्तु स्त्री/पुरुष के उस रूप के पीछे छिपे हुए हाड़-मांस, वसा आदि का बारम्बार चिंतन करते रहें | ऐसे चिंतन से धीरे-धीरे स्त्री/पुरुष में स्वाभाविक आकर्षण समाप्त हो जायेगा | इस आकर्षण से मुक्त होने के लिए गोविन्द को सदैव भजते रहें |
कल श्लोक 3 का समापन
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, September 26, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.3(कल से आगे-3)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.3(कल से आगे-3)-
            इतने विवेचन के बाद यह प्रश्न उठता है कि अपने आपको स्त्री के आकर्षण के वशीभूत होने से कैसे बचाया जाये ? शंकराचार्यजी महाराज ने कह तो दिया कि स्त्री के नाभिप्रदेश और स्तन के आकर्षण के पीछे छुपे रहस्य हाड़, मांस, वसादि का बार-बार ध्यान करें | स्त्री का शरीर ही केवल हाड़, मांस और वसा आदि से नहीं बना है बल्कि सभी शरीर चाहे वह किसी पुरुष का हो अथवा स्त्री का, इन तीनों के मिलने से ही बना है | अतः यह आवश्यक है कि एक पुरुष भी अपने शरीर को भी एक स्त्री के शरीर की भांति ही देखे | जब तक हमें हमारे शरीर में भी हाड़, मांस तथा वसा दिखाई नहीं देगी, तब तक हम किसी दूसरे के शरीर में यह सब नहीं देख पाएंगे | हम सभी प्राणी इन्हीं हाड़, मांस और वसा से बने पुतले मात्र हैं | हमें तभी स्त्री के शरीर के आकर्षण के पीछे भी यही हाड़-मांस और वसा दिखलाई देंगे, अन्यथा नहीं |
         एक मनुष्य में स्त्री के प्रति पुरुष और एक पुरुष के शरीर के प्रति यह आकर्षण क्यों होता है ? मानव शरीर विज्ञान की जरा सी भी जानकारी रखने वाला जानता है कि यह शरीर मां और पिता दोनों के संयोग से बनता है | हमारे शास्त्रों में इसी कारण से ईश्वर को अर्धनारीश्वर (XY गुणसूत्र के कारण) के रूप में भी दिखाया गया है | प्रत्येक पुरुष में नारी का अंश (X गुणसूत्र) अवश्य ही रहता है, परन्तु नारी में पुरुष का अंश (Y गुणसूत्र) नहीं | यही X गुणसूत्र ही एक पुरुष का स्त्री में और Y गुणसूत्र एक स्त्री का पुरुष में आकर्षण का मुख्य कारण है | स्त्री के शरीर में XX गुणसूत्र होते हैं और पुरुष में XY गुणसूत्र | एक पुरुष का स्त्री के प्रति अधिक आकर्षण स्त्री में (2) XX गुणसूत्रों के उपस्थित होने के कारण अधिक होता है | एक पुरुष के प्रति स्त्री का आकर्षण उसमें उपस्थित एक Y गुणसूत्र के कारण होता है | इसी प्रकार एक पुत्र का अपनी मां के प्रति लगाव अधिक होता है और एक पुत्री का अपने पिता के प्रति | हमारी संस्कृति और संस्कार ऐसे हैं जहाँ पर रिश्तों को समझने और उसके अनुसार व्यवहार करने को अधिक महत्त्व दिया जाता है | यही कारण है कि हम इस आधुनिक युग में भी काम के बढ़ते प्रभाव से कुछ सीमा तक अभी भी मुक्त हैं | पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव भी इस युग में हमारे कई पवित्र रिश्तों को इस आकर्षण के कारण तार-तार करने लगा है | ऐसे समय में हमारे लिए शंकराचार्यजी कृत’ भज गोविन्दम्’ का यह तीसरा श्लोक मार्गदर्शक बना हुआ है |
क्रमशः
प्रस्तुति –डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, September 25, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.3(कल से आगे-2)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.3 (कल से आगे-2)-
           स्त्री का आकर्षण भी पुरुष के प्रति होता है परन्तु एक स्त्री पुरुष को सबसे अधिक आकर्षित करती है | यही कारण है कि शंकराचार्यजी महाराज ने इस श्लोक में स्त्री के आकर्षण को ही स्पष्ट किया है | गोस्वामी तुलसीदासजी बड़े ज्ञानी व्यक्ति थे | जीवन के प्रारम्भ के कुछ वर्षों में ही उन्होंने समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था | बड़े ही विवेकपूर्ण व्यक्तित्व था, उनका | विवाह उपरांत व अपनी पत्नी के प्रति बहुत अधिक आसक्त हो गए थे | एक बार उनकी पत्नी अपने भाई के साथ अपने पीहर चली गयी | गोस्वामीजी से उसका वियोग सहन नहीं हुआ और वे उसी दिन अपनी ससुराल के लिए निकल पड़े | रात हो चुकी थी और रास्ते में पड़ने वाली नदी को पार करने के लिए कोई नाव का साधन भी उपलब्ध नहीं था | उस समय उनकी दृष्टि एक शव पर पड़ी जो नदी की धारा के साथ बहा जा रहा था | कामान्ध तुलसी ने शव का सहारा लिया और नदी को पार किया | रात को ससुराल के घर का दरवाजा अन्दर से बंद था | घर की दीवार से एक सर्प लटका हुआ था | कामासक्त तुलसी को वह एक रस्सी नज़र आया और उसको पकड़कर दीवार के ऊपर चढ़कर घर के भीतर कूद गए और अपनी पत्नी के शयन कक्ष में पहुँच गए | पत्नी ने अर्ध रात्रि को अपने पति को शयन कक्ष में देखा तो उसको बड़ा आश्चर्य हुआ | उसने तुलसी से पूछा कि वे किस प्रकार उसके पास तक पहुंचे ? तुलसी ने सारा घटनाक्रम बताया | सुनकर पत्नी बड़ी व्यथित हो गयी | उसने तुलसी को कहा-‘तुम्हारी जितनी आसक्ति इस मेरे हाड़-मांस के शरीर में है, उससे आधी आसक्ति भी अगर परमात्मा के प्रति होती तो तुम्हारा कल्याण हो गया होता |’ गोस्वामीजी को यह बात तीर की तरह लगी और फिर जीवन भर उन्होंने स्त्री के शरीर को मात्र हाड़-मांस ही समझा | तत्काल ही वे ससुराल से निकल पड़े और परमात्मा की शरण हो लिए | उसी घटना के परिणाम स्वरूप तुलसी ने रामचरितमानस जैसे ग्रन्थ की रचना की और गोस्वामी तुलसीदास कहलाये | यदि चुभती हुई बात सुनकर भी वे उस समय स्त्री के आकर्षण में जकड़े रहते तो आप कल्पना कर सकते हैं कि क्या होता ? आज गोस्वामी तुलसीदासजी का यह दृष्टान्त देने के लिए नहीं होता |
               प्रकृति की देन है, पुरुष और स्त्री | उनमें एक दूसरे के प्रति आकर्षण होना भी प्रकृति के स्वभाव के कारण है | अगर आकर्षण नहीं होता तो फिर सृष्टि-चक्र कैसे चलता ? आकर्षण होना अनुचित नहीं है, अनुचित है आकर्षण का आसक्ति में परिवर्तित हो जाना | काम-भोग अनुचित नहीं है, अनुचित है कामासक्त हो जाना | आदि गुरु शंकराचार्य जी महाराज कह रहे हैं कि स्त्री से न तो भागें और न ही उसे भोग कर उसमें आसक्त हो | दोनों ही अनुचित है | स्त्री के प्रति जब आकर्षण बढे तो बारम्बार यह चिंतन करें कि उसके आकर्षित करने वाले अंग केवल मात्र हाड़, मांस और वसा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इससे आप उस आकर्षण के वशीभूत नहीं होंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, September 24, 2017

भज गोविन्दम् -श्लोक सं.3(कल से आगे)-

भज गोविन्दम् – श्लोक-3(कल से आगे)-
         काम एक ऐसा विषय है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सुख प्राप्त करने के लिए भोगना ही चाहता है | काम और स्त्री का आपस में कितना गहरा सम्बन्ध है, उसका आप स्वयं अपने ह्रदय पर हाथ लगाकर देख सकते हैं | सत्य कहूँ, यह काम ही वह विषय है जिसके बारे में मनुष्य जीवन में सर्वाधिक सोचता है | क्यों सोचता है, यह विस्तृत विवेचन का विषय है | यह विषय उसके मन को कभी छोड़ता ही नहीं है | काम का चिंतन मनुष्य के मन में सदैव चलता ही रहता है | मनुष्य की मानसिक स्थिति को काम सर्वाधिक प्रभावित करता है | मनुष्य की पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ इसमें सहयोग करती है | सर्वाधिक सहयोग करने वाली दो ज्ञानेन्द्रियाँ है - दर्शनेंद्रिय (नेत्र) और स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) | इसीलिए कहा जाता है कि काम सदैव आँखों के माध्यम से शरीर में प्रवेश करता है और उसकी पराकाष्ठा स्पर्श कर लेने में होती है | परन्तु एक बार के स्पर्श से मनुष्य कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकता | स्त्री का स्पर्श ही मनुष्य की काम-तृष्णा को बढ़ा देता है तथा फिर और अधिक से अधिक बार स्पर्श करने की कामना मन में उठने लगती है | यही कारण है कि मनुष्य अपने जीवन में इस काम के बारे में सर्वाधिक सोचता है |
              शंकराचार्य जी ने यहाँ स्त्री के शरीर के अंगों, विशेष रूप से स्तन और नाभि की बात कही है | स्तन और नाभि का आकर्षण सर्वाधिक होता है, जो कृष्ण वर्ण की नारी को भी सुन्दरता प्रदान कर देता है | यह प्रकृति का नियम है जो कहता है कि विपरीत लिंग का आकर्षण स्वाभाविक है | परन्तु उस आकर्षण से प्रभावित होकर पुरुष काम में लिप्त तो हो जाता है परन्तु यह काम-भोग उसे जीवन भर तृप्ति नहीं दे सकता | इसीलिए विद्वानों ने कहा है कि काम अर्थात सेक्स ही वह विषय है जिसके बारे में मनुष्य जीवन भर विचार करता रहता है | विपरीत लिंग के आकर्षण के कारण एक स्त्री का भी एक पुरुष में आकर्षण होता ही है | स्त्री भी सतत काम के बारे में विचार करती रहती है परन्तु स्त्री की काम भावना प्रायः अव्यक्त ही रह जाती है, चाहे ऐसा हमारे संस्कारों के कारण ही होता हो | आज हमारे संस्कारों से हम दूर होते जा रहे हैं और उसके कारण पड़ने वाले प्रभाव को हम स्पष्टतः देख ही रहे हैं | आज स्त्री, नारी-स्वतंत्रता के नाम पर कामुक होकर काम-भोग को भी अपना एक अधिकार समझने लगी है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Saturday, September 23, 2017

भज गोविन्दम - श्लोक सं.-3

भज गोविन्दम- श्लोक-3
नारीस्तनभरनाभीनिवेशं, दृष्ट्वा माया मोहावेशम् |
एतन्मासं-वसादि-विकारं, मनसिविचिन्तयबारम्बारम् ||3||
अर्थात हम स्त्री की सुन्दरता से मोहित होकर उसे पाने की निरंतर कोशिश करते हैं | परन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह सुन्दर शरीर केवल हाड़-मांस का टुकड़ा मात्र है |
          मनुष्य में एक मुख्य विशेषता है, जिसको बताने में सभी ज्ञानी व्यक्ति अधिक सतर्कता बरतते हैं | मैं कहता हूँ कि किसी विषय को जब सर्वाधिक स्पष्ट करने की आवश्यकता होती है, उसे छिपाते हुए अर्थात उस विषय को स्पष्ट करने में अगर शालीनता की सीमा से अधिक नियंत्रण रखा जाता है तो इसे दुर्भाग्य पूर्ण ही कहा जायेगा | जिस देश की संस्कृति संसार में सर्वोत्तम रही है और जहाँ एक से बढ़कर एक ज्ञानी व्यक्ति पैदा हुए हैं, वहां पर किसी भी प्रकार के ज्ञान को स्पष्ट करने में कोई कमी नहीं रहने दी जानी चाहिए | इसी प्रकार का एक ज्ञान है, काम-विज्ञान | इस विषय को स्पष्ट करने में हम सभी थोड़े बहुत चूक ही जाते हैं जबकि यह विषय हमारे यहाँ कोणार्क, खजुराहो आदि देवालयों में पत्थरों तक पर स्पष्ट रूप से उकेरा गया है |
     शंकराचार्य जी महाराज भी इस विषय पर स्पष्टता के साथ कह रहे हैं कि मनुष्य नारी देह के अंगों को देखकर उसमें मोहित हो जाता है और स्त्री को किसी भी प्रकार से प्राप्त कर भोगना चाहता है | लेकिन अगर हम गंभीरता के साथ देखें तो पाएंगे कि उस स्त्री की सुन्दरता के पीछे केवल हाड़ और मांस के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | क्या कोई मनुष्य हाड़ और मांस को ही जीवन भर प्राप्त करने का प्रयास करता रहेगा ? इस बात को मैं एक दृष्टान्त देते हुए स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ | एक बार एक राज्य का राजा किसी गरीब घर की सुन्दर कन्या पर मोहित हो गया | उसने उस कन्या के पिता के समक्ष उस कन्या से विवाह का प्रस्ताव रखा | राजा आयु में बहुत बड़ा था और कन्या सुकुमार अवस्था की थी | कन्या नहीं चाहती थी कि उसका उस बूढ़े राजा के साथ विवाह हो | परन्तु राजा को स्पष्ट मना भी कैसे कर दे | उसने एक निर्णय लिया और कहा कि वह राजा से विवाह करने को तैयार है, परन्तु एक माह बाद राजा यहाँ आये, मुझे देखे और फिर उससे विवाह का निर्णय करे | राजा सहर्ष मान गया | एक माह बाद राजा वहां पहुंचा और कन्या को देखना चाहा | कन्या को उसके समक्ष प्रस्तुत किया गया | यह क्या, एक माह पहले वाली रूपवती कन्या तो अब बुढ़िया सी लगने लगी है | गाल पिचक गए हैं और शरीर में चमड़ी और हड्डियों के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहा है | मांसल शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया है | ऐसे अस्थिपंजर से विवाह कौन और किस लिए करे ? राजा यह देखकर हतप्रभ रह गया | राजा ने इसका कारण जानना चाहा कि उस सुन्दर कन्या का वह रूप-रंग कहाँ गया ? कन्या ने कोने में पड़े घड़ों की तरफ इशारा किया कि वह रूप-रंग इन घड़ों में बंद है |
            राजा ने एक घड़े को खुलवाया तो उससे आ रही मल की गंध को सहन नहीं कर सका | वास्तव में हुआ यह था कि राजा के विवाह प्रस्ताव के बाद से ही उस कन्या ने प्रतिदिन जुलाब लेना प्रारम्भ कर दिया जिससे उसे अतिसार हो गया और वह एक माह में ही सुन्दर से कुरूप होकर रह गयी | कहने का अर्थ यह है कि जब शरीर को रूपवान मांस ही बनाता है और बिना मांस के सुन्दरता भी केवल हड्डियों पर कैसे टिकती ? हमारे पूर्वजों ने पत्थरों पर विभिन्न काम मुद्राओं में रत स्त्री-पुरुष की मूर्तियाँ उकेरी ही इसलिए थी कि प्रत्येक मनुष्य को उस मुद्रा के पीछे छिपा पत्थर दिखाई पड़े जिससे उसकी एक स्त्री में आसक्ति दूर हो सके | स्त्री को केवल भोग्या समझकर उसे पाने की कामना न करें बल्कि उसकी सुन्दरता के पीछे छिपे आधार को देखें | उस आधार को समझते ही आपकी भी स्त्री के प्रति आसक्ति न रह पायेगी |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, September 22, 2017

भज गोविन्दम - श्लोक सं.2(कल से आगे)-

भज गोविन्दम – श्लोक-2-कल से आगे
       व्यक्ति के मोह-माया में फंस जाने के उपरांत ही उसके भीतर तृष्णा उत्पन्न होती है | तृष्णा ही असंतोष को जन्म देती है और असंतोष तृष्णा को जन्म देता है | दोनों एक दूसरे के पूरक हैं | कहने का अर्थ है कि हमारे जीवन में संतुष्टि का होना अत्यावश्यक है | जब व्यक्ति मोह-माया में फंसता है, तब वह जो कुछ भी मिला हुआ है उससे संतुष्ट नहीं होता | यह असंतोष उसे मिले हुए से अधिक पाने की कामना मन में पैदा करता है | इस बढ़ती हुई कामना को ही हम तृष्णा कहते हैं | इस प्रकार यह तृष्णा कभी भी मिट नहीं सकती | जिस प्रकार जलती हुई अग्नि में ईंधन डालते रहने से वह और अधिक भड़कती है उसी प्रकार कामना को पूरी करने के लिए किये जाने वाले कर्म और उससे मिलने वाले संभावित फल की कल्पना मात्र ही उस तृष्णा को बढ़ाते जाता है | मनुष्य की यह सबसे बड़ी विडंबना है कि वह इस तृष्णा के कारण मिले हुए को भोग ही नहीं पा रहा है | इसीलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य के जीवन में सुख कहीं है ही नहीं, केवल दुःख ही दुःख है | सुख तभी मिल सकता है, जब हम मिले हुए को भोगें | साथ ही साथ भोगों से अनासक्त भी रहें, तभी हमारे जीवन में तृष्णा पैदा नहीं होगी |
          कर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसे हो सकता है कि कई विद्वान स्वीकार भी नहीं करें | स्वीकार करें अथवा नहीं करें, परन्तु यह एक वास्तविकता है कि आसक्त भाव से किये जाने वाले कर्म का फल तत्काल मिल ही नहीं सकता | इस जीवन में किये गए कर्म का फल भावी जन्म में ही मिल सकता है | जब हम इस बात का अनुभव कर लेंगे तभी हमारे जीवन में संतोष का आगमन होगा | संतोष का आगमन तृष्णा को पैदा ही नहीं होने देता | व्यक्ति को जब कर्म-फल मिलने लगते हैं, तब उसको यह भ्रम पैदा हो जाता है कि यह फल इस जन्म में किये जा रहे कर्मों का परिणाम है | जबकि वास्तविकता यह है कि हम सभी पूर्वजन्म में किये गए कर्मों का फल पाने के लिए ही इस जन्म के प्रारम्भ से ही कर्म करने लगते हैं | जब कर्मों का परिणाम हमें आशा से अधिक मिलने लगता है, तब हम यह सोचने लगते हैं कि अगर मैं और अधिक कर्म करूँगा तो और अधिक फल मिलेंगे | इसी को कर्मासक्ति और तृष्णा कहते हैं | लेकिन जब फल मिलने कम हो जाते हैं, तब हम निराश होने लगते हैं और दुःखी हो जाते हैं |
        शंकराचार्य जी यही कह रहे हैं कि मोह-माया के बंधन में पड़कर व्यक्ति में तृष्णा बढ़ने लगती है | तृष्णा असंतोष और अशांति पैदा करती है | अतः मोह-माया के बंधन से छूटने के लिए मिले हुए में ही संतोष करें और गोविन्द को भजें | इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कर्म करें ही नहीं | परमात्मा का ध्यान करते हुए स्वाभाविक कर्म करते रहें और मोह-माया में न फंसें |
||भज गोविदं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढ़मते ||
कल श्लोक सं.3  
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, September 21, 2017

भज गोविन्दम - श्लोक-2

भज गोविन्दम- श्लोक-2
मूढ़ जहीहिधनागमतृष्णां, कुरु सद्बुद्धिंमनसिवितृष्णाम् |
यल्लभसेनिजकर्मोपात्तं, चित्तंतेनविनोदयचित्तम् ||2||
अर्थात हम हमेशा मोह माया के बंधनों में फंसे रहते हैं और इस कारण हमें सुख की प्राप्ति नहीं होती | हम हमेशा ज्यादा से ज्यादा पाने की कोशिश करते रहते हैं | सुखी जीवन बिताने के लिए हमें संतुष्ट रहना सीखना होगा | हमें जो भी मिलता है, उसे हमें ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार करना चाहिए क्योंकि हम जैसे कर्म करते हैं, हमें वैसे ही फल की प्राप्ति होती है |
            यह श्लोक कहता है कि हम सदैव मोह-माया में फंसे रहते हैं इसलिए हमें सुख प्राप्त नहीं होता | मोह-माया क्या है ? मोह है, सत्य और असत्य में भेद न कर पाना, जिसके कारण हम असत्य को सत्य मान लेते हैं | मोह है, अधर्म और धर्म में भेद न कर पाना जिसके कारण अधर्म को धर्म मानकर स्वीकार कर लेना | माया है, जो है उसका सत्य न होना अर्थात भ्रम में रहना | जिस समय हमें यह ज्ञान हो जायेगा कि सत्य क्या है, उसी समय हम मोह माया के बंधन से मुक्त हो जायेंगे |
                संसार में हमें सुख की प्राप्ति क्यों नहीं होती ? इसका सबसे बड़ा कारण है-हमारी तृष्णा | हम जितना और जो कुछ भी मिल रहा है, उसमें कभी भी संतुष्ट नहीं होते | जो मिला है अथवा मिल रहा है, उसका भोग हमें तभी सुख प्रदान करता है जब हम उससे अधिक पाने की कामना न करें | संतुष्ट जीवन ही सुखी जीवन होता है | संसार में सुख प्रदान करने वाले भोग प्रारब्ध के अधीन हैं | जो कर्म हम पूर्व जन्म में करते हैं, वही कर्म, प्रारब्ध बनकर वर्तमान जीवन में हमें भोग उपलब्ध कराते हैं | जो भोग के रूप में हमें इस जीवन में फल प्राप्त हो रहे हैं, वह सब हमारे ही कर्मों का परिणाम है | अतः किसी भी प्रकार की कोई शिकायत रहनी ही नहीं चाहिए | जब मन में किसी भी प्रकार की कोई शिकायत नहीं रहेगी, तब संतुष्टि का जीवन में प्रवेश हो जायेगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, September 20, 2017

भज गोविन्दम - श्लोक-1-कल से आगे-

भज गोविन्दम – श्लोक-1-कल से आगे-
          शास्त्रों और व्याकरण को रटने से कभी भी मुक्त नहीं हुआ जा सकता | पुस्तकों में संसार भर का ज्ञान लिखा हुआ पड़ा है परन्तु क्या पुस्तकें कभी मुक्त हो सकती है ? देवालयों में बजने वाले टेप दिन-रात हरि के गुणगान करते रहते हैं परन्तु क्या वह टेप जानती है कि वह क्या कर रही है ? क्या पुस्तक जानती है कि उसमें क्या लिखा हुआ है ? नहीं, दोनों ही नहीं जानते | नहीं जानते इसलिए कभी मुक्त नहीं हो सकते | इसी प्रकार मनुष्य भी केवल शास्त्रों को रट कर, उन्हें प्रतिदिन पढ़कर मुक्त नहीं हो सकता | उस शास्त्र में लिखे ज्ञान का अनुभव हो जाने से ही वह मोक्ष को प्राप्त हो सकता है | इसी को होश पूर्वक जीना कहते हैं | अनुभव तभी हो सकता है, जब आप सदैव उस ज्ञान पर दृष्टि जमाये रखें |
                हम शास्त्रों को केवल पढ़कर उसे मात्र एक क्रिया बना देते हैं | क्रिया तो मंदिर में बजती टेप में भी होती है | ऐसे शास्त्रों को पढ़ने में और उस टेप के बजने में, दोनों में ही किसी प्रकार का अंतर नहीं है | आप शास्त्र पढ़ें, यह उचित है परन्तु पढ़ने को मात्र एक क्रिया बना लें, उससे कोई लाभ नहीं होने वाला | क्रिया से आगे बढ़ें, शास्त्र-पठन स्वयं ही छूट जायेंगे | शास्त्र मार्गदर्शक अवश्य है, मंजिल नहीं |एक व्यक्ति सालासर जा रहा था | उसको एक स्थान पर milestone लगा दिखाई दिया, जिस पर लिखा था सालासर 20 km.| वह उसी को पकड़ कर बैठ गया और कहने लगा, मैं सालासर पहुँच गया हूँ | वास्तविकता में milestone मार्गदर्शक है, वह बताता है कि आप अपने लक्ष्य से कितने दूर हैं ? उस मार्गदर्शक को पकड़कर बैठ जाने से आप लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते | इसी प्रकार शास्त्र केवल मार्गदर्शक की भूमिका ही निभाते हैं | उनको पकड़ कर बैठ जाने से परमात्मा नहीं मिलेंगे | परमात्मा को पाना है तो शास्त्रों पर ही अटक कर नहीं रह जाना है, बल्कि हरि को जपते हुए निरंतर आगे बढ़ते रहना होगा | इसीलिए इस श्लोक में शंकराचार्य महाराज कहते हैं- भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते | सदैव गोविन्द को भजते रहना ही परमात्मा की ओर चलने की यात्रा है |
कल श्लोक सं. 2
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, September 19, 2017

भज गोविन्दम-1 श्लोक -1

भज गोविन्दम-1 श्लोक -1  
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते |
सम्प्रातेसन्निहितेमरणे, नहि नहिरक्षतिडुकृञ् करणे ||1||
अर्थात हे भटके हुए प्राणी, सदैव परमात्मा का ध्यान कर क्योंकि तेरी अंतिम साँस के वक्त तेरा यह सांसारिक ज्ञान तेरे काम नहीं आएगा | सब नष्ट हो जायेगा |
शंकराचार्य जी इस श्लोक में कह रहे हैं कि हे वृद्ध व्यक्ति तूं मृत्यु के द्वार पर आ खड़ा है और अभी भी नहीं समझ पा रहा है कि तुम्हें क्या करना चाहिए ? तूं भटका हुआ है क्योंकि तुम्हें यह ज्ञान नहीं है कि जिस अवस्था को तूं प्राप्त हो चूका है, वह ऐसी अवस्था है जब तेरे पास इस जीवन में अधिक समय नहीं है | ऐसी अवस्था में सब कुछ छोड़कर जहाँ पर तुझे हरि भजन करना चाहिए, वहां तू शास्त्रों को रट रहा है, उसकी व्याकरण को रट रहा है | इस वृद्धावस्था में केवल हरि का भजन ही तेरे लिए सर्वोत्तम साधन है, जो तुम्हें मुक्ति की और ले जायेगा |
      शास्त्र और व्याकरण रटते हुए तुम्हें भले ही भाषा का ज्ञान हो जाये, परन्तु यह केवल मात्र सांसारिक ज्ञान ही होगा, परमात्मा का ज्ञान नहीं | परमात्मा के ज्ञान के अतिरिक्त समस्त ज्ञान अज्ञान है | कबीर कहते हैं-
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय |
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ||
अतः शास्त्रों को रटने में कुछ भी नहीं रखा है | ऐसा कुछ भी करना व्यर्थ है | इसलिए सब कुछ छोड़कर गोविन्द को भजो, गोविन्द को भजो |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, September 18, 2017

नई श्रृंखला-भज गोविन्दम-कल से

सुजानगढ़ के माहेश्वरी सेवा सदन में दिनांक 9 सितम्बर से 15 सितम्बर तक शंकराचार्य कृत 'भज गोविन्दम' पर हरि:शरणम् आश्रम,बेलड़ा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविंद राम शर्मा के प्रवचन हुए थे।उन्हीं प्रवचनों के आधार पर आज से यह नयी श्रृंखला प्रारम्भ करने जा रहा हूँ। प्रस्तुति कैसी लगी? इस श्रृंखला की समाप्ति उपरांत अवगत कराने का श्रम करें।
आदि गुरु शंकराचार्य एक बार अपने 14 शिष्यों के साथ भ्रमण पर थे। उन्होनें देखा कि एक अतिवृद्ध व्यक्ति व्याकरण और शास्त्र रट रहा था। उस समय उनके मुख से इस रचना का प्रथम श्लोक निकला। उसके बाद 12 श्लोक उन्होंने और कहे। इसी लिए उनकी इस रचना को 'द्वादश मंजरिका' भी कहा जाता है।यह कृति व्यक्ति के मोह को भी समाप्त कर देती है, अतः इसको 'मोह मुगदर' भी कहा जाता है।इस रचना में कुल 31 श्लोक हैं। पहले 13 श्लोक और अंतिम 4 श्लोक शंकराचार्य जी के द्वारा कहे गए हैं।मध्य के 14 श्लोक उनके साथ चल रहे 14 शिष्यों में से प्रत्येक शिष्य द्वारा एक एक श्लोक कहा गया है।
मोह को नष्ट करना इतना सरल नहीं है। शंकराचार्य महाराज 'भज गोविन्दम' में बार बार मोह पर वार करते हैं, जिससे मनुष्य के यह समझ मे आ जाता है कि उसे क्या करना चाहिए । बहुत ही सरल तरीके से इस रचना में समझाया गया है।आचार्य श्री गोविंद राम शर्मा ने अपने विवेचन से उसे और अधिक ग्राह्य बना दिया है ।
कल से..... नई श्रृंखला-'भज गोविन्दम'
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम् ।।

Sunday, September 17, 2017

आभार

आज 10 दिन से अधिक का समय बीत गया है, और पता ही नहीं चला | सत्य है, अगर आप रुचिकर कार्य में संलग्न हो तो आपको समय व्यतीत हो जाने का पता नहीं चलता | अरुचिकर कार्यों में एक पल भी बीतना एक वर्ष बीत जाने के समान लगता है और रुचिकर कार्य में एक वर्ष भी एक पल के समान बीत जाता है | आचार्य श्री गोविन्द राम जी शर्मा का आगमन हमारे लिए एक नया सन्देश लेकर आया है | कल प्रातः वे हरिद्वार के लिए प्रस्थान कर गए | एक सप्ताह से अधिक समय तक उनके विभिन्न कार्यक्रम सुजानगढ़ और उसके आसपास के क्षेत्र में थे, जिसके कारण मैं उनमें व्यस्त रहा | श्री माहेश्वरी सेवा सदन सुजानगढ़ में उन्होंने एक बहुत ही सुन्दर विषय पर सात दिन तक प्रवचन किये थे | विषय था- ‘भज गोविन्दम’, जो कि आदिगुरू शंकराचार्य की एक अनुपम कृति है | सुजानगढ़ के धर्म प्रेमी सज्जन गीता, भागवत, रामायण आदि धर्म ग्रंथों को तो पढ़ते रहते हैं, परन्तु ‘भज गोविन्दम’ के बारे में वे अनभिज्ञ थे |
           जब हमने इस विषय को प्रवचन के लिए चुना था, तब मेरे मन में संशय था कि न जाने यहाँ के सज्जन इस विषय पर चिंतन को गंभीरता से लेंगे अथवा नहीं | परन्तु आज समापन होने के बाद मैं यह जानकर अभिभूत हूँ कि जैसा मैंने सोचा था उससे कहीं अधिक लोगों ने आदि शंकराचार्य की इस भक्तिपूर्ण रचना के विवेचन में रुचि दिखाई | कार्यक्रम एक सीमा से अधिक सफल रहा और अंतिम दिन तो एक समय ऐसी स्थिति आ गई कि श्री माहेश्वरी सेवा सदन का सभागार भी छोटा लगने लगा | श्रोताओं ने इन प्रवचनों को जिस गंभीरता के साथ सुना, वह आश्चर्यजनक था | आचार्य श्री गोविन्दराम शर्मा ने जिस सरलता और सहजता से इस रचना का विवेचन किया, वह प्रशंसनीय है |
           ऐसे कार्यक्रम की सफलता वक्ता, श्रोताओं और कार्यकर्ताओं पर निर्भर होती है | मुझे यह बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि इन तीनों ही क्षेत्रों में कुशलता रही और कार्यक्रम अत्यधिक सफल रहा | श्री माहेश्वरी सेवा ट्रस्ट का सहयोग मैं सदैव याद रखूँगा, जिसके कारण हमें इतना सुन्दर और अधिक क्षमता वाला सभागार उपलब्ध हो सका | सुजानगढ़ ही नहीं, आसपास के क्षेत्रों से इस कार्यक्रम को दो-चार दिन और बढाने का प्यार भरा आग्रह हुआ परन्तु आचार्य जी के नवरात्रे के व्यस्त कार्यक्रम को देखते हुए ऐसा कर पाना संभव नहीं था | हाँ, यह अवश्य है कि हमारे कार्यकर्ता इस कार्यक्रम की सफलता से इतने उत्साहित हैं कि वे एक वर्ष बाद श्राद्ध पक्ष में पुनः किसी नए विषय पर ऐसे ही प्रवचन के कार्यक्रम के लिए कटिबद्ध है | परमात्मा की असीम कृपा से ही ऐसे आयोजन होने संभव होते हैं | आशा है हमारी यह संस्था ऐसे कार्यक्रमों में सदैव अग्रणी रह कर कार्य करेगी | कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए आप सभी का आभार व साधुवाद |
||  हरिः शरणम् ||
डॉ.प्रकाश काछवाल
हरिः शरणम् जन कल्याण परिषद्

सुजानगढ़ (राज’)

Friday, September 8, 2017

आचार्यजी सत्संग @ सुजानगढ़ - 6

आचार्यजी सत्संग @ सुजानगढ़ – 6
दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः। कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चति आशावायुः || भज गोविन्दम॥12
समय का बीतना और ऋतुओं का बदलना सांसारिक नियम है। कोई भी व्यक्ति अमर नहीं होता। मृत्यु के सामने हर किसी को झुकना पड़ता है। परन्तु हम मोह माया के बन्धनों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते हैं।
                  यह संसार परिवर्तनशील है | यहाँ दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है | आँख की पलक झपकने तक ही यहाँ कुछ का कुछ हो जाता है | इस संसार में शरीर की मृत्यु होना ही एक मात्र शाश्वत सत्य है, शेष सभी परिवर्तन शील है | संसार की माया के मोह में पड़ना यहाँ के मनुष्य की सबसे बड़ी कमी है | सत को छोड़ असत् का दामन थामना और वह भी सब कुछ जानते हुए, इससे बड़ी विडम्बना अन्य क्या हो सकती है ? आप को संसार के मोह माया जाल से बाहर निकलना ही होगा | संसार के इन बंधनों को तोडना ही होगा | मोह माया के इन बंधनों से हम कैसे मुक्त हो सकते हैं ? आइये ! यह सब जानते हैं हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम जी शर्मा के श्री मुख से, जो दिनांक 9 सितम्बर 2017 से 15 सितम्बर 2017 तक “भज गोविन्दम” का  विवेचन करते हुए हमें मार्गदर्शन देंगे |
स्थान- माहेश्वरी सेवा सदन, डॉ.छाबडा जी के निवास-स्थान के पास, सुजानगढ़ |
समय – सायं – 4 से 6 बजे तक |
साग्रह निवेदन ......
डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
पुनश्चः –
कल से आचार्य श्री का सत्संग कार्यक्रम प्रारम्भ हो रहा है, अतः प्रतिदिन लेखन होना जरा असंभव प्रतीत हो रहा है | सत्संग कार्यक्रम के समापन उपरांत एक नए विषय पर नई श्रृंखला लेकर आपके समक्ष उपस्थित होऊंगा | दिनांक 17 सितंबर तक नई श्रृंखला का प्रारम्भ होना संभव हो सकता है |  तब तक आप आचार्यजी के प्रवचनों से लाभान्वित हों |

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, September 7, 2017

आचार्यजी सत्संग @ सुजानगढ़ - 5

आचार्यजी सत्संग @ सुजानगढ़ – 5
भज गोविन्दम’ स्तोत्र की रचना आदिगुरू शंकराचार्य ने की थी। यह मूल रूप से बारह पदों में सरल संस्कृत में लिखा गया एक सुंदर स्तोत्र है। इसलिए इसे ‘द्वादश मंजरिका’ भी कहते हैं। बाद में उनके शिष्यों ने इसमें कुछ श्लोक और जोड़ दिए हैं | इस प्रकार इसमें आज तक कुल 31 श्लोक हो गए हैं | ‘भज गोविन्दम’ में शंकराचार्य जी ने संसार के मोह में ना पड़ कर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करने का उपदेश दिया है। उनके अनुसार, संसार असार है और केवल एक भगवान का नाम ही शाश्वत है। उन्होंने मनुष्य को पुस्तकीय ज्ञान में समय ना गँवाकर और भौतिक वस्तुओं की लालसा, तृष्णा व मोह छोड़ कर भगवान का भजन करने की शिक्षा दी है। इसलिए ‘भज गोविन्दम’ को ‘मोह मुगदर’ यानि मोह नाशक भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है- वह शक्ति जो आपको सांसारिक बंधनों से मुक्त कर दे । शंकराचार्य जी का कहना है कि अन्तकाल में मनुष्य की सारी अर्जित विद्याएँ और कलाएँ किसी काम नहीं आएंगी, काम आएगा तो केवल हरि का नाम। “भज गोविन्दम” श्री शंकराचार्य की एक बहुत ही खूबसूरत रचना है।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते। सम्प्राप्ते सन्निहिते मरणे, नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ॥1
हे भटके हुए प्राणी, सदैव परमात्मा का ध्यान कर क्योंकि तेरी अंतिम सांस के वक्त तेरा यह सांसारिक ज्ञान तेरे काम नहीं आएगा, सब कुछ नष्ट हो जाएगा।
         यह “भज गोविन्दम” कृति का प्रथम श्लोक है | इस रचना में कुल 31 श्लोक हैं, जो एक से बढकर एक हैं | ज्ञान और भक्ति का अनूठा संगम देखना हो तो “भज गोविन्दम” के भीतर तक प्रवेश करके देखें | इस रचना की व्याख्या करना कोई सरल कार्य नहीं है | यह रचना आपके अन्तःस्थल को परिवर्तित करने की क्षमता रखती है | इस महान कृति पर प्रवचन करने आ रहे हैं, हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा (हरिद्वार) के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा | हमें अपने सौभाग्य से ज्ञान और भक्ति के रस में आकंठ डूबने के लिए यह दुर्लभ अवसर इस जीवन में मिल रहा है, इसे हाथ से न जाने दें और पहुँच जाएँ, श्री माहेश्वरी सेवा सदन, डॉ. छाबडाजी के निवास स्थान के पास, सुजानगढ़, जहाँ पर दिनांक 9 सितम्बर 2017 से 15 सितम्बर 2017 तक प्रतिदिन सायं 4 से 6 बजे तक “भज गोविन्दम” पर प्रवचन होंगे |
सानुरोध......
डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, September 6, 2017

आचार्यजी सत्संग @ सुजानगढ़ - 4

आचार्यजी सत्संग @ सुजानगढ़ – 4
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ |
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ || रामचरितमानस-2/127 ||
वाल्मीकि जी कह रहे हैं कि हे राम ! आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ ? परन्तु मैं यह पूछते हुए सकुचा रहा हूँ कि जहाँ आप न हों, पहले मुझे वह स्थान बता दीजिये | उसके बाद मैं आपको आपके रहने योग्य स्थान दिखा पाऊँगा |
भगवान श्री राम महर्षि वाल्मीकि के आश्रम पहुंचे हैं और उन्हें पूछ रहे हैं कि मैं कहाँ रहूँ ? परमात्मा, जो कि सर्वत्र व्याप्त है, उनके द्वारा ऐसा पूछना मन में एक भ्रम उत्पन्न करता है | आपका यह भ्रम परमात्मा की कृपा से ही दूर हो सकता है | तभी तो महर्षि वाल्मीकि कह रहे हैं –‘प्रभु ! आपको वही व्यक्ति जान सकता है, जिसे आप जना देना चाहते हैं अन्यथा आपको जानना किसी के भी वश में नहीं है |
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई | जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ||रामचरितमानस- 2/127/3||
            एक बार जिसने उसको जान लिया, फिर किसी अन्य को जानने की आवश्यकता नहीं है | इसी को आत्म-बोध होना कहते हैं | एक बार आत्म-बोध हो गया, फिर संसार असत्य हो जाता है | वाल्मीकि जी को आत्म-बोध था, फिर भी उन्होंने भगवान श्री राम के पूछने पर वे सभी स्थान विस्तार से बताये हैं, जहाँ परमात्मा निवास करते हैं |
           इस मार्मिक प्रसंग को और अधिक गहराई से समझने के लिए हम नित्य-स्तुति, गीता और भागवत-पाठ के बाद रामचरितमानस के इस प्रसंग का अर्थ सहित पठन करेंगे |
स्थान –
दिनांक- 7 व 8 सितम्बर 2017      श्री परशुराम भवन, सुजानगढ़
दिनांक- 9 से 15 सितम्बर 2017     श्री माहेश्वरी सेवा सदन, डॉ.छाबड़ा जी
                                के निवास स्थान के पास , सुजानगढ़ |
सानिध्य – आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा, हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार
सानुरोध -----
डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||  

Tuesday, September 5, 2017

आचार्यजी सत्संग @ सुजानगढ़ - 3

आचार्यजी सत्संग @ सुजानगढ़ – 3
आत्मानमेवात्मतयाविजानतां
    तेनैव जातं निखिलं प्रपंचितम् |
ज्ञानेन भूयोऽपि च तत् प्रलीयते
     रज्ज्वामहेर्भोगभवाभवौ यथा ||भागवत-10/14/25||
अर्थात जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूप में नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञान के कारण ही इस नाम रूपात्मक निखिल प्रपंच की उत्पत्ति का भ्रम हो जाता है | किन्तु ज्ञान होते ही इसका आत्यंतिक प्रलय हो जाता है | जैसे रस्सी में भ्रम के कारण ही सांप की प्रतीति होती है और भ्रम के निवृत होते ही उसकी निवृति हो जाती है |
     संसार के जनक प्रजा पिता ब्रह्माजी भगवान की स्तुति करते हुए कहा रहे हैं कि समस्त संसार एक प्रपंच के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | अँधेरे में जैसे हम एक रस्सी को सांप समझ लेते हैं, उसी प्रकार संसार जो कि केवल एक नाम-रूप का स्वप्न मात्र ही है और हम उस स्वप्न को ही यथार्थ मान बैठे हैं | ज्ञान ही इस स्वप्न को तोड़ सकता है | एक बार ज्ञान हो जाने पर सारा संसार स्वप्न ही नज़र आने लगता है | इतने समय से हम असत को सत समझ रहे हैं, यही हमारा अज्ञान है | अज्ञान का अन्धकार मिटते ही चारों और सत ही सत नज़र आने लगता है |
              भ्रम की निवृति बहुत ही आवश्यक है | एक परमात्मा ही सत्य है | ब्रह्माजी द्वारा की जा रही इस स्तुति को आत्म-सात करने के लिए प्रतिदिन भागवत-पाठ करना आवश्यक है | हम भी आपके साथ इसी प्रसंग का प्रतिदिन भागवत के एक पृष्ठ का अर्थ सहित पाठ करेंगे और परमात्मा की स्तुति का अर्थ समझने का प्रयास करेंगे |
स्थान –
दिनांक- 7 व 8 सितम्बर 2017      श्री परशुराम भवन, सुजानगढ़
दिनांक- 9 से 15 सितम्बर 2017     श्री माहेश्वरी सेवा सदन, डॉ.छाबड़ा जी
                                के निवास स्थान के पास , सुजानगढ़ |
सानिध्य – आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा, हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार
सानुरोध -----
डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||