Wednesday, August 31, 2016

ज्ञान-विज्ञान-24

                 वेद परमात्मा की वाणी है अर्थात वेदों में वर्णित सभी कुछ सत है | जब वेद साधारण व्यक्तियों की समझ से परे होने लगे तब हमारे ऋषि-मुनि आपस में वार्तालाप करते हुए इनका सरलीकरण करने लगे | इस प्रकार उनके द्वारा वेद में वर्णित बातों का विस्तृत विवेचन और विषय को ग्राह्य बनाने का कार्य करते हुए विभिन्न उपनिषदों की रचना की गयी | विभिन्न विषयों को और अधिक सरल बनाते हुए विभिन्न कथाओं में उनका वर्णन करते हुए अठारह पुराण रचे गए | इस प्रकार हमारे विभिन्न शास्त्रों का प्राकट्य हुआ | आज भी इन शास्त्रों पर विभिन्न संत जन प्रभावी कार्य करते हुए टीका लिख रहे हैं | इन सब कार्यों के पीछे एक मात्र उद्देश्य इस संसार के प्रत्येक व्यक्ति तक ज्ञान को पहुँचाना है | इसीलिए जब हम साधारण भाषा में शास्त्रों पर लिखे गए साहित्य से प्रारम्भ करते हुए पुराण और उपनिषद् पढ़ने की और बढ़ते हैं, तब एक ही बात परिलक्षित होती है कि इस संसार में विभिन्नता नज़र आते हुए भी सब का आधार केवल एक परमात्मा ही है |
               हमने गीता और भागवत से लेकर तुलसी और कबीर तक की चर्चा अब तक की है | हमारे उपनिषद् भी इसी बात को पुष्ट करते हैं और कहते हैं कि परमात्मा से परे कुछ भी नहीं है | श्वेताश्वतर उपनिषद का यह मन्त्र कहता है कि-
क्षरं  प्रधानममृताक्षरं हरः
     क्षरात्मानावीशते देव एकः |
तस्याभिध्यानाद् योजनात् तत्त्वभावाद्
     भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृतिः || श्वेताश्वतर उपनिषद्-1/10 ||
                         अर्थात प्रकृति तो विनाश शील है; इनको भोगने वाला जीवात्मा अमृत रूप अविनाशी है; इन विनाश शील जड़ तत्व और अविनाशी चेतन आत्मा, दोनों को एक ईश्वर अपने शासन में रखता है | इस प्रकार यह जानकर उस परमात्मा का निरंतर ध्यान करने से; मन को उसमें लगाये रखने से तथा तन्मय हो जाने से अंत में उसी को प्राप्त हो जाता है और समस्त माया की निवृति हो जाती है |

                       प्रत्येक व्यक्ति का मूल स्वरूप अविनाशी ही है परन्तु जड़ शरीर, इन्द्रियों और विषयों में आसक्ति हो जाने से वह अपने शरीर की मृत्यु को स्वयं की ही मृत्यु होना मानने लगता है, जबकि वास्तविकता में वह केवल शरीर ही बदलता है | शरीर की मृत्यु को अपनी मृत्यु मानना केवल माया है तथा एक शरीर त्यागकर दूसरे शरीर में जाना भी उसकी एक माया ही है | जब व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है कि वह शरीर न होकर अविनाशी आत्मा है, जो स्वयं परमात्मा का ही अंश है और परमात्मा में ही है; तब समस्त माया की निवृति हो जाती है | एक परमात्मा के अतिरिक्त  कोई अन्य है ही नहीं, यह स्पष्ट होते ही वह परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है |  
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् || 

Tuesday, August 30, 2016

ज्ञान-विज्ञान-23

           हमारा यह संसार वास्तव में है क्या, कैसे इसका निर्माण हुआ ? ब्रह्माण्ड में कई ऐसे ग्रह भी हैं जहाँ जीवन नहीं है, वहां पर हमारे जैसे संसार का निर्माण क्यों नहीं हुआ है ? इन प्रश्नों के उत्तर मिल जाने पर सब कुछ स्पष्ट हो जाता है | परमात्मा ने कामना की कि मैं एक से अनेक हो जाऊं, ‘सोSकामयात् बहुस्याम्’ | कामना का पैदा होना, बिना मन के संभव ही नहीं है अर्थात कामना मन में ही पैदा होती है, अन्यत्र नहीं | इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि मन भी परमात्मा का ही एक स्वरूप हुआ |
            इसी प्रकार संसार का निर्माण भी केवल पाँच भौतिक तत्व ही नहीं करते हैं बल्कि इन पाँच तत्वों के साथ अन्य तीन, मन, बुद्धि और अहंकार मिलकर ही संसार का निर्माण करते हैं और इन तीनों में मन की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है | इस प्रकार ये आठों तत्व जड़ प्रकृति के हैं अतः यह संसार भी जड़ प्रकृति का हुआ | मन के संकल्प और विकल्प ही इस संसार का निर्माण करते हैं | जब इस अष्टधा जड़ प्रकृति के साथ परा चेतन प्रकृति का संयोग हो जाता है तब इसे जगत का प्रभव होना कहा जाता है | यह संयोग हमारे मन के संकल्प के कारण ही परमात्मा कराते हैं अन्यथा नहीं | इसका एक ही अर्थ हुआ कि अगर हमारे मन में किसी भी प्रकार के संकल्प विकल्प नहीं रहेंगे तो परमात्मा ऐसे संयोग को कराने को बाध्य नहीं होंगे और अगर पहले ही संयोग हो चुका है तो फिर उसका विलगाव हो जायेगा | जब संयोग ही नहीं रहेगा तो फिर संसार का अस्तित्व भी कैसे रह पाएगा ? ऐसा विलगाव ही संसार का प्रलय है |
            मन के कारण ही हम यहाँ में बार बार जन्म लेते हैं और अपने संसार का निर्माण करते हैं | जिस दिन हमारे मन में किसी प्रकार की कोई कामना नहीं रहेगी, कोई संकल्प शेष नहीं रहेगा हम इस संसार से मुक्त हो जायेंगे | इसी को जीवन मुक्त होना कहते हैं | संसार में बने रहना ही इसका प्रभव है और संसार से मुक्त हो जाना इसका प्रलय | यह प्रभव और प्रलय हमारे भीतर ही घटित होता है, हमसे बाहर नहीं | मन की उठा पटक संसार का प्रभव है और मन को शांत कर लेना, निर्मल कर लेना प्रलय | परमात्मा की प्राप्ति स्वयं के भीतर के प्रलय से होगी | संसार के प्रभव और प्रलय का कारण केवल परमात्मा ही है क्योंकि उसके बिना न तो मन का अस्तित्व है, न ही चेतनता का और न ही संसार का |
          मन के निर्मल होते ही परमात्मा का यथार्थ ज्ञान हो जाता है | गोस्वामीजी श्री रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में स्पष्ट करते हैं –
‘निर्मल मन जन सो मोहि पावा | मोहि कपट छल छिद्र न भावा ||’(मानस-5/44/5)

       अतः यह समझ लें कि मन है, तो संसार है और मन को नियंत्रित कर लिया तो फिर इस जगत में रहते हुए भी यह आपके लिए कुछ भी नहीं है, आपको यह किसी भी प्रकार प्रभावित नहीं कर सकता | प्रलय आंतरिक रूप से होना आवश्यक है, नहीं तो हमारे लिए परमात्मा को जानना बहुत ही दूर की बात होगी | वह बात और है कि प्रभव और प्रलय स्वयं परमात्मा के कारण ही संभव है, जिसे पहले ही स्पष्ट किया जा चूका है |
क्रमशः 
||हरिः शरणम् ||

Monday, August 29, 2016

ज्ञान-विज्ञान-22

    श्रीमद्भागवत् महापुराण में भगवान कहते हैं-
              एवं ह्येतानि भूतानि भूतेष्वात्माSSत्मना ततः|
              उभयं   मय्यथ   परे   पश्यताभातमक्षरे ||भागवत-10/82/47 ||
अर्थात सभी प्राणियों के शरीर में यही पाँच भूत कारण रूप से स्थित हैं, और आत्मा भोक्ता के रूप से अथवा जीव के रूप में स्थित है | परन्तु मैं इन दोनों से परे अविनाशी सत्य हूँ | ये दोनों ही मेरे में प्रतीत हो रहे हैं, तुम लोग ऐसा ही अनुभव करो |
           इस संसार में चाहे जितने भी चर-अचर और जड़-चेतन जैसी विभिन्न रचनाएँ दृष्टिगत हों, प्रत्येक के पीछे परमात्मा ही हैं | जड़-चेतन प्रकृतियाँ तो परमात्मा इस संसार को विभिन्न रूप प्रदान करने के लिए पैदा करते है | इन प्रकृतियों को आधार तो केवल परमात्मा ही प्रदान करते है | बिना परमात्मा के इस संसार का उत्पन्न होना भी संभव नहीं है और नष्ट होना भी नहीं | मनुष्य को तो विज्ञान के रूप में, चूहे की तरह हल्दी की एक छोटी सी गांठ मिल गयी है, जिसके कारण वह अपने आपको पंसारी समझ बैठा है | जबकि उसे समझना होगा कि विज्ञान तो परमात्मा के ज्ञान का एक अति सूक्ष्म अंश मात्र है, अभी भी उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बहुत लम्बा रास्ता शेष पड़ा है | जब तक विज्ञान, सम्पूर्ण ज्ञान की सीमा तक पहुंचने वाला होगा, हो सकता है; तब तक परमात्मा इस संसार के प्रलय का निर्णय ही ले ले | विज्ञान के द्वारा खोज के नाम पर किये जाने वाले विभिन्न प्रयोग ऐसे ही किसी संभावित विध्वंस की ओर इशारा कर रहे हैं |  

          ‘इस समस्त जगत का प्रभाव और प्रलय मैं ही हूँ’ परमात्मा के इस कथन का अब तक मैंने वैज्ञानिक आधार पर विवेचन किया है | यह विवेचन भी केवल हमारी अपरा प्रकृति के प्रति आसक्ति को ही व्यक्त करता है | हमारे जीवन के आधार भूत तत्व और चेतनता के मिलन और दुराव से प्रभाव और प्रलय संभव होता है, यह विज्ञान की दृष्टि में एक सत्य है | इस वैज्ञानिक सत्य के अतिरिक्त एक आध्यात्मिक सत्य ओर भी है | अतः इस संसार के प्रभव और प्रलय का आध्यात्मिक विवेचन भी करना आवश्यक है |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् || 

Sunday, August 28, 2016

ज्ञान-विज्ञान-21

ज्ञान-विज्ञान-21 
                 इस बात को कि सम्पूर्ण जगत का कारण मैं ही हूँ, और अधिक स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सूत और उससे गूंथी मणियों का उदाहरण देते हुए कह रहे हैं-
                    मतः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनञ्जय |
                    मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव || गीता-7/7 ||
                               अर्थात हे धनञ्जय ! मेरे सिवाय इस जगत का कोई दूसरा थोडा-बहुत भी कारण नहीं है | जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागे में पिरोई हुई होती है, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत मेरे में ही ओतप्रोत है |
                              आप एक लम्बी सूत की डोरी लें और उस डोरी से डोरी में ही मणियाँ बनायें | इस प्रकार जब आप इस डोरी में मणियाँ बना लेते हैं, तब यह एक माला बन जाती है | इस माला को देखने से हमें ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि सूत की डोरी में मणियाँ पिरोई हुई है, जबकि मणियाँ भी सूत से ही बनी हुई है और डोरी भी सूत ही है | इस मणियों की माला में केवल सूत ही सूत है, सूत के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का उपयोग नहीं किया गया है | अगर इस मणियों की माला को गंभीरता से देखा जाये तो इसमें सूत के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देगा | इसी प्रकार संसार का कारण भले ही दो अलग प्रकार की प्रकृतियों का संयोजन हो, दोनों ही परमात्मा के कारण है | अतः यह स्पष्ट है कि संसार में प्रत्येक वस्तु, प्राणी, दृश्यमान अथवा अदृश्य, परमात्मा के अतिरिक्त कही पर भी कुछ अन्य नहीं है | इस श्लोक में यही स्पष्ट किया गया है कि यह सम्पूर्ण जगत मेरे में ही ओतप्रोत है, भले ही इसमें विभिन्नता दिखाई दे रही हो |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Saturday, August 27, 2016

हरिः शरणम् आश्रम से

हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार से
प्रातः कालीन प्रार्थना सत्र से-दिनांक-24/8/2016
                  आज प्रातः कालीन प्रार्थना सत्र में आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज के सद् साहित्य से उद्घृत करते हुए स्वरूप और स्वभाव का तुलनात्मक वर्णन किया | मनुष्य का स्वभाव कई कारक मिलकर बनाते है जबकि उसका स्वयं का स्वरूप उसके स्वभाव से बिलकुल भिन्न होता है | व्यक्ति का स्वभाव कई कारकों पर निर्भर करता है जैसे माता-पिता और वंश पर, पूर्वजन्म के संस्कारों पर, चारों और के वातावरण पर और संगति पर | व्यक्ति अपने आप को वैसा ही मान बैठता है जैसा कि उसका स्वभाव है, जबकि उसका स्वरूप ही स्वयं उसका ही होता है, उस पर किसी अन्य का प्रभाव नहीं पड़ता है | स्वामी जी कहते थे कि व्यक्ति को अपना स्वरूप पहचानना होगा | जड़ तत्वों में आसक्ति रखने के कारण वह अपना वास्तविक रूप को भूला बैठा है | जड़ तत्वों में ध्यान रखने से जड़ की ही प्राप्ति होगी | जड़ तत्व असत् है और स्वरूप सत है | व्यक्ति को असत् को छोड़कर सत को पकड़ना होगा | इस कार्य में मन की भूमिका महत्वपूर्ण है | मन भी ईश्वर का स्वरूप है, अतः इसको जड़ की तरफ आसक्त मत होने दो, इसको परमात्मा में लगा दो | मन बड़ा ही चंचल है, यह कभी खाली नहीं बैठ सकता | मन को नियंत्रित कर परमात्मा में लगा देने से व्यक्ति अपने स्वरूप को उपलब्ध हो जायेगा |
दिनांक-25/8/2016 प्रातःकालीन प्रार्थना-सत्र  
      स्वरूप पर स्वामीजी की बात को कल से आगे बढ़ाते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने कहा कि व्यक्ति का स्वभाव उसके कर्मों से बनता है और उसी स्वभाव के वशीभूत होकर फिर वह कर्म करता है | इस प्रकार यह स्वभाव से कर्म करने की और कर्म से स्वभाव बनने की क्रिया चलती रहती है | स्वरूप पर इस क्रिया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है | क्रियाएं सभी स्वभाव में होती रहती है | जब व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान जाता है, तब कर्मों का प्रकार भी परिवर्तित हो जाता है | कर्मों में यह परिवर्तन स्वभाव को भी परिवर्तित कर देता है |
       हमारा स्वरूप मूलतः परमात्मा का स्वरूप है जिससे हमारी और परमात्मा की एक ही जाति हुई | जाति का जाति के प्रति एक प्रकार का विशेष आकर्षण होना स्वाभाविक है | परन्तु यहाँ पर इसके ठीक विपरीत होता है | जब हमारा स्वरूप स्वभाव के संपर्क में आता है तब वह उसी को अपना स्वरूप मानने लगता है | इसमें मन की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है | मन बड़ा ही चंचल है, यह मन का स्वभाव है | मन के वशीभूत होकर ही हम अपने स्वरूप को भूल जाते हैं | 
दिनांक-26/8/2016 प्रातःकालीन प्रार्थना-सत्र -
       प्रातःकालीन प्रार्थना और नियमित अन्य कार्यक्रमों के अंत में स्वामी रामसुखदासजी की पुस्तक में से उद्घृत करते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने स्वभाव और स्वरूप के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि ‘मैं’ स्वरूप का नाम है न कि शरीर का | स्वभाव का शरीर से सम्बन्ध है जबकि स्वरूप का परमात्मा से | जिस दिन हम अपने स्वरूप को पहचान लेंगे, समता को प्राप्त कर लेंगे | जब तक हम स्वभाव के वशीभूत हैं तब तक मोहग्रस्त हैं और तब तक ही हम में विषमता है | लड़ाई-झगड़ा, लाड-दुलार और तेरा-मेरा सब का सब स्वभाव है, हमारा स्वरूप नहीं |
            जितनी भी क्रियाएं अथवा कर्म होते हैं, स्वभाव के कारण होते हैं, स्वरूप के कारण नहीं | मनुष्य को भगवान ने स्वयं की इच्छा से कर्म करने का अधिकार दिया है और सोचने समझने का विवेक भी, जबकि अन्य प्राणियों को ऐसी किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं दी है | फिर भी हम स्वभाव के वशीभूत होकर भोगों में आसक्त हो जाते है और वैसे ही क्रियाएं करने लगते हैं, जैसी कि पशु-पक्षी करते हैं | हमारा स्वरूप परमात्मा का है और हमें अपने स्वभाव को बदलना होगा और स्वभाव तभी बदलेगा जब हम अपने स्वरूप में स्थित हो जायेंगे | स्वरूप में स्थित व्यक्ति से कभी विकर्म नहीं होंगे बल्कि उसके सभी कर्म भी अकर्म हो जाते हैं | वह परमात्मा की तरह सब कुछ करते हुए भी कुछ भी नहीं करेगा | स्वरूप  को पहचान लेने से मन का स्वरूप में ही विलय हो जाता है, अलग अस्तित्व प्रभावी नहीं रहेगा | अतः स्वभाव को छोड़ स्वरूप के साथ जीना ही जीवन-मुक्त हो जाना है |
               कल से हम पुनः ‘ज्ञान-विज्ञान’ पर आगे चर्चा प्रारम्भ करेंगे |                    || हरिः शरणम् ||

                 


Monday, August 22, 2016

ज्ञान-विज्ञान-20

           परमात्मा की इन दो, परा और अपरा प्रकृति में संयोग का कारण भी स्वयं परमात्मा ही है | जो स्वयं के भीतर अपने आप को विभाजित कर सकता है, उसी प्रकार वह वापिस संयोजन भी करा सकता है | भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को यही समझा रहे हैं  कि सम्पूर्ण प्राणियों के उत्पन्न होने का कारण इन दोनों प्रकार की प्रकृतियों का एकीकरण ही है अन्यथा इनमें विलगता (Isolation) रहने तक जीवन संभव नहीं है | जहाँ कहीं भी इन दोनों प्रकृतियों का संयोजन नहीं हो पाया है, वहां अपरा प्रकृति तो दृष्टिगत है और परा प्रकृति अदृश्य ही है क्योंकि परा प्रकृति को दृश्यमान होने के लिए अपरा के साथ संयोजन करना ही होगा और यह संयोजन बिना परमात्मा के संभव नहीं हो सकता | पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य ग्रहों अथवा उपग्रह पर विज्ञान अभी भी जीवन के लक्षण खोज नहीं पाया है | जिस दिन हमारी पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य गृह पर जीवन प्रारम्भ होगा, इन दोनों प्रकृतियों में संयोग से ही होगा अन्यथा नहीं | दोनों प्रकृतियों में संयोग अथवा पुनः विलगन केवल परमात्मा के हाथ है, तभी इस श्लोक में वे कहते हैं कि मैं ही समस्त जगत का प्रभव और प्रलय हूँ अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण मैं ही हूँ |
 श्रीमद्भागवत महापुराण में कपिल भगवान् अपनी माता देवहूति को कहते हैं-
              जीवो ह्यस्यानुगो देहो भूतेन्द्रियमनोमयः |
              तन्निरोधोsस्य मरणमाविर्भावस्तु सम्भवः || भागवत- 3/31/44 ||
अर्थात जीव का उपाधिरूप लिंग शरीर (चेतन) तो मोक्ष पर्यंत उसके साथ रहता है तथा भूत, इन्द्रिय और मन का कार्यरूप (स्थूल) शरीर इसका भोगाधिष्ठान है | इन दोनों का परस्पर संगठित होकर कार्य न करना ही प्राणी की ‘मृत्यु’ है और दोनों का साथ –साथ प्रकट होना ‘जन्म’ कहलाता है |

              इस प्रकार भागवत में भी यह स्पष्ट है कि चेतन और स्थूल का संयोग ही संसार का प्रभव है और इन दोनों का विलगन प्रलय | लिंग शरीर (जीवात्मा) जो कि भोक्ता है और यह स्थूल शरीर उन भोगों का अधिष्ठान है | जीवात्मा अपनी कामनाओं और उनको पूर्ण करने के लिए शरीर द्वारा किये गए कर्मों का फल भोगने के लिए स्थूल शरीर को अधिग्रहित करती है | दोनों ही परमात्मा के अधिकार क्षेत्र में है, बिना परमात्मा के किसी एक का भी अस्तित्व संभव नहीं है, इस प्रकार इन दोनों, प्रभव और प्रलय का मूल कारण परमात्मा ही हुए |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, August 21, 2016

ज्ञान-विज्ञान-19

ज्ञान-विज्ञान-19 
                              हमने संक्षेप में परमात्मा की अपरा और परा प्रकृति के बारे में विचार किया | अपरा प्रकृति को जानना विज्ञान है और परा प्रकृति को जान लेना ज्ञान है | विज्ञान से ज्ञान की इस अवस्था तक पहुँच जाने के बाद भी हम परमात्मा को जानने से अभी भी बहुत दूर हैं | भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - 
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधाराय |
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा || गीता-7/6 ||
          अर्थात सम्पूर्ण प्राणियों के उत्पन्न होने में अपरा और परा-इन दोनों प्रकृतियों का संयोग ही कारण है- ऐसा तुम समझो | मैं ही सम्पूर्ण जगत का प्रभव और प्रलय हूँ |
           जब परमात्मा कहते हैं ‘एकोSहम् बहुस्यामि’, इसका अर्थ है कि मैं एक से अनेक होना चाहता हूँ अर्थात परमात्मा को अपने स्वरूप को विभाजित करना है | एक से अनेक होने के लिए उन्हें प्रारम्भ में अपने में दो रूप पैदा किये, जो उनकी दो प्रकृतियाँ कहलाती हैं | यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने की है कि ये दोनों प्रकृतियाँ उन्होंने अपने स्वयं के भीतर ही प्रकट की, अपने से बाहर दो में विखंडित नहीं किया | एक से अनेक हो जाने का अर्थ यही है कि चाहे परमात्मा एक से अनेकों रूप में परिवर्तित हो जाये, प्रत्येक अंश में वे स्वयं उपस्थित अवश्य ही रहेंगे और साथ ही साथ जितने भी अंश पैदा होंगे सभी उनमें ही अवस्थित रहेंगे | आप एक स्वर्ण के टूकडे को दो अथवा दो से अधिक भागों में विभाजित का देंगे तो भी उसके प्रत्येक भाग में स्वर्ण अवश्य ही रहेगा | इससे भी अधिक उपयुक्त एक उदाहरण और देना चाहूँगा | प्रत्येक चुम्बक में दो सिरे होते है जिन्हें ध्रुव कहा जाता है-यथा उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव | इस चुम्बक के दो या दो से अधिक भाग किये जाये तो भी प्रत्येक अंश में स्वतन्त्र चुम्बक के गुण बने रहेंगे और प्रत्येक में यही दो ध्रुव उपस्थित होंगे | इसी प्रकार परमात्मा प्रत्येक प्रकृति में उपस्थित है, चाहे वह अष्टधा जड़ प्रकृति हो या चेतन परा प्रकृति | जिस दिन इस बात का हमारे अंतर्मन को ज्ञान हो जायेगा, हमें संसार की प्रत्येक वस्तु, प्राणी आदि में परमात्मा के दर्शन होंगे |
क्रमशः 
|| हरिःशरणम् ||

Saturday, August 20, 2016

ज्ञान-विज्ञान-18

ज्ञान-विज्ञान-18 
                            विज्ञान से ज्ञान की ओर की आगे की यात्रा को समझने के लिए परमात्मा की दूसरी प्रकृति को समझना आवश्यक है | परमात्मा अपनी पहली अपरा प्रकृति का विज्ञान अर्जुन को समझा कर अब दूसरी, परा प्रकृति का ज्ञान प्रारम्भ कर रहे हैं-
                  अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् |
                 जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् || गीता-7/5 ||
अर्थात हे महाबाहो ! उपरोक्त वर्णित अष्टधा अपरा प्रकृति के अतिरिक्त जो दूसरी प्रकृति, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीव रूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान |
अपरा प्रकृति के आठों तत्व एक साथ मिलकर भी शरीर का निर्माण तो कर सकते हैं, परन्तु वह शरीर अचेतन ही है | अपरा प्रकृति के साथ जब परा प्रकृति का संयोजन होता है, तभी शरीर को चेतनता प्राप्त होती है | यह दूसरी प्रकृति जीव रूपा है अर्थात निर्जीव को जीवन प्रदान करती है | परमात्मा की इस दूसरी प्रकृति के बिना इस संसार में जीवन असंभव है | यह दूसरी परा प्रकृति ही इस संसार के जीवन-चक्र का आधार है |
                          वास्तव में देखा जाए तो अष्टधा प्रकृति केवल स्थूल से सम्बंधित है और स्थूल सदैव ही परिवर्तनशील है | परा प्रकृति जो स्थूल को चेतनता प्रदान करती है, वह सूक्ष्म प्रकृति है | दोनों प्रकृतियाँ एक ही परमात्मा की देन है, फिर भी दोनों भिन्न है | समस्या तो तभी पैदा होती है जब चेतन प्रकृति को भूलकर मनुष्य अपने आपको केवल स्थूल प्रकृति का ही समझने लगता है | आप स्वयं चेतन है और आपका यह भौतिक शरीर अचेतन है, फिर आप यह शरीर कैसे हो सकते हैं ? हमारी भूल यही तो है कि हम अपने आप को मात्र एक शरीर ही समझने लगे हैं | आप नाव से नदी पार कर सकते है परन्तु नदी पार करने के लिए आप नाव में बैठकर स्वयं नाव तो नहीं हो जाते न | यह शरीर भी आपको संसार सागर से पार जाने के लिए नाव की तरह एक उपकरण मात्र मिला है | इसे पार उतरने का एक साधन भर समझो | केवल और केवल इसी को सुरक्षित रखने को ही साध्य मत बनाओ | नदी पार कर लेने के उपरांत नाव को किनारे पर ही छोड़ना होता है, नाव के साथ आसक्ति रखकर उसी में बैठे रहने से पार नहीं हुआ जाता | आप शरीर नहीं है अतः इसके साथ मत बंधो बल्कि इस शरीर का सदुपयोग कर मुक्त हो जाओ | संसार से मुक्त हो जाना ही संसार सागर के पार होना है |
क्रमशः
|| हरिःशरणम् ||

Friday, August 19, 2016

ज्ञान-विज्ञान-17

ज्ञान-विज्ञान-17 
                                   प्राणियों के भौतिक शरीर के निर्माण में इस अपरा प्रकृति की महत्वपूर्ण भूमिका तो है ही, साथ ही साथ इसकी भूमिका प्राणियों के भरण-पोषण से लेकर समस्त सुख सुविधाएँ उपलब्ध करवाने में भी है | स्थूल प्रकृति के प्रारम्भ के पाँच तत्व तो इस संसार में प्रत्येक स्थान पर उपलब्ध हैं और ये सभी ऊर्जा के भण्डार हैं | शेष तीन तत्व यथा मन, बुद्धि और अहंकार का उपयोग करके मानव इन ऊर्जा स्रोतों से अपने जीवन को सुखमय बनाने में लगा है | इन ऊर्जा भंडारों को आधार बनाकर वह अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए नित्य नवीन प्रयोग करता रहता है | इन्हीं से कई नए आविष्कार हुए हैं और उनका उपयोग मनुष्य कर भी रहा है | परन्तु जहाँ सुख है, वहां दुःख का होना अवश्यम्भावी है | यही कारण है कि इन ऊर्जा आधारित संयंत्र और साधन मनुष्य के लिये दुःख के कारण भी बने हुए हैं | ऐसे सभी साधन और उनके आविष्कार, विज्ञान के अंतर्गत ही है |
                                 इस अष्टधा प्रकृति का ज्ञान प्राप्त कर व्यक्ति यही समझता है कि उसने समस्त ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा को जान लिया है | वह इस जड़ प्रकृति का ज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सुखी बनाने का दम्भ अवश्य भर सकता है परन्तु क्या उसको यहीं तक पहुंचकर समझ लेना चाहिए कि उसने सब कुछ जान लिया है ? जड़ प्रकृति के ज्ञान को विज्ञान कहते हैं और विज्ञान से मनुष्य चाँद और ग्रहों पर पहुँच सकता है, यंत्र और मशीनें आदि बना सकता है, अपने जीवनोपयोगी सामग्री का निर्माण कर सकता है परन्तु वह किसी मृत शरीर में चेतनता नहीं ला सकता, वह पत्थर की बनी मूर्ति को सजीव नहीं कर सकता | भविष्य में वह अगर ऐसा करना संभव कर सकता है तो यही माना जायेगा कि वह परमात्मा को जानने और समझने के और करीब पहुँच रहा है अन्यथा विज्ञान पर आकर अटक जाना ज्ञान-पथ से विचलन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है |
क्रमशः 
|| हरिःशरणम् ||

Thursday, August 18, 2016

ज्ञान-विज्ञान-16

ज्ञान-विज्ञान-16
विज्ञान, ज्ञान और परमात्मा के परायण होना, पढ़ने और सुनने में बड़े ही सरल शब्द लगते हैं परन्तु जब इन शब्दों की गहराई में जाना होता है, तभी इनका गूढ़ रहस्य समझ में आता है | गीता के इस सातवें ज्ञान-विज्ञान अध्याय में भगवान श्री कृष्ण इसी गूढ़ रहस्य को अपने शिष्य अर्जुन के सामने स्पष्ट कर रहे हैं | चौथे श्लोक से ‘विज्ञान से ज्ञान की ओर’ भगवान धीरे धीरे आगे बढ़ रहे हैं तथा अर्जुन को सर्वप्रथम इस मनुष्य शरीर का विज्ञान समझा रहे हैं-
भूमिरापोSनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च |
अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || गीता-7/4 ||
अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार आठ प्रकार से विभाजित मेरी अपरा यानि जड़ प्रकृति है |
इस श्लोक में जो भी आठ भेदो वाली जड़ प्रकृति भगवान ने बताई है, वे सब उस ज्ञान के अंतर्गत आती है, जिसे विज्ञान कहा जाता है | ये सब या तो दृश्यमान है या फिर हमारे द्वारा अनुभव की जा सकने वाली है | जो कुछ भी इस शरीर की भौतिक दृष्टि से दिखाई देने वाली अथवा अनुभव करने वाली प्रकृति है, वे सभी विज्ञान जानता है | पंचतत्व, जिनसे यह शरीर बना है, उस में अवस्थित मन, बुद्धि और अहंकार सभी आठों भेद वाली प्रकृति संयुक्त रूप से अपरा प्रकृति कहलाती है | यह प्रकृति परिवर्तनशील है, इसलिए इसे जड़ अथवा स्थूल प्रकृति भी कहा जाता है | यह प्रकृति समस्त प्राणियों की देह का निर्माण करती है और उनके जीवन काल में दिन प्रतिदिन अथवा यूँ कह सकता हूँ कि प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती है | केवल इस अपरा प्रकृति का ज्ञान होना सम्पूर्ण ज्ञान न होकर मात्र विज्ञान ही है | परमात्मा की इस अष्टधा अपरा प्रकृति का ज्ञान, विज्ञान बनकर आपको अपनी भौतिक देह को आधि-व्याधि से मुक्त रखने का मार्ग दिखलाता है |
क्रमशः
|| हरिःशरणम् ||

Wednesday, August 17, 2016

ज्ञान-विज्ञान-15

ज्ञान-विज्ञान-15
विज्ञान से ज्ञान की ओर प्रस्थान करते हुए, परमात्मा के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए हम उसके वास्तविक स्वरूप को जान सकते हैं | इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि व्यक्ति को परमात्मा को जानने और समझने के लिए तीन स्तर से गुजरना होता है | किसी एक स्तर पर आकर अटक जाना ही परमात्म मार्ग से विचलन है | अतः व्यक्ति को धैर्य के साथ सभी तीन सीढ़ियों को पार करना होगा, तभी परमात्मा का यथार्थ ज्ञान संभव होगा, अन्यथा नहीं | प्रथम स्तर है विज्ञान का, दूसरा स्तर है ज्ञान का और तीसरा स्तर है परमात्मा के प्रति श्रद्धा भाव का | विज्ञान हमें उस परमपिता के व्यक्त भौतिक स्वरूप का ज्ञान कराता है, शास्त्रीय ज्ञान हमें उस भौतिक व्यक्त स्वरूप के आधार अर्थात अव्यक्त मूल का ज्ञान कराता है और इस ज्ञान और विज्ञान के साथ अगर परमात्मा के प्रति परायणता हो, श्रद्धा भाव हो तो फिर ऐसा ज्ञान इस व्यक्त-अव्यक्त के भेद को ही समाप्त कर देता है | व्यक्त-अव्यक्त के बीच का भेद समाप्त हो जाना ही परमात्मा को यथार्थ रूप से जान लेना है | गीता के इस ज्ञान-विज्ञान योग नामक सातवें अध्याय का यही सार है |
गीता की यह विशेषता है कि सारगर्भित बात को भगवान के द्वारा अध्याय के प्रारम्भ में ही कह दिया जाता है और फिर उस बात को धीरे धीरे स्पष्ट किया जाता है | अध्याय का अंत आते आते आदेशात्मक रूप से वास्तविक बात को एक दो श्लोक में स्पष्ट कर दिया जाता है | इस प्रकार जब हम इस अध्याय के तीसरे श्लोक को भली भांति समझ लेते हैं तब ज्ञान-विज्ञान का सारा अंतर भी मिट जाता है और परमात्मा को समझने की जिज्ञासा भी शांत हो जाती है | इससे आगे के श्लोक इन्हीं तीनों स्तर को विस्तार देते हुए विषय को और अधिक स्पष्ट करते हैं |
क्रमशः
|| हरिःशरणम् ||

Tuesday, August 16, 2016

ज्ञान-विज्ञान-14

ज्ञान-विज्ञान-14
             ज्ञान-मार्ग अवश्य ही श्रेष्ठ मार्ग है, इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता, परन्तु इस मार्ग की सबसे बड़ी कमी इस मार्ग से विचलित हो जाने की ही है | परमात्मा के प्रति परायण होना इस मार्ग से विचलन को रोक सकता है | रामचरितमानस में गोस्वामीजी लिखते हैं-
‘ग्यान पंथ कृपान के धारा | परत खगेस होइ नहिं बारा ||
जो निर्विघ्न पंथ निर्बहई | सो कैवल्य परम पद लहई ||’ (उत्तरकाण्ड-119/1-2)
अर्थात ज्ञान का मार्ग दुधारी तलवार की धार के समान है | हे पक्षिराज ! इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती | जो इस मार्ग को निर्विघ्न निबाह ले जाता है, वही कैवल्य (मोक्ष) परमपद को प्राप्त करता है |
        गोस्वामीजी की यह एक विशेषता है कि वे भीतर तक पहुंचकर असर कर जाये, ऐसी मर्म की बात को बड़ी ही सादगी से कह देते हैं | गरुड़, जो कि भगवान का वाहन है, उसे भी स्वयं को बड़ा होने का अभिमान हो गया था | एक बार उसे भ्रम हो गया था कि संसार के लोगों को बंधनमुक्त करने वाले परमात्मा को एक बार बंधन से मैंने ही मुक्त किया था | त्रेता युग में जब भगवान श्रीराम नागपाश में बंध गए थे तब मैंने ही उन्हें मुक्त किया था | इस प्रकार मैं श्री राम से भी बड़ा हूँ | यह उसका अहंकार था | उसे इस अहंकार से मुक्त करने के लिए काकभुसुंडि जी के पास भेजा गया | कौआ पक्षियों में निम्नतम स्तर का पक्षी माना जाता है और गरुड़ तो स्वयं पक्षियों का राजा है ही | व्यक्ति का अहंकार भी तभी टूटता है, जब उससे निम्न श्रेणी का व्यक्ति कोई ऐसी बात कह दे जो उसको भीतर तक छू जाये | ऐसी स्थिति में उसका अहंकार गिर जाता है और वह वास्तविकता से परिचित हो जाता है |
          परमात्मा की मर्जी है कि वे इस संसार में किससे कौन सा कार्य करवाए ? हमें यह भ्रम अपने मन में कभी भी नहीं पालना चाहिए कि मेरे अतिरिक्त यह कार्य कोई और व्यक्ति नहीं कर सकता | ज्ञान हमें अहंकार ग्रस्त कर सकता है, इसका सदैव ध्यान रखना चाहिए | हमें तो प्रत्येक सत्कर्म को अपना सौभाग्य समझना चाहिए कि परमात्मा ने यह कार्य करवाने के लिए लाखों व्यक्तियों में से केवल मुझे ही योग्य समझा है | ‘यह सब केवल उस प्रभु की ही मुझ पर असीम कृपा है’, सदैव ऐसा मानना ही आपकी परमात्मा के प्रति परायणता है | अतः ज्ञान के साथ परमात्मा के प्रति परायणता रखने से ही उसके परम स्वरूप को यथार्थ रूप से जाना जा सकता है |
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||     

Monday, August 15, 2016

ज्ञान-विज्ञान-13

ज्ञान-विज्ञान-13
           गुरु ही आपके शास्त्रीय स्वाध्याय को परमात्मा के द्वार तक ले जाने में सक्षम है | इस संसार में अथाह ज्ञान पुस्तकों में भरा पड़ा है, फिर भी चारों और अज्ञान ही अज्ञान फैला हुआ दिखाई देता है | ऐसा क्यों है ? आज किसी को कोई भी बात जाननी हो, वह तुरंत ही गूगल पर खोज लेता है | फिर भी वह जो जानना चाहता है, क्या गूगल उसको स्पष्ट कर सकता है ? नहीं, कदापि नहीं क्योंकि गूगल केवल गूगल है, वह गुरु नहीं हो  सकता | गूगल में केवल विज्ञान भरा गया है, ज्ञान नहीं | वह मात्र सूचना दे सकता है, उस बात की, जो विज्ञान कह रहा है | विज्ञान से ज्ञान की यात्रा तो केवल गुरु ही करवा सकता है, जैसे कि अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण गीता में करवा रहे हैं | गुरु के कारण तो एक साधारण जुलाहा कबीर भी ज्ञान को उपलब्ध हो गया था | तभी तो कबीर कह उठा-
           ‘पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथ |
           आगे थे सत् गुरु मिला, दीपक दिया हाथ ||’
         कबीर कहते हैं कि संसार में मैंने लोगों से ज्ञान की बातें बहुत सुनी, वेदों और शास्त्रों में लिखी बाते भी सुनी और अपने जीवन में उन सुनी हुई बातों का अनुसरण भी करता रहा, परन्तु फिर भी ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ, परमात्मा से फिर भी दूरी बनी रही | मेरा परम सौभाग्य, जो ज्ञान-मार्ग में आगे बढ़ने पर मुझे आदर्श गुरु मिले, जिन्होंने मेरे हाथ में दीपक रख दिया | दीपक हाथ में देने का अर्थ है कि गुरु ने मुझे परमात्मा के परायण कर वास्तविक ज्ञान से प्रकाशित कर दिया |
            कबीर गुरु की भूमिका को शास्त्रीय ज्ञान से बहुत ऊपर मानते हैं | वे कहते हैं कि पढ़ा हुआ और पीढ़ियों से विरासत में मिल रहा ज्ञान, दोनों ही आपको परमात्मा की दिशा नहीं बता सकते | ऐसा ज्ञान आपको केवल भ्रमित ही कर सकता है | ऐसा ज्ञान विज्ञान की श्रेणी में आता है क्योंकि वह सब सूचना मात्र है | विज्ञान की सभी सूचनाएँ अपने आपको ही सत्य मानने को विवश करती हैं, जबकि वह स्वयं परिवर्तनशील है और परिवर्तित होनेवाला कभी भी सदैव के लिए सत्य नहीं हो सकता | ज्ञान सत्य है और सत्य प्रत्येक काल और परिस्थिति में सदैव समान रहता है, अतः इसके बारे में कभी भ्रम कि स्थिति पैदा नहीं होती, जबकि विज्ञान परिवर्तनशील है जो सदैव अपने बारे में भ्रम ही पैदा करता है | विज्ञान से पैदा हुए भ्रम को केवल गुरु ही मिटा सकता है |
           ‘गुरु कृपाल कृपा जब  कीन्ही, हिरदै कँवल विगासा |
           भागा भ्रम दसों दिसि सूझ्या, परम ज्योति परगासा ||’
            कबीर कहते हैं कि पढ़े, सुने ज्ञान को गुरु की कृपा से उसी प्रकार विकसित किया जा सकता है जैसे कमल जल में धीरे धीरे खिलता है | उस ज्ञान को विकसित करने का अर्थ है, उस ज्ञान से पैदा हुए अथवा हो सकने वाले भ्रम को दूर कर देना | गुरु की कृपा होने से भ्रम मिट जाता है और परमात्मा का यथार्थ ज्ञान हो जाता है | परमात्मा का ज्ञान होते ही दसों दिशाएं एक दम स्पष्ट दिखाई पड़ने लगती हैं |
क्रमशः
|| हरिः शरणम्  ||                                                           

Sunday, August 14, 2016

ज्ञान-विज्ञान-12

ज्ञान-विज्ञान-12
         परायण, एक ऐसा शब्द जिसके अंतर्गत कई विशेषताएं आ जाती है | श्रद्धा, विश्वास, अनन्य भक्ति, समर्पण और शरणागति आदि सभी शब्द परमात्मा के परायण होने के अंतर्गत ही है | परमात्मा के परायण होने का अर्थ है- परमात्मा में श्रद्धाभाव का होना, परमात्मा में विश्वास करना, उसके प्रति पूर्ण समर्पण का भाव होना, परमात्मा के अतिरिक्त अथवा उसके समकक्ष किसी अन्य को न मानना तथा सदैव उसकी शरण में ही रहना | मीरा बाई परमात्मा के प्रति परायण थी, तभी तो एक महिला होकर भी छाती ठोक कर कह सकी कि “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई “|   
                गीता में भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान-योग को श्रेष्ठ मार्ग बताया अवश्य है परन्तु परमात्मा को स्वरूप से जानने के लिए ज्ञान के साथ भक्ति आवश्यक है | भक्ति का एक अर्थ परमात्मा के प्रति श्रद्धा होना भी है | बिना श्रद्धा के भक्ति फलित नहीं होती है | इसी भगवत-श्रद्धा को ही परमात्मा के प्रति परायण होना कहते हैं | योगी ज्ञानी कहलाता है और परमात्मा के प्रति श्रद्धा रखने वाला योगी साक्षात् परमात्मा ही हो जाता है | परमात्मा के प्रति परायण योगी ही श्रेष्ठ योगी होता है | भगवान गीता में इसी बात को अर्जुन को इस प्रकार समझाते हैं-
             योगिनामपि   सर्वेषां   मद्गतेनान्तरात्मना |
             श्रद्धावान्भजते यो मां स में युक्ततमो मतः || गीता 6/47 ||
अर्थात सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है |
            जिस ज्ञान योगी की परमात्मा के प्रति ऐसी श्रद्धा हो, और वह परमात्मा का  अंतर्मन से निरंतर चिंतन करे, वही उस परम पिता के वास्तविक स्वरूप को जान और समझ सकता है | भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्पष्ट तौर से कहा है कि सिर्फ ऐसा ज्ञान योगी ही मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है | शास्त्रों के स्वाध्याय से ज्ञान को तो उपलब्ध हुआ जा सकता है परन्तु परमात्मा के प्रति श्रद्धा जागृत हो ही, कहा नहीं जा सकता | प्रायः ऐसा देखने और सुनने में आता है कि ज्ञान की अवस्था प्राप्त करने के बाद भी व्यक्ति परमात्मा के मार्ग से  विचलित हो जाता है और वह उसके परम स्वरूप को जानने से वंचित रह जाता है | इसका एक मात्र कारण ज्ञानी होने का अहंकार है | यह अहंकार केवल शास्त्रों को पढ़ कर ही स्वयं को ज्ञानी मान लेने से पैदा होता है | अगर इस ज्ञान के साथ परमात्मा में श्रद्धा पैदा हो जाये तो व्यक्ति कभी भी पथच्युत नहीं हो सकता | इस श्रद्धा को पैदा करने में ही गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण है | गुरु आपके इस ज्ञान को श्रद्धा की धार देता है, जो व्यक्ति को परमात्मा के वास्तविक स्वरूप से परिचित कराने में सहायक सिद्ध होती है  |
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, August 13, 2016

ज्ञान-विज्ञान-11

ज्ञान-विज्ञान-11
            प्रत्येक व्यक्ति जो कि ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है, वह योगी है | इस प्रकार इस संसार में हजारों में कोई एक योगी बन पाता है | योगी ज्ञान प्राप्त कर सकने की योग्यता अवश्य रखता है और आगे भविष्य में वह ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानी भी हो सकता है परन्तु प्रत्येक योगी परमात्मा को यथार्थ रूप से जानता ही हो, यह आवश्यक नहीं है | ज्ञान प्राप्त करने के लिए योगी ज्ञान-मार्ग पर चलता अवश्य ही है परन्तु परमात्मा के वास्तविक स्वरूप से वह अभी भी अनभिज्ञ ही रहता है | इसी लिए गीता के इस ज्ञान-विज्ञान योग नामक अध्याय के तीसरे श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि उन योगियों में भी कोई एक योगी ही मेरे परायण होकर मुझको यथार्थ रूप से जानता है | योगी को कथित ज्ञान पाकर वहीँ पर ही अटककर नहीं रह जाना चाहिए अन्यथा वह ज्ञानी होते हुए भी परमात्मा को नहीं जान पायेगा |
                  योगी को परमात्मा के परायण होने पर ही परमात्मा को जानने का अवसर मिलेगा और यह अवसर परमात्मा स्वयं ही उपलब्ध करवाते है | रामचरित मानस में गोस्वामीजी लिखते हैं-
‘सोइ जानइ जेहि देहु जनाई | जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ||’(अयोध्याकाण्ड-127/3)
अर्थात प्रभु ! आपको वही जानता है, जिसे आप जना देते हैं और आपको जानते ही वह आपका स्वरूप ही बन जाता है |
       भगवान को वास्तविक रूप से जानने के लिए उनके परायण होना आवश्यक है | उनके परायण होते ही परमात्मा उस पर कृपा कर उसे अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित करा देते हैं | बिना परमात्मा के  परायण हुए ज्ञान योगी की सबसे बड़ी कमजोरी उसका स्वयं का अहंकारित हो जाना है | उसमें ज्ञान का अहंकार पैदा हो जाता है और वह इस संसार में ज्ञान मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ मार्ग मानने लगता है | यही अहंकार उसको परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने से वंचित कर देता है | उसको परमात्मा के प्रति परायण होना ही होगा तभी वह अपने ज्ञान से परमात्मा को जान पायेगा अन्यथा नहीं |
क्रमशः  

|| हरिः शरणम् ||

Friday, August 12, 2016

ज्ञान-विज्ञान-10

ज्ञान-विज्ञान-10
            इस प्रकार यह स्पष्ट है कि परमात्मा अव्यक्त होते हुए भी इस व्यक्त जगत का मूल है | वेद से तात्पर्य ज्ञात ज्ञान से है | अगर यह ज्ञात ज्ञान; विज्ञान अथवा अविद्या है तो ऐसा ज्ञान संसार में भटकाने वाला है, क्योंकि ऐसा ज्ञान फलोन्मुख होता है जो बंधन ही पैदा करता है | अगर यह ज्ञान वेदानुसार वास्तविक ज्ञान है, तो ऐसा ज्ञान मूल सहित समस्त वृक्ष को तत्व रूप से मनुष्य को स्पष्ट कर देता है | मूल से वृक्ष कभी भी अलग नहीं है, उसी प्रकार यह संसार भी परमात्मा से विलग नहीं है | यही वास्तविकता में वैदिक ज्ञान है |    
          जब आप बाहर की यात्रा की दिशा बदलकर भीतर की यात्रा करना प्रारम्भ करते है, आप योगी होने की और अग्रसर हो जाते हैं | योग में योगी की दृष्टि कैसी हो जाती है,  उसका वर्णन करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
          सर्वभूतस्थामात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि |
          ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः || गीता-6/29 ||
अर्थात सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकाकी भाव से स्थित रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है |
          पेड़ की पत्तियां, पुष्प व फल इत्यादि मूल के कारण ही संभव है, बिना मूल के इनमें से किसी एक का भी अस्तित्व नहीं है | अतः सभी एक दूसरे के पूरक हैं | इसी प्रकार इस संसार का मूल आत्मा है, और आत्मा ही परमात्मा है | मूल सहित समस्त वृक्ष को एक रूप में देख लेना ही सम्पूर्ण ज्ञान है और केवल दृष्टिगोचर होने वाले वृक्ष के हिस्से यानि पत्तियों, पुष्प और फल को भिन्न भिन्न रूप में देखना ही विज्ञान है |
        योगी समस्त वृक्ष को एक साथ समग्र रूप से देखता है | वह मूल से पुष्प पर्यंत समस्त वृक्ष को अलग अलग हिस्से के रूप में देखता है और वह यह भी जानता कि सम्पूर्ण वृक्ष का आधार यह मूल ही है परन्तु फिर भी यह ज्ञान अभी भी विज्ञान की श्रेणी के अंतर्गत ही है | अभी भी योगी मूल (अव्यक्त) को भी वृक्ष (व्यक्त) का ही एक हिस्सा मात्र मानता है, जबकि वास्तव में मूल (अव्यक्त) ही इस वृक्ष (व्यक्त) का आधार है |     
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, August 11, 2016

ज्ञान-विज्ञान-9

ज्ञान-विज्ञान-9
          संसार से विमुख होकर ज्ञान प्राप्ति के लिए योगी बन जाना और फिर परमात्मा के परायण हो जाना आपको विज्ञान के उद्गम स्रोत ज्ञान तक ले जा सकता है | किसी भी पेड़ की मूल तक पहुँचने के लिए आपको पहले पत्तियों से तने तक पहुंचना होगा और फिर उस तने से उस पेड़ की मूल तक जाना होगा | अगर आपकी यात्रा की दिशा पत्तियों से पुष्प और फल की ओर है, तो फिर आपको इस संसार में वापिस लौटना ही होगा | पुष्प और फल की ओर जाने की यात्रा विज्ञान की यात्रा है, जबकि पेड़ की मूल की ओर की यात्रा ज्ञान प्राप्ति की यात्रा है | जब तक हम मूल को नहीं जानेंगे, तब तक हमारे हाथ ज्ञान के स्थान पर अविद्या ही लगती रहेगी | अविद्या आपको संसार में ही भटकाती रहेगी, बंधन ही पैदा करती रहेगी, कभी भी मुक्त नहीं होने देगी | पुष्प व फल की ओर की यात्रा बाहर की यात्रा है और मूल की ओर की यात्रा स्वयं के भीतर की यात्रा है | अतः आवश्यक है कि हमारी यात्रा बहिर्मुखी न होकर अंतर्मुखी हो |
        जब आपकी यात्रा मूल की तरफ हो तो आप एक दिन मूल को जान ही लेंगे और एक बार मूल को जान लेते ही समस्त पेड़ को जान जायेंगे | मूल को जानकर पेड़ को जान लेना ही ज्ञान है, जबकि केवल पुष्प अथवा फल को जान लेना विज्ञान है | जैसे अव्यक्त, अर्थात दिखाई न पड़ने वाली मूल के बिना व्यक्त, अर्थात पेड़ का कोई अस्तित्व नहीं है और न ही उस पर खिलने वाले पुष्प अथवा लगने वाले फल का | ठीक इसी प्रकार उस अदृश्य परमपिता के बिना इस संसार, इस भौतिक जगत की कल्पना नहीं की जा सकती | हमें इस व्यक्त के पीछे छुपे हुए अव्यक्त का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा हम केवल व्यक्त को ही महत्त्व देते रहेंगे और व्यक्त का होना बिना अव्यक्त के हुए असंभव है | इस  बात को भगवान श्री कृष्ण गीता में स्पष्ट करते हुए कहते  हैं कि-
         उर्ध्वमूलमध: शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् |
         छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् || गीता-15/1 ||
अर्थात आदिपुरुष परमेश्वर रूप मूल वाले (परमात्मा) और ब्रह्मारूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं तथा वेद जिसके पत्ते कहे गए हैं, उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है |
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, August 10, 2016

ज्ञान-विज्ञान-8

ज्ञान-विज्ञान-8
        तत्वज्ञान को प्राप्त करना मुश्किल अवश्य हो सकता है, असंभव कदापि नहीं |  परमात्मा स्वयं गीता में कह रहे हैं कि ‘हाँ, यह सत्य है कि अत्यल्प संख्या में व्यक्ति तत्वज्ञान के प्रति उत्सुक होते हैं और उनमें भी कोई एक इसे प्राप्त करने का प्रयास करता है | ऐसे कई प्रयास करने वालों में से कोई एक व्यक्ति ही मुझको अर्थात ज्ञान को प्राप्त कर पाता है |’ भगवान ने इस श्लोक में दो महत्वपूर्ण बातें कही है | प्रथम बात- तत्वज्ञान को प्राप्त करने के मार्ग पर चलने वाला प्रत्येक मनुष्य योगी होता है | दूसरी बात-परमात्मा को यथार्थ रूप से जानने के लिए उनके प्रति परायण होना आवश्यक है | प्रथम बात के अनुसार इस भौतिक संसार में साधारण मनुष्यों की तुलना में योगियों की संख्या बहुत ही कम है | दूसरी बात के अनुसार इन योगियों में भी परमात्मा के परायण बहुत ही कम योगी हो पाते हैं तभी इतने योगियों में से कोई एक योगी ही परमात्मा को यथार्थ रूप से जान पाता है |
          इसी लिए गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सर्वप्रथम तो योगी हो जाने को कहते हैं (गीता-6/46) और बाद में परायण होने को (गीता-9/34) कहते हैं | परमात्मा को यथार्थ रूप से जानने का सुगम मार्ग यही है | संसार से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख होना आपको विज्ञान से ज्ञान की और ले जाने का मार्ग प्रशस्त करता है | संसार से विमुख होने का अर्थ पलायन से नहीं है बल्कि भौतिकता से परे चले जाना है | भौतिकता आपको बांधती है और ऐसे किसी भी बंधन को तोड़ पाना आसान कार्य नहीं है | बंधन को छोडना आपके हाथ में है, क्योंकि सभी बंधन आपके ही पैदा किये हुए हैं | बंधे हुए आप स्वयं हैं और इन बंधनों से मुक्त होना भी आपके हाथ में है | एक बार इन बंधनों से मुक्त होते ही आप योगी बन जाते है क्योंकि बंधन मुक्त व्यक्ति ही ज्ञान प्राप्ति के लिए एक उपयुक्त व्यक्ति होता है | बंधन आपको ज्ञान से सदैव दूर ही रखता है क्योंकि बंधन आपको एक सीमा तक सीमित कर देता है जबकि ज्ञान व परमात्मा असीम है |
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, August 9, 2016

ज्ञान-विज्ञान-7

ज्ञान-विज्ञान-7
    ज्ञान - विज्ञान में अंतर स्पष्ट हो जाने पर हम यह समझ सकते हैं कि इस संसार में जानने योग्य क्या है ? भौतिकता का ज्ञान विज्ञान है, अतः यह अविद्या ही है | जो विद्या अथवा ज्ञान हमें परिवर्तनशील का ज्ञान कराता है, वह स्वयं भी सदैव ही परिवर्तनशील अवस्था में रहता है | फिर ऐसी विद्या ज्ञान कैसे हो सकती है क्योंकि ज्ञान तो सदैव ही किसी भी परिवर्तन से परे और स्थाई है | इसी लिए विज्ञान को अविद्या कहा गया है | आइये, अब हम भी अर्जुन के साथ विज्ञान सहित ज्ञान को जानने का प्रयास करते हैं | भगवान श्री कृष्ण गीता में आगे कहते हैं-
            मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
            यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ||  गीता 7/3 ||
अर्थात हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वालों योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात यथार्थ रूप से जानता है |
          हजारों मनुष्यों में से कोई एक, अर्थात अपवाद स्वरूप ही किसी एक व्यक्ति के मन में विज्ञान से परे जाकर ज्ञान को प्राप्त करने की उत्कंठा पैदा होती है अन्यथा अधिकतर व्यक्ति तो भौतिकता के ज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान समझ उसी में रमे रहते है और तत्वज्ञान के बारे में कल्पना तक नहीं करते हैं, उसे प्राप्त करने का प्रयास करना तो बहुत दूर की बात है | ऐसे ही जिनके मन में वास्तविक ज्ञान को प्राप्त करने की उत्कंठा पैदा होती है, वे इसके लिए प्रयास करते हैं | उनमें से भी कोई एक परमात्मा को यथार्थ रूप से जान सकता है परन्तु उसके लिए भी यह आवश्यक है कि वह परमात्मा के परायण हो | इस श्लोक के अर्थ से आप समझ सकते हैं कि तत्वज्ञान को प्राप्त करना कितना मुश्किल है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||

Monday, August 8, 2016

ज्ञान-विज्ञान-6

ज्ञान-विज्ञान-6
       भौतिकता व्यक्त है और परमात्मा अव्यक्त है | प्रत्येक व्यक्त के पीछे अव्यक्त अवश्य है अन्यथा वह व्यक्त हो ही नहीं सकता | अगर आप घड़ा देख रहें हैं तो घड़ा व्यक्त है और उस घड़े के निर्माण में लगी मिट्टी एक घड़े के रूप में व्यक्त होते हुए भी हमारी भौतिक दृष्टि में अव्यक्त है | इसी प्रकार जब श्याम पट्ट पर चाक से  कुछ वाक्य लिख दिए जाये तो वे वाक्य तो व्यक्त  हो जाते हैं परन्तु जिस पर ये वाक्य लिखे गए हैं, वह श्याम पट्ट हमारी भौतिक दृष्टि में दिखाई नहीं पड़ता है | इसी प्रकार इस व्यक्त सृष्टि के पीछे  परमात्मा ही है और वह स्वयं अव्यक्त है | जिस दिन इस बात का हमें ज्ञान हो जाता है, उस दिन सत - असत्, व्यक्त - अव्यक्त का भेद भी समाप्त हो जाता है | यह भेद समाप्त हो जाना ही वास्तविक ज्ञान को प्राप्त कर लेना है | इसीलिए गीता में विभिन्न स्थानों पर भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि सत भी मैं हूँ और असत् भी मैं हूँ, फिर कहते हैं मैं सत भी नहीं हूँ और असत् भी नहीं हूँ और अंत में कहते हैं कि मैं सत और असत् दोनों से परे हूँ | सत और असत् से परे हो जाना ही वास्तविक ज्ञान है, परमात्मा को जान लेना है | यह ज्ञान स्थूल इन्द्रियों से प्राप्त नहीं किया जा सकता | इसी कारण से परमात्मा को अविज्ञेय कहा जाता है |
            अभी हरिः शरणम् आश्रम में आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने मुझे ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदास जी से संबंधित एक प्रसंग सुनाया | जब स्वामीजी गुवाहाटी में सत्संग कर रहे थे, तब किसी एक सज्जन ने उनसे पूछा कि क्या आपने कभी परमात्मा के दर्शन किये हैं ? तब स्वामीजी ने उसको कहा कि आपने अपने पास कितनी सम्पति इकट्ठी कर रखी है, क्या यह आप सब को बताते हैं ? नहीं न, तो फिर मैं आपको क्यों बताऊँ ? सही उत्तर दिया स्वामीजी क्योंकि परमात्मा के दर्शन को शब्दों के माध्यम से बताया ही नहीं जा सकता | परमात्मा  का ज्ञान हो जाना, उसके दर्शन कर लेना कोई भौतिक वस्तु को प्राप्त लेना नहीं है, जो कि उसको प्रत्येक स्थान पर कहते हुए घूमा जाये | यह ज्ञान तो ‘गूंगा केरि शर्करा, खाय और मुसकाय’ जैसी है | जैसे एक गूंगा शक्कर खाकर, उसकी मिठास को केवल एक मुस्कुराहट देकर व्यक्त कर देता है वैसे ही परमात्मा के दर्शन पाकर आनंदित ही हुआ जा सकता है, उसे शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता | विज्ञान को शब्दों के माध्यम से प्रकट किया जा सकता है जबकि ज्ञान आत्मानुभूति है, उसे शब्दों की आवश्यकता नहीं है | यही विज्ञान और ज्ञान में मूलभूत अंतर है |
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, August 7, 2016

ज्ञान-विज्ञान-5

               जैसा कि मैंने कहा है कि सभी विज्ञान ज्ञान से ही निकले हैं, इसका अर्थ है कि एक विषय से सम्बंधित ज्ञान को जान लेना ही उस विषय का विज्ञान है | जैसे कि वनस्पतियों के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेने का नाम वनस्पति-विज्ञान है और चिकित्सा का ज्ञान प्राप्त कर लेने  का नाम चिकित्सा-विज्ञान है आदि | परन्तु एक मात्र विषय का ज्ञान प्राप्त कर लेने मात्र से ही ज्ञानी हो जाना नहीं होता है बल्कि समस्त का समग्र ज्ञान प्राप्त कर लेने से ही ज्ञानी हुआ जा सकता है | जिसके अंतर्गत समस्त आ जाता है, उसका एक ही नाम है और वह नाम है ‘परमात्मा’ | अतः परमात्मा का ज्ञान हो जाना ही वास्तव में ज्ञान को उपलब्ध हो जाना है अन्यथा शेष सभी तो विज्ञान है, अविद्या ही है |
            विज्ञान हमें संसार में बनाये रखता है, संसार के साथ बांधता है जबकि ज्ञान हमें मुक्त करता है | तुच्छ के साथ बने रहना एक बंधन है और समस्त के साथ एक हो जाना मोक्ष को प्राप्त हो जाना है | विज्ञान सांसारिक और व्यक्त को समझने और समझाने का ज्ञान है और इस कारण से वह एक सीमा में बंधा हुआ है जबकि ज्ञान अपरिमेय है, असीम है | असीम को जानना लगभग असंभव है, इसीलिए परमात्मा को अविज्ञेय कहा गया है | इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि परमात्मा को जाना ही नहीं जा सकता | इन्द्रियां हमें केवल भौतिक वस्तुओं का ज्ञान ही करा सकती है, परमात्मा का नहीं क्योंकि समस्त भौतिक वस्तुएं असत् है, जबकि परमात्मा सत हैं | असत् का ज्ञान असत् से ही हो सकता है, सत का ज्ञान असत् से नहीं | भौतिकता असत् है और इन्द्रियां भी असत् है | हमारी सबसे बड़ी कमी यही है कि हम असत् से सत को जानने का प्रयास करते  हैं |
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||