इन्द्रियों, मन और बुद्धि के आपसी
सम्बन्ध को उजागर करते हुए कठोपनिषद के अध्याय एक की तृतीय वल्ली में कहा गया है-
यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्तेन मनसा सदा |
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथे || कठोपनिषद 1/3/5 ||
अर्थात जो सदैव विवेकहीन बुद्धिवाला और चंचल मन से युक्त रहता है; उसकी
इन्द्रियां असावधान सारथि के दुष्ट घोड़ों की भांति वश में न रहने वाली हो जाती है
|
रथ में जुड़े घोड़ों (इन्द्रियों) का नियंत्रण लगाम (मन) के पास है और लगाम (मन)
होती है सारथि (बुद्धि) के हाथ में | सारथि (बुद्धि) अगर विवेकहीन हो तो लगाम (मन)
पर नियंत्रण नहीं रख पता है | लगाम (मन) पर नियंत्रण खोते ही रथ (भौतिक शरीर) को
घोड़े (इन्द्रियां) अपनी मर्जी से चाहे जिधर ले जा सकते हैं | कठोपनिषद का उपरोक्त
मन्त्र इस बात को स्पष्ट करता है कि व्यक्ति को अपनी बुद्धि से विवेक पैदा करना
होगा तभी वह मन पर प्रत्येक स्थिति में अपना नियंत्रण स्थापित रख सकता है |
गोस्वामीजी रामचरित मानस में बुद्धि
में विवेक जाग्रत करने का उपाय बतलाते हुए कहते हैं कि -
“बिनु सत्संग विवेक न होई | राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ||”
बुद्धि का नाश ही कुसंग में जाने से
होता है और सत्संग में रहने से बुद्धि को धार मिलती है और व्यक्ति में विवेक
जाग्रत हो उठता है | परन्तु यह सत्संग बिना परमात्मा की कृपा हुए किसी को भी सुलभ
नहीं होता है | परमात्मा की कृपा ही आपकी बुद्धि के स्तर को ऊपर उठा कर उसे विवेक
में परिवर्तित कर देती है | विवेक से ही मनुष्य मन को सदैव के लिए नियंत्रण में
रखने में सफल हो सकता है, केवल बुद्धि से नही | बुद्धि पर मन कभी भी प्रभावी हो
सकता है परन्तु विवेक कभी भी अपने ऊपर मन को प्रभावी नहीं होने देगा | इसीलिए इस
मन्त्र में ‘अविज्ञानवान’ शब्द का उपयोग हुआ है, जिसका अर्थ है, विवेकहीन बुद्धि
वाला अर्थात जिस मनुष्य में बुद्धि तो है, परन्तु विवेक नहीं |
|| हरिः शरणम् ||
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