Sunday, July 10, 2016

भक्ति और मुक्ति-3 समापन कड़ी

                        यह स्पष्ट है कि सांसारिकता से तो भक्त मुक्त हो ही जाता है परन्तु वह भक्ति से आगे की पूर्ण मुक्ति अर्थात मोक्ष बिलकुल भी नहीं चाहता | सालोक्य से सायुज्य तक के सभी मोक्ष की वह अवहेलना ही करता है | ऐसी स्थिति में जो दृश्य बनता है, आइये तनिक उसकी कल्पना करें | वह ब्रह्माण्ड की सम्पूर्णता में परमात्मा को देखता है, यहाँ तक कि स्वयं को भी; परन्तु परमात्मा से अलग खड़ा होकर | हालाँकि वह समस्त के साथ साथ स्वयं में भी परमात्मा का उपस्थित होना मानता है परन्तु साथ ही साथ परमात्मा से अपने आपको भिन्न भी मानता है | इसका कारण है कि सामीप्य से लेकर सायुज्य मोक्ष की उपलब्धि हो जाने पर भक्त का सेवा भाव और प्रेम तिरोहित हो सकता है | इसी कारण से भक्त कभी मोक्ष की कामना तक नहीं करता है | परमात्मा के साथ सायुज्य हो जाने पर कौन तो सेवा करवाए और कौन सेवा करे ? सेवा और प्रेम करने के लिए दो का होना आवश्यक है | अतः पहुंचा हुआ भक्त कभी भी मोक्ष की कामना नहीं करता क्योंकि मोक्ष होते ही भक्त और भगवान का सायुज्य हो जाता है अर्थात दो का मिलन होकर केवल एक परमात्मा ही रह जाते हैं | जो आनंद परमात्मा के साथ रहने से है उससे अधिक आनंद परमात्मा से अलग रहकर उसकी सेवा करने में है, उस परमात्मा और उसकी समस्त सृष्टि से प्रेम करने में है | अतः भक्ति को मोक्ष से महत्वपूर्ण कहा गया है | कबीर ने इसी मोक्ष को ठुकराते हुए कहा भी है –
       राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय |
      जो सुख साधु संग में, सो वैकुण्ठ न होय ||
          इस का  स्पष्ट अर्थ यही है कि मोक्ष की कामना को एक तरफ रख दीजिये, परमात्मा से प्रेम कीजिये | संसार की निष्काम भाव से सेवा करना ही परमात्मा से प्रेम करना है | इस भौतिक शरीर को त्यागने के साथ ही सायुज्य मोक्ष और निर्वाण पद मिलना तय है, परन्तु तभी जब आपका लक्ष्य केवल प्रेम करना हो; भक्ति हो, मोक्ष पाना नहीं |

                   || हरिः शरणम् ||

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