इस जिन्न (मन) को नियंत्रित कर
सकते हैं, हम अपनी बुद्धि से | परमात्मा ने हमें बुद्धि दी है, उस बुद्धि से स्वयं
में विवेक पैदा करें और उस विवेक से मन को परमात्मा में लगा दें | पाठ्यक्रम में
जो कहानी थी, उसमें बोतल खोल जिन्न को बाहर निकालने वाला व्यक्ति अपने विवेक का
उपयोग करता है | वह जिन्न को कहता है कि तुम इतने विशाल शरीर के मालिक हो, मुझे
विश्वास नहीं हो रहा है, तुम इतनी छोटी सी बोतल में कैसे समा सकते हो ? मेरी मरने
से पहले एक इच्छा है कि मैं यह देखूं कि एक विशालकाय जिन्न भी इस छोटी सी बोतल में
समा सकता है | जिन्न उसका आग्रह मान कर पुनः उस छोटी सी बोतल में घुस जाता है |
तत्काल ही वह व्यक्ति बोतल का ढक्कन लगा देता है | इस प्रकार जिन्न पुनः कैद हो
जाता है अर्थात नियंत्रित हो जाता है | ठीक इसी प्रकार हमें भी अपने मन को बाहर संसार
में भटकने से रोकना है |
जहाँ मन है, वहां अहंकार भी है और जहाँ
अहंकार है वहां विनाश तो होगा ही | मन में अहंकार तभी पैदा होता है, जब मन को खाली
और खुला छोड़ दिया जाये क्योंकि स्वतन्त्र मन कुछ ऐसा करना चाहेगा, जिसमें कर्तापन
का भाव हो | कर्ता भाव रखना ही अहंकार पैदा करना है | कामनाओं और तृष्णाओं की पूर्ति
में लग जाने के कारण ही मन ऐसे कर्मों को करने में उलझ जाता है जो अहंकार उत्पन्न
करे | ऊपर वर्णित श्लोक हमें इस बात का स्पष्ट इशारा भी कर रहा है |
परमात्मा कहते हैं, ‘निमित्तमात्रं भव
सव्यसाचिन’, अतः परमात्मा की आज्ञा तो माननी ही पड़ेगी | निमित्त मात्र बन जाओ और इस
चिराग (भौतिक शरीर) में अवस्थित जिन्न (चित्त) को परमात्मा में लगा दो | फिर देखो,
यह जिन्न (चित्त) कैसे आपको मृत्यु के भय से दूर कर मुक्ति की ओर ले जाता है | यही
मर्म छुपा है, बचपन में सुनी इस अलादीन के चिराग और इसके भीतर बैठे हुए जिन्न की
कहानी में |
|| हरिः शरणम् ||
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