महाभारत में जो बात मन और इन्द्रियों के विषय में कही गई है, वही बात गीता में
भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं –
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः |
इन्द्रियाणि प्रमाथिनी हरन्ति प्रसभं मनः || गीता-2/60 ||
अर्थात हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली
इन्द्रियां यत्न करते हुए बुद्धिमान मनुष्य के मन को बलात हर लेती है |
भोगों की बार बार चाहना ही भोगों के प्रति आसक्ति है | भोगों को उपलब्ध कराना
इन्द्रियों का कार्य है | इन्द्रियों का स्वभाव है कि वे भोगों की तरफ आकृष्ट होती
रहती है परन्तु बिना मन की सहमति के वे भोग उपलब्ध कराने में असहाय होती है | ऐसी
स्थिति में ये इन्द्रियां बार बार भोगों की ओर दौड़ती रहती है और उनके इस प्रमथन
स्वभाव के कारण मन भी दीर्घ काल तक प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता | अंततः इन्द्रियां
मन को अपने वश में कर ही लेती है | मन के वश में होते ही बुद्धि भी निष्प्रभावी हो
जाती है | मनुष्य ऐसी परिस्थिति में मन, इन्द्रियों और भोगों के पराधीन होकर रह
जाता है |
बुद्धि अगर मन पर पूर्ण
नियंत्रण रखे तो ही इन्द्रियों को वश में किया जा सकता है, अन्यथा नहीं | बुद्धि
मनुष्य का मुख्य आधार है, जो उसे अन्य प्राणियों से विशेषता प्रदान करता है |
ज्योंहि बुद्धि का प्रभाव मन पर ढीला पड़ता है, इन्द्रियां उस मन को अपने पक्ष में
कर लेती है | एक बार मन का भटकना प्रारम्भ हुआ कि मनुष्य का पतन होना निश्चित है |
अतः केवल बुद्धि ही मनुष्य को किसी भी संभावित पतन से बचा सकती है |
|| हरिः शरणम् ||
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