Monday, July 18, 2016

श्री मद्भागवत महापुराण से-

                   महाभारत और गीता में इन्द्रियों, मन और बुद्धि के बारे में जो कुछ कहा गया है, भागवत में वही बात और अधिक स्पष्ट हो जाती है | 
भागवत में भगवान श्रीकृष्ण उद्धव को कहते हैं -
मनोगतिं न विसृजोज्जितप्राणो जितेन्द्रियः |
सत्वसम्पन्नया बुद्ध्या मन आत्मवशं नयेत् || भागवत-11/20/20 ||
अर्थात मनुष्य को चाहिए कि वह इन्द्रियों और प्राणों को अपने वश में रखे और मन को एक क्षण के लिए भी स्वतन्त्र न छोड़े | उसकी एक-एक चाल, एक-एक हरकत को देखता रहे | इस प्रकार सत्व संपन्न बुद्धि के द्वारा धीरे-धीरे मन को अपने वश में कर लेना चाहिए |
      अतः यह स्पष्ट है कि सत्व संपन्न बुद्धि अर्थात स्व-विवेक से ही मन को नियंत्रित किया जा सकता है परन्तु अगर बुद्धि सत्व संपन्न न होकर स्वयं ही पथभ्रष्ट हो जाये तो क्या किया जा सकता है ? बुद्धि को भी सही मार्ग पर रखना आवश्यक है और यह बुद्धि परमात्मा की भक्ति करने से ही सही मार्ग पर रह सकती है अन्यथा यह कामनाओं के प्रभाव से पथच्युत हो सकती है | इस बारे में भागवत में ही लिखा है कि परमात्मा के भक्त की बुद्धि स्थिर रहती है, कभी भी विचलित नहीं हो सकती |
न धीर्मय्येकभक्तानामाशीर्भिर्भीद्यते क्वचित् || भगवत-10/51/60 ||
भगवान् श्री कृष्ण राजा मुचुकुन्द से कहते हैं कि मेरे जो अनन्य भक्त हैं, उनकी बुद्धि कभी भी कामनाओं से इधर उधर नहीं भटकती |
यह अनन्य भक्ति प्राप्त होती है सत्संग से, गुरु के सानिध्य से | अतः ध्यान रहे, सत्संग और गुरु का प्रभाव ही आपको विवेकशील और परमात्मा का अनन्य भक्त बना सकता है | आपको भी सद्गुरु मिले, यही परमेश्वर से प्रार्थना है | कल गुरु पूर्णिमा है, आप सभी अपने गुरु का वंदन अवश्य करें |

|| हरिः शरणम् ||

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