रामचरितमानस
में नवधा भक्ति-
त्रेता युग में भगवान श्री राम और शबरी
का जब मिलन होता है, तब भगवान शबरी को इसी नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं |
गोस्वामीजी ने बहुत ही सुन्दर रूप से इसका चित्रण मानस में किया है |
गोस्वामी तुलसीदास जी मानस के अरण्य काण्ड में
भक्ति के बारे में कहते हैं-
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा | दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ||
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान |
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ||35||
मन्त्र जाप मम दृढ बिस्वासा | पंचम भजन सो बेद प्रकासा ||
छठ दम सील बिरति बहु करमा | निरत निरंतर सज्जन धरमा ||
सातवं सम मोहि मय जग देखा | मोतें संत अधिक कर लेखा ||
आठवं जथालाभ संतोषा | सपनेहुँ नहिं
देखइ परदोषा ||
नवम सरल सब सन छलहीना | मम भरोस हियँ
हरष न दीना ||
नव महुं एकउ जिन्ह कें होई | नारि पुरुष सचराचर कोई ||
सोइ अतिसय प्रिय भामिनी मोरें | सकल प्रकार भगति दृढ तोरें ||
प्रथम भक्ति- संत महात्मा और तत्व ज्ञानी गुरु की सेवा में रहना | दूसरी भक्ति- परमात्मा की ही चर्चा करना | तीसरी भक्ति- अभिमान रहित होकर गुरु की सेवा करना | चौथी भक्ति- सब कपट त्यागकर परमात्मा का गुणगान करना | पांचवीं भक्ति- परमात्मा में दृढ विश्वास रखते हुए उसके
मन्त्र का जाप करना | छठी भक्ति- इन्द्रिय निग्रह, अच्छा चरित्र और सज्जन पुरुषों जैसा आचरण करना | सातवीं भक्ति – संसार को सम भाव से देखना और सब में परमात्मा
को ही देखना | आठवीं भक्ति- जो मिल जाये उसी में संतोष करना
और सपने में भी दूसरों के दोष न देखना | नौवीं भक्ति-
सरलता, सबके साथ कपट रहित व्यवहार, ह्रदय में परमात्मा का विश्वास और किसी भी बात से हर्ष या
विषाद न होना | इन में से कोई भी एक भक्ति भी जिस किसी में
होती है, वह परमात्मा को अतिशय प्रिय होता है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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