वेदों ने भक्ति की
राह में आने वाली ऐसी ही मुक्ति के चार भेद बताएं है | प्रथम प्रकार की मुक्ति है,
“सालोक्य” प्रदान करने वाली, दूसरी प्रकार की मुक्ति है, “सारूप्य” प्रदान करने
वाली, तीसरी मुक्ति है, “सामीप्य” प्रदान करने वाली तथा चौथी और अंतिम प्रकार की
मुक्ति है, “निर्वाण” पद तक पहुँचाने वाली | परमात्मा का परम भक्त कभी भी ऐसी किसी
भी प्रकार की मुक्ति नहीं लेना चाहता, वह तो सदैव प्रभु की सेवा में ही लगे रहना
चाहता है | भक्त पुरुष तो शिवत्व, विष्णुत्व, अमरत्व व ब्रह्मत्व तक की अवहेलना
करते है | भक्ति में निरंतर सेवा भाव बना रहता है, जब कि मुक्ति सेवा रहित होती है
| यही भक्ति और मुक्ति में मूलभूत अंतर है |
इसी बात को भागवत में महामुनि कपिल
अपनी माता देवहूति को भक्ति के बारे में पूछने पर स्पष्ट करते हैं और कहते हैं कि –
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत
| दीयमानं न गृहँन्ति विना मत्सेवनं जनाः || भागवत 3/29/13 ||
अर्थात जो मेरे
निष्काम, निर्गुण भक्त है, वे दिए जाने पर भी मेरी सेवा को छोडकर सालोक्य,
सार्ष्टि, सामीप्य, सालोक्य और सायुज मोक्ष तक नहीं लेते |
सालोक्य = भगवान के
नित्य धाम में निवास |
सार्ष्टि = भगवान के
समान ऐश्वर्य भोग |
सामीप्य = भगवान की
नित्य समीपता |
सारूप्य = भगवान का
सा रूप |
सायुज्य = भगवान के
विग्रह में समा जाना, उनसे एक हो जाना या ब्रह्मरूप को प्राप्त कर लेना | यही निर्वाण पद को प्राप्त कर लेना है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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