अभी पीछे एक दिन ईद
का अवकाश था और मैं घर पर यूँ ही बैठा था | कोई
काम नहीं था मेरे पास | मस्तिष्क में कई विचार आ जा रहे थे | कभी शिक्षा प्राप्त
करने वाले दौर को याद करता, कभी आश्रम व आचार्यजी का स्मरण होता और कभी कभी बचपन
की चुहलबाजी को याद कर हंस पड़ता | उसी विचारों के प्रवाह में बहते उतरते बचपन में
सुनी इसी कहानी पर आकर मस्तिष्क ठहर गया | मैं यह कल्पना करने लगा कि क्या ऐसा कोई
चिराग और उसमें कोई जिन्न भी हो सकता है कि जो कभी काम करते थकता भी न हो, जो कभी खाली
भी नहीं रह सके ? अचानक मेरे दिमाग में एक बात कौंधी कि अभी मैं भी खाली बैठा हूँ
क्या ? गहराई से सोचा तो पता चला कि मेरे पास आज कोई काम नहीं है और मैं तो खाली
हूँ परन्तु फिर सोचा कि मस्तिष्क में यह विचारों का प्रवाह कैसे चल रहा है ? गहरे
से अनुभव किया तो पता चला कि यह विचार तो मन के भीतर चल रहे है | यह तो मेरा मन ही
है, जो कभी खाली नहीं बैठ सकता | यह अलादीन
का चिराग अथवा वह बंद बोतल ही तो मनुष्य का शरीर है और यह जिन्न उस शरीर में
अवस्थित मन है, जो कभी भी खाली बैठा रह ही नहीं सकता |
ओहो ! दादी जब कहानी सुनाती थी, तब
हम उस जिन्न की कल्पना कर के ही डर जाते थे ओर दादी के और अधिक निकट जाकर उनसे चिपक
कर सो जाते थे | आज पता चला है कि अपना मन ही वह जिन्न है और आज हम सब जिन्न से भी
अधिक डरावने अपने मन से बिलकुल भी नहीं डर रहे हैं | यह मन का खाली न रह पाना, इस
मन का बेवजह इधर उधर भटकाव ही व्यक्ति की मृत्यु
है | जब तक इस जिन्न रूप मन को काम में लगाये रखेंगे तब तक सब ठीक चलता रहेगा और
ज्योंही इसको जरा सा भी खाली छोड़ दिया, यह आपको वासनाओं के जाल में, तृष्णाओं के भँवर
में डाल देगा और फिर मृत्युपर्यंत उसी में फंस के रहना होगा | वासनाएं किसी भी
प्रकार से मृत्यु से कम नहीं है | बचपन से जिस जिन्न से डरते थे, आज उसी जिन्न को हम
आराम से भटकने दे रहे हैं, अपनी कामनाओं और वासनाओं की पूर्ति के लिए; यह जानते हुए
भी कि एक दिन हमें ही यह जिन्न मार डालेगा |
|| हरिः शरणम् ||
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