Thursday, July 14, 2016

चिराग और जिन्न-4

                 अब हमारे सामने यही प्रश्न आता है कि फिर इस जिन्न को, इस मन को ऐसा कौन सा कार्य बताया जाये जिससे यह मन वासनाओं में न उलझे | इसके लिए यह आवश्यक है कि मन अर्थात इस चित्त की वृतियों का निरोध किया जाये | चित्त की वृतियों  के निरोध को ही योग साधना कहा गया है |
        चित्त की वृतियों क्या है यह हम सब जानते ही हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आदि | एक परमात्मा में चित्त लगाना ही चित्त की वृतियों पर नियंत्रण करना है | अतः सदैव मन को परमात्मा में ही लगायें | संसार में मन को लगाने से वह वासनाओं और तृष्णाओं में ही जाकर फंसेगा |
 गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                   मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
                   अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसी विनंक्ष्यसि || गीत18/58 ||
अर्थात उपर्युक्त प्रकार से मुझ में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जायेगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जायेगा अर्थात परमार्थ मार्ग से भटक जायेगा |

              परमात्मा कहते हैं कि मैंने यह संसार केवल भोगों के लिए नहीं बनाया है, बल्कि आत्म-ज्ञान के लिए बनाया है | जिस दिन आत्म-ज्ञान हो जायेगा, हम इस मन को भटकने से रोक सकते हैं |  परमात्मा की सुंदर सृष्टि को हम सब देखते हैं परन्तु उस परमात्मा को कोई नहीं देखता | प्रभु की कृपा से ही हम इस मायावी संसार सागर के पार जा सकते हैं, अपने निजी प्रयास से नहीं | जब तक हम इस एक जीव की चेतना में है तब तक परमात्मा की माया का आवरण नहीं हटेगा | हमारे ऊपर परमात्मा की कृपा होने से ही यह माया का छद्म आवरण हट सकता है और इसके लिए परमात्मा के प्रति समर्पण आवश्यक है |
क्रमशः 
                       || हरिः शरणम् ||          

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