ज्ञान अगर प्राप्त करना है तो सबसे पहले विज्ञान की राह पकड़नी होगी |
विज्ञान ज्ञान को ग्राह्य बना देता है | बिना विज्ञान की राह पकडे अगर हम ज्ञान को
पकड़ने का प्रयास करते हैं, तो हमें अज्ञान के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं लगेगा | भक्ति
अवश्य ही सीधे परमात्मा का ज्ञान करा देती है परन्तु थोड़ी सी भी विज्ञान की समझ
रखने वाले को तो सीधे भक्ति ही प्राप्त
नहीं होती, परमात्मा को प्राप्त करना तो दूर की कौड़ी है | इसी लिए कहा जाता है कि
अल्प ज्ञान के स्थान पर अज्ञानी होना ज्यादा अच्छा है | अर्जुन के साथ भी तो यही
हुआ था, वह अपने आपको ज्ञानी समझ रहा था जबकि वास्तव में उसे कुछ भी ज्ञान नहीं था
| यही कारण है कि गीता के प्रारम्भ से सातवें अध्याय तक आते आते भगवन श्री कृष्ण
को आभास हो गया कि अर्जुन को समझाने के लिए कोई और रास्ता ही अपनाना पड़ेगा |
सातवें अध्याय के प्रारम्भ में भगवान् कहते हैं-
ज्ञानं तेSहं
सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः |
यज्ज्ञात्वा नेह
भूयोSन्यजज्ञातव्यमवशिष्यते || गीता 7/2 ||
अर्थात मैं तेरे लिए
इस विज्ञान सहित तत्वज्ञान को सम्पूर्ण तया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर कुछ
भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता |
भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि अर्जुन
अपनी सांसारिक जानकारी को ही ज्ञान समझ रहा है, जबकि सांसारिक जानकारी केवल सूचना
देने वाला ज्ञान मात्र होता है | इस सूचना मात्र ज्ञान को ही विज्ञान कहा जाता है |
विज्ञान ज्ञान के केवल एक अति सूक्ष्म भाग की सूचना मात्र ही तो है | इस सूचना की
मूल को जान लेना ही वास्तविक ज्ञान है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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