Thursday, July 7, 2016

एक जिज्ञाषा |

               “प्रेय से श्रेय की ओर” लेख पर कुछ प्रश्न मिले हैं | प्रायः प्रश्नों के उत्तर उसी लेख को पूर्ण रूप से एक साथ पढ़ने पर मिल जाएंगे | एक प्रश्न आदरणीय श्री कन्हैया लाल जी शर्मा का दिल्ली से है | प्रश्न तो उसको नहीं कहा जा सकता बल्कि उस लेख में आयी एक बात को उन्होंने उत्कंठा वश थोडा और स्पष्ट करने का आग्रह किया है |
        ‘परमात्मा को मनुष्य नाम के प्राणी के निर्माण की आवश्यकता ही क्यों हुई ? केवल प्रेय में ही लगे रहने के लिए नहीं बल्कि साथ ही साथ श्रेय को जानने के लिए भी | अगर सभी प्राणी प्रेय-मार्ग के अनुगामी बने रहते तो इस सृष्टि का काल चक्र भी थम जाता | विभिन्न कल्पों और बारम्बार सृष्टि की रचना का आधार ही ये दो मार्ग हैं | किसी एक मार्ग का होना अर्थात केवल एक मार्ग पर प्राणियों का चलना सृष्टि की परिवर्तनशीलता में बाधक है | यह एक अलग विषय है, जो काल की गति, विभिन्न सृष्टियों की रचना, युगों और कल्पों की अवधारणा को पुष्ट करता है | इसकी चर्चा फिर आगे कभी करेंगे |’
          लेख से उपरोक्त अंश उद्घृत करते हुए उन्होंने लिखा है कि मनुष्य के द्वारा किसी एक मार्ग पर चलना कठिन है, इसे और स्पष्ट करें |
        प्रेय से श्रेय की ओर मनुष्य जाना तो चाहता है परन्तु उसका मानसिक द्वंद्व उसे बार बार  मार्ग बदलने को विवश करता रहता है | प्रेय मार्ग पर चलते हुए जब इन्द्रिय सुख शारीरिक व्याधि अथवा दुःख में परिवर्तित होने लगते हैं तब वह श्रेय मार्ग के सम्मुख होता है और जब वह श्रेय मार्ग पर चलता है तब मन पुनः उन इन्द्रिय सुखों की कामना करने लग जाता है | ऐसे वह बार बार श्रेय मार्ग को त्यागकर इन्द्रिय संसार में लौटता रहता है | इस प्रकार यह द्वंद्व उसे कहीं का नहीं छोड़ता | ब्रह्मलीन स्वामी रामसुख दासजी महाराज कहा करते थे –
    कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान |
    घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ||
     ठीक इसी धोबी के कुत्ते की तरह ही मनुष्य की मानसिकता हो गई है | आया के साथ आया और गया के साथ गया | कभी प्रेय अच्छा लगता है और कभी श्रेय | इसी द्वंद्व में वह न तो संसार का होकर रह पाता है और न ही परमात्मा को पा सकता है | कभी इस पर और कभी उस पर चलते हुए वह इस संसार में ही उलझा रहता है और आवागमन से मुक्त नहीं पाता | मनुष्य का किसी एक मार्ग पर निरंतर चल पाना इसी मन के द्वन्द्व के कारण संभव नहीं है |
             केवल श्रेय के मार्ग को अपना लेने मात्र से ही इस संसार में आवागमन से मुक्ति मिल जाएगी और अगर सभी मनुष्य श्रेय मार्ग पर चलने लगे तो फिर शेष 84 लाख योनियों में जन्म किसका होगा ? ऐसे में ये सभी प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी और सृष्टि का काल चक्र रूक जायेगा | इसी सृष्टि के काल चक्र को निरंतर चलाते रहने के लिए ही परमात्मा ने मन की रचना की है | मन की उपस्थिति के कारण ही यह जीव मनुष्य कहलाता है | मन है, तो द्वंद्व है और द्वंद्व के कारण कभी श्रेय और कभी प्रेय | फिर वही 84 लाख में भटकना | सब प्रभु की लीला है | जिस मनुष्य ने प्रभु की इस लीला को समझ लिया, वह श्रेय को अपनाकर एक ही छलांग में संसार चक्र से बाहर निकल आता है |

               || हरिः शरणम् ||   

No comments:

Post a Comment